हम लगातार धरती का दोहन करते जा रहे हैं। इस कारण लगातार भूकंप के झटके, ग्लोबल वार्मिंग या जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण और कोई नहीं, हम स्वयं हैं। मशीनीकरण के युग में हम प्रकृति के महत्व को भूलते जा रहे हैं। आज इस संवेदनशील मुद्दे पर व्यावहारिक स्तर पर कोई नहीं सोच रहा है। सही मायनों और अन्य मुद्दों से ज्यादा जरूरी अब हमारे लिए ग्लोबल वार्मिंग और ऋतु परिवर्तन का विषय है। जिस पर चिंता नहीं, बल्कि गंभीर चिंतन का समय है। सरकार द्वारा महज यह कह देने से जिम्मेदारियों से इतिश्री नही हो सकती कि अमुक समस्या की वजह ग्लोबल वार्मिंग या जलवायु परिवर्तन है। पर्यावरण संरक्षण एवं इसकी जागरूकता के लिए सरकार द्वारा काफी योजनाओं का क्रियान्वयन किया जाता है लेकिन इसके अपेक्षाकृत परिणाम नहीं निकलते। पर्यावरण संरक्षण के प्रति जब तक लोग व्यक्तिगत तौर पर जिम्मेदारी नहीं लेंगे, तब हालात नहीं सुधरेंगे। भूकंप जैसे प्राकृतिक आपदा से लोगों को खुद बचना चाहिए और उसके उपाय भी खुद तलाशने चाहिए, सरकार के एक मंत्री की ओर से दिया गया इस तरह का बयान पूरी तरह बचकाना सा लगता है। कुछ समय पहले दिल्ली में आए भूकंप के झटकों के बाद जिम्मेदार मंत्री ने उक्त बयान दिया था जिस पर विपक्ष ने खूब हंगामा किया। ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि बिगड़ते पर्यावरण के कारण उत्पन्न हो रही अनिश्चितता से कैसे निपटा जाए। सिंचाई के लिए गहरे ट्यूबवेल खोदकर भूजल का दोहन किया जा रहा है तो इस बात की क्या गारंटी है कि जलस्तर भयावह स्थिति तक नीचे नहीं पहुंच जाएगा? भारत चूंकि विशाल क्षेत्रफल वाला देश है, जहां पैदावार अच्छी होगी अथवा सूखा पड़ेगा, इसका पूरा दारोमदार गैर भरोसेमंद वष्रा जल पर निर्भर होता है। देश की कृषि योग्य जमीन के 85 प्रतिशत हिस्सा सिंचाई के लिए या तो प्रत्यक्ष रूप से वष्रा जल पर निर्भर करता है या भूजल पर। लेकिन भूजल का स्तर प्रतिवर्ष होने वाली बारिश से ही तय होता है। इस मामले में कहीं न कहीं सरकार की गलत नीतियां जिम्मेदार हैं। राज्य सरकारों ने नदियों पर बांध और नहरें वगैरह बनाकर सतह के पानी का प्रबंधन तो अपने पास रखा है लेकिन आज भी किसान सिंचाई के लिए सबसे ज्यादा भूजल का दोहन करते हैं। किसी की व्यक्तिगत जमीन का भूजल उसी की मिल्कियत माना जाता है। आज भी लगभग तीन चौथाई हिस्से की सिंचाई भूजल से ही की जाती है। एक हालिया सव्रेक्षण के अनुसार देश में लगभग 1.9 करोड़ ट्यूबवेल, कुएं जैसे भूजल के स्रेत हैं। सरकार को अपनी इस नीति पर पुनर्विचार कर सोचना चाहिए कि क्यों उसके प्रबंधन से केवल 35-40 प्रतिशत भूभाग की सिंचाई हो पाती है जबकि ग्राउंड वाटर से शेष प्रतिशत भूभाग की। जब हमने वष्रा जल संचयन के पारंपरिक तरीकों को छोड़कर नई तकनीकें अपना लीं तो उनकी कोई वैकल्पिक व्यवस्था क्यों नहीं की गई? जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के खतरों से निपटने के लिए जब तक कोई वैिक नीति नहीं तैयार की जाती, तब तक इस समस्या से निपटना नामुमकिन होगा। कहने को तो पिछले कई सालों से बड़ी-बड़ी संधियां होती रहीं हैं और वादे किए जाते रहें हैं लेकिन सब बेनतीजा ही रहे हैं। पिछले कुछ सालों में हम इस मामले में इंच भर भी प्रगति नहीं की है और आज भी जहां के तहां खड़े हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह शायद यह है कि ग्रीन हाउस गैसों तथा प्रदूषण नियंतण्रके वादे तो सब करते हैं मगर कोई पैमाना नहीं तय किया जाता कि कौन किस हद तक करेगा? ( डॉ भट्टाचार्य भू-वैज्ञानिक एवं आपदा प्रबंधन संस्थान दिल्ली में विजिटिंग प्रोफेसर हैं)
