जापान एक बार फिर ऐसी त्रासदी का शिकार हुआ है, जिससे पूरी दुनिया संतप्त है। इंसानियत का तकाजा है कि पूरा विश्व दुख की इस घड़ी में जापान का साथ दे। आखिर कुछ क्षण पहले तक अपनी सामान्य जीवनचर्या में तल्लीन उन अभागे लोगों को इस बात का अहसास भी नहीं रहा होगा कि वे जीवन की अंतिम घड़ी में पहुंच चुके हैं। जल की प्रचंड लहरों में बड़ी-बड़ी गाडि़यों को खिलौनों की तरह तैरते देखकर पूरी दुनिया अचंभित थी। सड़कों पर पूरी गति से दौड़ती गाडि़यां क्षणों के अंदर जल प्रवाह का ग्रास बन गई और जब तक उसके सवार कुछ सोचते, उनके प्राण-पखेरू उड़ चुके थे। यात्रियों से भरी एक पूरी रेल तक बह गई। मरने वालों की संख्या का ग्राफ किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को द्रवित कर सकता है। दिसंबर 2004 में भी विश्व ने सुनामी की विभीषिका झेली थी और उस समय अलग-अलग देशों में मरने वालों की संख्या इससे बहुत ज्यादा थी, इसलिए यह कहा जा सकता है कि जब हम उस त्रासदी को धीरे-धीरे भूलकर अपनी सामान्य जीवनचर्या में लग गए तो इसे भी आने वाले दिनों में भूलकर हम फिर से अपने दैनिक कार्यो में व्यस्त हो जाएंगे। जापान स्वयं महान जिजिविषा वाला देश माना जाता है। न जाने कितने भूकंपों की त्रासदी झेलते हुए वह देश आर्थिक एवं तकनीक में विश्व के उच्चतम शिखर तक पहुंचा है। इसलिए सामान्य तौर पर यह विश्वास करना गलत नहीं है कि अपनी संकल्प शक्ति एवं परिश्रम द्वारा वह वर्तमान त्रासदी से उबर जाएगा, लेकिन इस मौजूदा त्रासदी में कई ऐसे पहलू हैं, जो इसके परिणामों को ज्यादा भीषण बना रहे हैं। इसलिए इसकी परिणतियों से उबरना और इसे भूल पाना आसान नहीं होगा। आखिर जलप्लावन के साथ जापान के दर्जन भर प्रांतों के 200 से ज्यादा स्थानों पर आग की लपटें तो हमने 2004 में नहीं देखीं थीं। और सबसे बढ़कर चेरनोबिल के बाद दुनिया पहली बार नाभिकीय संयंत्रों के सघन विकिरण के खतरों का सामना कर रही है। इसे प्रकृति के सामान्य प्रकोप यानी भूकंप और उसके कारण उठी स्वाभाविक सुनामी की त्रासदी मानकर विवेचना करना कतई उचित नहीं। नाभिकीय आपातकाल लागू होना सामान्य स्थिति का परिचायक नहीं हो सकता। नाभिकीय विकिरण शब्द मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। पहले फुकुशिमा के निकट नाभिकीय संयंत्र का मुख्य रिएक्टर धमाके के साथ उड़ गया और उसके बाद दूसरा, तीसरा व चौथा रिएक्टर भी उड़ चुका है। कल्पना करिए, वह दृश्य कितना भयावह रहा होगा। उस पर किसी दुश्मन ने हमला नहीं किया। जापान की नाभिकीय तकनीक दुनिया की श्रेष्ठतम तकनीक है। यह जापान का नंबर एक नाभिकीय संयंत्र है। क्या इसकी ऐसी भयावह दुर्दशा का विश्व समुदाय के लिए कोई सबक नहीं है? यहां से जो धुएं का गुब्बार उड़ता दिखा, उसे देखकर निष्चय ही जापानियों के अंतर्मन में हिरोशिमा और नागासाकी त्रासदी की तस्वीर कौंध गई होगी। सीजियम रेडियोधर्मी तत्व है और इसका रिसाव कैसा भीषण परिणाम ला सकता है, इसकी कल्पना से ही सिहरन पैदा हो जाती है। जापान से ज्यादा किस देश को नाभिकीय विकिरण की विभीषिका का अहसास होगा। भारी संख्या में लोगों को अपना घर, कार्यालय आदि खाली करना पड़ा है। अगर यही स्थिति भारत या ऐसे दूसरे घनी आबादी वाले देश में हो जाए तो कितने लोग विकिरण की भीषण गर्मी में गलकर मर जाएंगे और कितनी संख्या को विस्थापित करना होगा, इसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती। हमारे देश में नाभिकीय बिजली संयंत्र लगाने की तैयारियां जोरों पर है। इसकी सुरक्षा को लेकर हमें आश्वस्त करने वाले जापान की इस दशा के बाद क्या कहेंगे? आप चाहे सुरक्षा की तकनीकी और मानवीय जितनी बड़ी दीवार खींच दें, प्रकृति के कहर के सामने सभी छोटी हैं। जब नाभिकीय संयंत्र में आग की खबरें आई तो हमारे देश के एक वैज्ञानिक ने कहा कि ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि दुर्घटना की अवस्था में उसके अपने आप बंद हो जाने की स्वचालित व्यवस्था होती है और वे बंद हो गए होंगे। उनके अनुसार जो आग लगी है, वह बाहरी दीवारों तक होंगी। कोई विशेषज्ञ अपनी तात्कालिक प्रतिक्रिया में