भारत में आपदा प्रबंधन की तैयारियों को लेकर असंतोष जता रहे हैं लेखक…
आकस्मिक रूप से घटने वाली प्राकृतिक और मानवीय आपदाएं यूं तो हमारे जीवन का हिस्सा हैं, लेकिन यदि हम ऐसी किसी संभावित आपदा से निपटने के लिए समय रहते तैयारी कर लें, तो जानमाल का नुकसान कम किया जा सकता है। पिछले दिनों जापान में आए भूकंप और सुनामी के कारण वहां न केवल हजारों मानव जिंदगियां मौत के मुंह में समा गई, बल्कि अरबों की संपत्ति स्वाहा हो गई और अब परमाणु संयत्रों में विस्फोट के कारण जापान व उसके आसपास के देशों में परमाणु विकिरण फैल गया है। जापान के प्रधानमंत्री के मुताबिक द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उनका देश सबसे बड़े संकट से गुजर रहा है। जापान में विश्व में सबसे अधिक भूकंप आते हैं। वहां की सरकार अपने नागरिकों को इस बारे में न केवल जागरूक करती है, बल्कि उन्हें ऐसी स्थितियों से निपटने के लिए प्रशिक्षण भी देती है। भूकंप की दृष्टि से भारत भी खतरनाक क्षेत्र में आता है। गुजरात में 26 जनवरी, 2001 को आए भूकंप और 26 दिसंबर, 2004 को आई सुनामी में लाखों लोगों की मौत को भूला नहीं जा सकता। इसी तरह 1999 में उड़ीसा में सुपरसाइक्लोन और महाराष्ट्र का लातूर भूकंप भयावह घटनाएं हैं। आंकड़ों के मुताबिक हर वर्ष भारत में औसतन 5000 लोग आपदाओं में अपनी जान गंवाते हैं। इससे हमारे सकल घरेलू उत्पाद का 2.4 प्रतिशत और कुल राजस्व का 12.5 प्रतिशत का नुकसान हर वर्ष होता है। आपदा प्रबधंन के महत्व व जरूरत को देखते हुए ही 1994 में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान की स्थापना की गई। यह संस्थान शोध के अलावा जनजागरूकता फैलाने, आपदा कौशल का विकास करने व औपचारिक-अनौपचारिक प्रशिक्षण देने के अतिरिक्त सरकार को नीतिगत सलाह देने का कार्य करता है। सरकार द्वारा गठित एक उच्चस्तरीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में सड़क दुर्घटनाओं, साइक्लोन और सुपर साइक्लोन समेत कुल 32 तरह की आपदाओं की संभावना व प्रभाव के बारे में बताया है। इनमें बाढ़, सूखा, भूकंप, सुनामी व चक्रवात को भारत के लिए सबसे ज्यादा विनाशकारी माना गया है। सुनामी और चक्रवात की पूर्व जानकारी के लिए अर्ली वार्निग सिस्टम लगाने का काम पूरा हो चुका है। भूकंप के संदर्भ में कई कदम उठाए जाने के बावजूद अभी काफी कुछ किया जाना है। हमारे देश का आधे से अधिक भाग भूकंप क्षेत्र में आता है, जिसमें नेपाल से सटे बिहार का क्षेत्र काफी संवेदनशील माना जाता है। इस क्षेत्र में अभी तक का सर्वाधिक तीव्रता वाला भूकंप 1934 में आया था, जिसे रिक्टर स्केल पर 8.9 मापा गया था। भारत को चार भूकंपीय क्षेत्रों में बांटा गया है, जिसमें जोन पांच और चार ज्यादा खतरनाक हैं। जोन पांच में हिमालयी क्षेत्र, कश्मीर व पूर्वोत्तर राज्यों के अलावा इनसे सटे राज्यों के जिले आते हैं। इसी तरह दिल्ली जोन चार में आता है जो खतरनाक क्षेत्र में शामिल है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि किसी बड़ी दुर्घटना की स्थिति में हमारी तैयारियां अपर्याप्त सिद्ध होंगी। वैसे तो आपदा प्रबंधन का काम राज्य का विषय है और केंद्र सरकार जरूरत पड़ने पर ही उन्हें मदद देती है। इसके लिए रिजर्व फोर्स के तौर पर 10 हजार आपदा सुरक्षाकर्मियों को तैयार किया गया