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Friday, March 4, 2011
पर्यावरण संरक्षण के नाम पर जहां के तहां हम
हम लगातार धरती का दोहन करते जा रहे हैं। इस कारण लगातार भूकंप के झटके, ग्लोबल वार्मिंग या जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण और कोई नहीं, हम स्वयं हैं। मशीनीकरण के युग में हम प्रकृति के महत्व को भूलते जा रहे हैं। आज इस संवेदनशील मुद्दे पर व्यावहारिक स्तर पर कोई नहीं सोच रहा है। सही मायनों और अन्य मुद्दों से ज्यादा जरूरी अब हमारे लिए ग्लोबल वार्मिंग और ऋतु परिवर्तन का विषय है। जिस पर चिंता नहीं, बल्कि गंभीर चिंतन का समय है। सरकार द्वारा महज यह कह देने से जिम्मेदारियों से इतिश्री नही हो सकती कि अमुक समस्या की वजह ग्लोबल वार्मिंग या जलवायु परिवर्तन है। पर्यावरण संरक्षण एवं इसकी जागरूकता के लिए सरकार द्वारा काफी योजनाओं का क्रियान्वयन किया जाता है लेकिन इसके अपेक्षाकृत परिणाम नहीं निकलते। पर्यावरण संरक्षण के प्रति जब तक लोग व्यक्तिगत तौर पर जिम्मेदारी नहीं लेंगे, तब हालात नहीं सुधरेंगे। भूकंप जैसे प्राकृतिक आपदा से लोगों को खुद बचना चाहिए और उसके उपाय भी खुद तलाशने चाहिए, सरकार के एक मंत्री की ओर से दिया गया इस तरह का बयान पूरी तरह बचकाना सा लगता है। कुछ समय पहले दिल्ली में आए भूकंप के झटकों के बाद जिम्मेदार मंत्री ने उक्त बयान दिया था जिस पर विपक्ष ने खूब हंगामा किया। ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि बिगड़ते पर्यावरण के कारण उत्पन्न हो रही अनिश्चितता से कैसे निपटा जाए। सिंचाई के लिए गहरे ट्यूबवेल खोदकर भूजल का दोहन किया जा रहा है तो इस बात की क्या गारंटी है कि जलस्तर भयावह स्थिति तक नीचे नहीं पहुंच जाएगा? भारत चूंकि विशाल क्षेत्रफल वाला देश है, जहां पैदावार अच्छी होगी अथवा सूखा पड़ेगा, इसका पूरा दारोमदार गैर भरोसेमंद वष्रा जल पर निर्भर होता है। देश की कृषि योग्य जमीन के 85 प्रतिशत हिस्सा सिंचाई के लिए या तो प्रत्यक्ष रूप से वष्रा जल पर निर्भर करता है या भूजल पर। लेकिन भूजल का स्तर प्रतिवर्ष होने वाली बारिश से ही तय होता है। इस मामले में कहीं न कहीं सरकार की गलत नीतियां जिम्मेदार हैं। राज्य सरकारों ने नदियों पर बांध और नहरें वगैरह बनाकर सतह के पानी का प्रबंधन तो अपने पास रखा है लेकिन आज भी किसान सिंचाई के लिए सबसे ज्यादा भूजल का दोहन करते हैं। किसी की व्यक्तिगत जमीन का भूजल उसी की मिल्कियत माना जाता है। आज भी लगभग तीन चौथाई हिस्से की सिंचाई भूजल से ही की जाती है। एक हालिया सव्रेक्षण के अनुसार देश में लगभग 1.9 करोड़ ट्यूबवेल, कुएं जैसे भूजल के स्रेत हैं। सरकार को अपनी इस नीति पर पुनर्विचार कर सोचना चाहिए कि क्यों उसके प्रबंधन से केवल 35-40 प्रतिशत भूभाग की सिंचाई हो पाती है जबकि ग्राउंड वाटर से शेष प्रतिशत भूभाग की। जब हमने वष्रा जल संचयन के पारंपरिक तरीकों को छोड़कर नई तकनीकें अपना लीं