यही कहता। जापान भूकंप की त्रासदी झेलने वाला देश है और वहां के सामान्य भवन और सड़कें तक के निर्माण में इसका ध्यान रखा जाता है। जाहिर है, भूकंप की स्थिति में नाभिकीय संयंत्रों की सुरक्षा के लिए भी उसने अन्य देशों से ज्यादा प्रबंधन किया है। इसलिए सहसा किसी की यह कल्पना भी नहीं हो सकती है कि वहां ऐसा हो सकता है। किंतु हुआ क्या? हमारे सामने है। पांचों प्रमुख नाभिकीय संयंत्रों में गरमी बढ़ गई और वे गलने लगे। उन्हें गलने से बचाने के लिए नीचे से ठंडी हवा झोंकी जा रही है और अमेरिका से कूलेंट की खेप उतारनी पड़ी है। जब तक वे पर्याप्त रूप से ठंडे नहीं होंगे, उनकी गरमी विकिरण का विस्तार करती रहेगी तथा उसका प्रकोप कायम रहेगा। जापान सरकार या वहां के नीति-निर्माता, इंजीनियर, वैज्ञानिक, तकनीशियनों को यही महसूस होता होगा कि इसमें हमारी तो कोई गलती नहीं। हमने तो सुरक्षा की चाक-चौबंद व्यवस्था की, लेकिन यह सच का केवल एक पहलू है। वास्तव में यह त्रासदी इतना विकराल और भीषण यों ही नहीं बना है। हाल के वर्षो में प्राकृतिक आपदाएं पहले की तुलना में ज्यादा भीषण और विनाशकारी हो रही हैं तथा क्षति को पूरा करने में भारी मानवीय, वित्तीय और तकनीकी साधनों की आवश्यकता पड़ती है। कहा जा रहा है कि वर्तमान क्षति से उबरने में जापान की अर्थव्यवस्था कई दशक पीछे चल जाएगी। अब सामान्य बाढ़ें और तूफान भी प्रलय का दृश्य उत्पन्न करते हैं। समुद्र की लहरें सुनामी और समुद्री तूफान के रूप में ऐसी विनाशलीला मचा रहीं हैं, जिनका वर्णन हम पुरातन ग्रंथों में केवल प्रलय के रूप में ही पढ़ते रहे हैं। अब हमने आम जीवन के लिए ढांचे इतने महंगे और विशालकाय बना लिया है कि मानवीय और आर्थिक क्षति भी काफी ज्यादा होती है। प्रकृति में बिना कारण कुछ नहीं होता। हमारे नीति-निर्माता, वैज्ञानिक, इंजीनियर, बहुराष्ट्रीय कंपनियां यह न भूलें कि जिस औद्योगिक सभ्यता को उन्होंने विकास का वाहक बनाया और उसे बाजार-पूंजीवाद का साथी बना दिया, वही अपने साथ स्वाभाविक प्रतिउत्पाद के तौर पर विनाश का आधार भी पैदा करती जा रही है। विकास के इस ढांचे में अत्यधिक मशीनें, उसे चलाने और रख-रखाव के लिए अत्यधिक ऊर्जा चाहिए और इस सबके लिए अत्यधिक धन भी चाहिए। इस प्रक्रिया में हमने पूरी पृथ्वी ही नहीं, इसके आसपास, नीचे और ऊपर के वायुमंडल, पारिस्थितिकी को इतना अस्त-व्यस्त कर दिया है कि हमारे अस्तित्व तक पर खतरा उत्पन्न हो चुका है। धरती का बढ़ा हुआ तापमान आखिर इस दुनिया के अंत की घंटी ही तो है। भूकंप और सुनामी की बढ़ती विकरालता इसी की परिणति है। वैज्ञानिक इन सबकी तकनीकी व्याख्या करते हैं। सामान्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि प्रकृति अपना संतुलन बनाने की कोशिश करती है और असंतुलन इतना ज्यादा हो चुका है कि उस कोशिश में यत्र-तत्र विनाश का दृश्य पैदा होता है। वस्तुत: हमें इसे प्रकृति के गुस्से के तौर पर लेना चाहिए। अगर हमने इसे नहीं लिया और उसे शांत करने के लिए प्रकृति के अनुरूप व्यवस्था कायम करने की ओर प्रवृत्त नहीं हुए तो फिर ऐसी त्रासदियां ही हमारी नियति रह जाएंगी। जरा इस बात की कल्पना करिए कि समुद्र के 24 किलोमीटर के अंदर आए एक जगह के भूकंप ने इतना कहर मचा दिया तो इससे नीचे और इससे बड़ी मात्रा का भूकंप कई जगह आएं तो क्या होगा! यह घटना एक साथ हमें कई सबक दे रही है, पर सबका मूल स्वर एक ही है कि मनुष्य होने के नाते हमें अपनी सीमाओं का अहसास होना चाहिए। गांधी जी ने कहा है कि मनुष्य को अपने शरीर की कमजोरी का आभास होना चाहिए, लेकिन ऐसा न करके वह प्रकृति को पराजित करने पर लगा है। हमें प्रकृति को पराजित करने की मानसिकता से उबर कर उससे डरने और उसके अनुरूप जीने की व्यवस्था कायम करने की ओर अग्रसर होना होगा। कुल मिलाकर इस घटना का सीधा संदेश यही है कि अपनी भोगलिप्सा का परित्याग कर प्रकृति के साथ चलने वाली जीवन प्रणाली की ओर अग्रसर होने का ही एकमात्र सुरिक्षत विकल्प हमारे सामने है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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