है। इसके अलावा एनसीसी, एनएसएस, एनवाइकेएस और नागरिक सुरक्षा बलों को भी प्रशिक्षण दिया जाता है। कक्षा आठ, नौ और दसवीं के छात्रों के लिए आपदा प्रबंधन की पढ़ाई को पाठ्यक्रम में शामिल कराया गया है, लेकिन इसे अभी भी इंजीनियरिंग, मेडिकल और कॉलेजों की पढ़ाई का हिस्सा नहीं बनाया जा सका है, जिसकी सबसे ज्यादा आवश्यकता है। यदि हम अग्निशमन उपकरणों की ही बात करें तो कितने लोग हैं जो इसका सही तरीके से इस्तेमाल कर सकते हैं। जापान जैसे देशों में आपदा प्रबंधन के बारे में केवल जानकारी ही नहीं दी जाती, इसे अमल में लाने के लिए बाकायदा ड्रिल प्रशिक्षण कराया जाता है ताकि यह लोगों की आदत में शुमार हो जाए। भारत में भी इसी तरह काम करना होगा। हमारे देश में अभी लोगों को यही नहीं पता है कि भूकंप आने पर सीढि़यों से भागने की कोशिश अथवा बालकनी में चहलकदमी की बजाय कमरे के किसी कोने में मेज आदि के नीचे छिपना चाहिए और अपने सिर की रक्षा करने की कोशिश करनी चाहिए। आपदा प्रबंधन के लिए मुख्यमंत्री के नेतृत्व में राज्य स्तर पर और जिलाधिकारी के नेतृत्व में जिले स्तर पर तैयारियां करने का विधान है, यह कार्य तहसील और गांव के स्तर पर भी होना चाहिए ताकि जरूरत के वक्त स्थानीय लोग आपस में समन्वय बना सकें और एक-दूसरे की मदद खुद कर सकें। आर्थिक तरक्की के द्वार खुलने के बाद निर्माण क्षेत्र तेजी पर है और ऊंचे-ऊंचे भवनों का निर्माण हो रहा है, लेकिन भूकंप सुरक्षा मानकों के लिहाज से इनमें तकरीबन 80-90 फीसदी भवन असुरक्षित हैं। 2005 में नया नेशनल बिल्डिंग कोड तो बना दिया गया, लेकिन इन पर अमल शायद ही कोई कर रहा है। इस बारे में सरकार को सख्त कदम उठाने होंगे, अन्यथा प्राकृतिक आपदा होने पर इस लापरवाही की बड़ी कीमत चुकानी होगी। हमारे यहां एक और बड़ी समस्या धार्मिक उत्सवों, आयोजनों व सार्वजनिक कार्यक्रमों के दौरान भगदड़ से होने वाली मौतों की बढ़ती संख्या का भी है। इसे रोकने के लिए दुरुस्त सुरक्षा व्यवस्था के साथ-साथ एक राष्ट्रीय चरित्र व संस्कार को विकसित करने की जरूरत है ताकि लोग अनुशासित होकर पंक्तिबद्ध अपनी बारी का इंतजार करें और धैर्य न खोते हुए ऐसी किसी स्थिति में भागदौड़ की प्रवृत्ति से बचें। हम जापान से सीख सकते हैं कि इतनी बड़ी तबाही के बावजूद लोग कतारों में खड़े होकर सहायता स्वरूप मिलने वाली चीजों को ले रहे हैं। जब तक हम व्यक्तिगत भावना से ऊपर नहीं उठेंगे और सामुदायिक व राष्ट्रीय चरित्र का विकास नहीं करेंगे, ऐसी घटनाओं को रोकना पूर्णतया संभव नहीं होगा। जहां तक हमारे परमाणु संयत्रों की सुरक्षा का सवाल है तो निश्चित ही हमारी तैयारी जापान से बेहतर है और हमारे यहां ऐसी कोई संभावना नहीं है। फिर भी परमाणु संयत्र वाली जगहों के 20-30 किलोमीटर इलाके में रह रहे नागरिकों को ऐसे हादसों से बचाव के लिए अभी तक कोई प्रशिक्षण अथवा जानकारी नहीं दी गई है कि किस तरह वे चेतावनी के संकेत और संकट को समझ कर अपना बचाव खुद कर सकें। उदाहरण के तौर पर भोपाल गैस त्रासदी के वक्त अनेक लोगों की जानें सिर्फ इसलिए गई, क्योंकि उन्हें यही नहीं मालूम था कि उस समय उन्हें मुंह को रुमाल से ढंकना था। (लेखक राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान से संबद्ध हैं)
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