तो उनकी कोई वैकल्पिक व्यवस्था क्यों नहीं की गई? जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के खतरों से निपटने के लिए जब तक कोई वैिक नीति नहीं तैयार की जाती, तब तक इस समस्या से निपटना नामुमकिन होगा। कहने को तो पिछले कई सालों से बड़ी-बड़ी संधियां होती रहीं हैं और वादे किए जाते रहें हैं लेकिन सब बेनतीजा ही रहे हैं। पिछले कुछ सालों में हम इस मामले में इंच भर भी प्रगति नहीं की है और आज भी जहां के तहां खड़े हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह शायद यह है कि ग्रीन हाउस गैसों तथा प्रदूषण नियंतण्रके वादे तो सब करते हैं मगर कोई पैमाना नहीं तय किया जाता कि कौन किस हद तक करेगा? ( डॉ भट्टाचार्य भू-वैज्ञानिक एवं आपदा प्रबंधन संस्थान दिल्ली में विजिटिंग प्रोफेसर हैं)
विनाश के करीब पहुंच रही है हमारी धरती
अगर वैज्ञानिकों की मानें तो धरती छठी बार विनाश का सामना करने वाली है। उनके मुताबिक पिछले पांच बार के मुकाबले इस बार के प्रलय की तीव्रता बहुत कम होगी। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के अनुसंधानकर्ताओं ने इस बात का मूल्यांकन किया कि स्तनधारी और अन्य प्रजातियां संभावित विलुप्ति के मामले में 54 करोड़ वर्ष पहले की तुलना में आज किस स्थिति में हैं। शोध साइंस पत्रिका नेचर में प्रकाशित हुआ है। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एंटनी बार्नोस्की ने कहा,अगर आप विलुप्त होने के कगार पर पहंुचे स्तनधारियों को ही केवल देखें, तो वे एक हजार वर्षो में विलुप्त हो जाएंगे। यह हमें बताता है कि हम सर्वनाश की ओर बढ़ रहे हैं। उन्होंने कहा, फिलहाल खतरे में पड़ी प्रजातियों की विलुप्त होने की यह दर जारी रही तो छठा सर्वनाश आगामी तीन से 22 शताब्दियों के बीच में हो सकता है। उन्होंने कहा अभी भी देर नहीं हुई है। इन लुप्तप्राय होते स्तनधारियों और अन्य प्रजातियों को बचाया जा सकता है। बार्नोस्की ने कहा फिलहाल सभी प्रजातियां की एक से दो प्रतिशत प्राणी विलुप्त हो चुके हैं। इन आंकड़ों से स्पष्ट है हम प्रलय से ज्यादा दूर नहीं हैं। हमारे पास पृथ्वी को बचाने के लिए पर्याप्त समय है। उन्होंने कहा, प्रजातियों के बचाव के लिए कानूनी विधेयक और संसाधन की बहुत आवश्यकता है। शोध के लिए बार्नोस्की और उनके दल ने जीवाश्म रिकॉर्ड से जनविलुप्ति की दर का पता लगाया। फिर उसकी तुलना वर्तमान दर से की। शुरुआती दौर में उन्होंने स्तनधारी को चुना क्योंकि आजकल इन पर गहन अध्ययन हो रहा है। साथ ही उनका 65 लाख साल पुराना जीवाश्म रिकॉर्ड भी मौजूद है। उनके मुताबिक 50 करोड़ साल में 5570 स्तनधारी में 80 विलुप्त हो गए। उन्होंने पाया कि स्तनधारी के औसत विलुप्त होने की दर हर दस लाख साल में दो रही, यह मौजूदा स्तनधारी की विलुप्त होती दर से काफी कम है। बार्नोस्की ने कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि आधुनिक दौर में विलुप्ती की दर महाविलुप्ति के समान है, वह भी तक जब महाविलुप्ति के लिए काफी ऊंची सीमा तय की गई है। आइयूसीएन (इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजरवेशन ऑफ नेचर) की संकटग्रस्ट प्रजातियों की सूची देखने के बाद, वैज्ञानिक दल ने निष्कर्ष निकाला कि सभी स्तनधारियों को संकटग्रस्त सूची में डाल दें जो अब विलुप्त होने की ओर हैं। चाहे इसमें कुछ सौ साल लगें या हजार साल, धरती पर वास्तविक महाविलुप्ति होनी है|
पॉस्को के बहाने पर्यावरण चेतना
हाल ही में भारतीय सरकार के पर्यावरण व वन मंत्रालय ने उड़ीसा में बहुराष्ट्रीय कंपनी पॉस्को की विशालकाय इस्पात परियोजना को हरी झंडी दिखा दी। हालांकि इस बेहद विवादास्पद परियोजना को स्वीकृति देते हुए मंत्रालय ने 60 शर्ते भी लगा दी हैं, लेकिन अक्सर यह देखा गया कि इतनी बड़ी परियोजना का कार्य एक बार स्वीकृत होने के बाद रुकता नहीं है। अत: इस निर्णय में फिलहाल शर्तो पर कम, स्वीकृति पर अधिक ध्यान केंद्रित हुआ है। पर्यावरण मंत्रालय के इस निर्णय की व्यापक स्तर पर आलोचना हुई है। पॉस्को परियोजना से जुड़ी अनेक तरह की भीषण क्षति के कारण पांच साल से अधिक समय से इसका अहिंसक विरोध स्थानीय गांववासी कर रहे थे। यह अहिंसक संघर्ष अपने आप में एक मिसाल बना था। हाल के समय में गांववासियों की आजीविका और भूमि छीनने वाली परियोजनाओं में वृद्धि के कारण व्यापक जन असंतोष फैला है, नक्सली हिंसा फैलने का भी यह एक मुख्य कारण माना गया है। अत: कई विशेषज्ञों ने बार-बार कहा है कि ऐसे संवेदनशील मामलों में सरकार को अहिंसक संघर्ष की मांगों पर समुचित ध्यान देना चाहिए, लेकिन सरकार ने पॉस्को मामले में लंबे अहिंसक संघर्ष की सिर्फ अवहेलना ही नहीं की है, बल्कि अपने विशेषज्ञों और समितियों की राय को भी दरकिनार किया है। पॉस्को देश की अभी तक की इस्पात की सबसे विशाल परियोजना है, जिसके साथ निर्यात के लिए एक विशेष बंदरगाह भी बनाया जाना है। इस परियोजना के लिए जो बहुत बड़े पैमाने पर खनन होगा, उसका बड़ा हिस्सा निर्यात में होगा। यह लौह अयस्क बहुत कम रॉयल्टी पर मिलेगा और इससे पॉस्को कंपनी को भारी मुनाफा होगा। दक्षिण कोरिया की इस बहुराष्ट्रीय कंपनी में अमेरिकी हितों की भी हिस्सेदारी है। इसके लिए बड़े पैमाने पर पानी दूर-दूर से लाया जाएगा और हजारों लोग विस्थापित होंगे। किसानों के साथ बहुत से मछुआरों की आजीविका भी संकटग्रस्त होगी। समुद्र तटीय व डेल्टा क्षेत्र का संवेदनशील पर्यावरण इस परियोजना से बुरी तरह उजड़ेगा और पहले से संकटग्रस्त तमाम जीव-जंतुओं के लिए खतरे और बढ़ जाएंगे। परियोजना से वन उजडें़गे और वह भी तटीय क्षेत्र के अमूल्य वन। एक बहुराष्ट्रीय कंपनी को अरबों रुपये का मुनाफा देने की खातिर पर्यावरण और आजीविका की बहुत बड़ी कीमत चुकाने के लिए उड़ीसा के कई अधिकारियों ने जबरदस्त पैरवी की है। इनमें से कुछ अधिकारियों का रवैया तो पॉस्को के प्रति इतने समर्थन का रहा है, मानो वे इस कंपनी के ही अधिकारी हों। अरबों रुपये के मुनाफे की खातिर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को यदि करोड़ों रुपये भ्रष्टाचार को भेंट करने हों तो पिछला अनुभव बताता है कि वे इसके लिए सहर्ष तैयार रहती हैं। पर सभी अधिकारी और विशेषज्ञ बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगे नहीं झुके हैं। केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त समितियों ने स्पष्ट बताया है कि इस विवादास्पद प्रोजेक्ट को स्वीकृति देने में वन अधिकार कानून का उल्लंघन हुआ है। इतना ही नहीं, अनेक तरह की अनियमितताओं को देखते हुए प्रोजेक्ट को दी गई स्वीकृति को निरस्त करने की संस्तुति भी कई विशेषज्ञ पहले कर चुके हैं। एक चार सदस्य समिति में से तीन सदस्यों ने स्वीकृति रद्द करने की बात की थी। पॉस्को परियोजना के विरुद्ध संघर्ष चला रही पॉस्को प्रतिरोध संग्राम समिति ने कहा है कि और कुछ नहीं तो सरकार को कम से कम अपनी समितियों और विशेषज्ञों की राय का सम्मान तो करना चाहिए था। समिति ने पॉस्को को सशर्त स्वीकृति देने के पर्यावरण मंत्रालय के निर्णय की कड़ी आलोचना करते हुए कहा है कि यहां के किसानों, मछुआरों और आदिवासियों की आजीविका बचाने का संघर्ष जारी रहेगा। साथ ही समिति ने कहा है कि इस स्वीकृति की प्रक्रिया में जो भ्रष्टाचार हुआ है, उसका पर्दाफाश भी किया जाएगा। इस मुद्दे का एक व्यापक संदर्भ यह है कि जलवायु बदलाव के इस दौर में पूरी दुनिया में ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन कम करने की चर्चा चल रही है। अगर हरे-भरे खेतों और वनों पर आधारित आजीविका को बड़े पैमाने पर उजाड़कर खनन व भारी उद्योग लगेंगे तो जाहिर है कि इस प्रक्रिया में ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन बढ़ेगा। अत: अब खेतों और वनों पर आधारित आजीविका को पर्यावरण की रक्षा से जोड़कर बचाने की जरूरत है, जबकि पॉस्को जैसी परियोजनाएं विपरीत दिशा में ले जाती हैं। जिस तरह ऊंची गुणवत्ता के लौह अयस्क के बड़े पैमाने पर निर्यात की तैयारी चल रही है और उसके लिए एक अलग बंदरगाह भी बनाया जा रहा है, उससे तो आगे चलकर हमारे अपने इस्पात उत्पादन के लिए अच्छी गुणवत्ता के लौह अयस्क की कमी भी आ सकती है। जिस तरह उड़ीसा में पॉस्को विरोधी संघर्ष ने देश भर का ध्यान आकर्षित किया हुआ है और बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों में भी संघर्ष जारी रहा है, उसी तरह जैतपुर परमाणु संयंत्र के विरुद्ध चल रहा जन-संघर्ष भी राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनता जा रहा है। महाराष्ट्र सरकार के एक मंत्री ने पहले तो आंदोलनकारियों को डराने-धमकाने का प्रयास किया, लेकिन जब इसकी परवाह न करते हुए यहां के लोगों ने व्यापक एकता का परिचय दिया तो सरकार को भी अब आंदोलनकारियों की मांगों पर ध्यान देने के लिए मजबूर होना पड़ा है। बड़ी संख्या में यहां के पंचायती राज प्रतिनिधियों ने अपने पद से त्याग-पत्र देने का निर्णय लिया है। जैतपुर परमाणु संयंत्र के आसपास के गांववासियों को शिकायत है कि उनके जीवन को बहुत बुरी से प्रभावित करने वाले फैसले बिना उनसे विचार-विमर्श किए, बिना पंचायतों व ग्राम सभाओं की राय के लिए गए हैं। इससे लोगों के स्वास्थ्य, उनकी आजीविका और क्षेत्र के पूरे पर्यावरण पर प्रतिकूल व दीर्घकालीन असर पड़ने की पूरी आशंका है। दरअसल, जब सरकार परमाणु संयंत्र स्थापित करने जैसे एकतरफा फैसले लेती है तो उम्मीद करती है कि वे इसे स्वीकार कर लेंगे। लेकिन लोगों में अब जागरुकता बढ़ रही है। वे परमाणु संयंत्रों के विभिन्न खतरों से परिचित हैं और राष्ट्रीय स्तर पर परमाणु समझौते पर जो तीखी बहस हुई है, उससे भी परिचित हैं। अत: चाहे महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल या हरियाणा समेत जिन राज्यों में परमाणु संयंत्र लगाने की योजनाएं बन रही हैं, वहां के लोग अपने स्वास्थ्य, पर्यावरण व आजीविका की रक्षा से जुड़े सवाल उठा रहे हैं। यह लोकतंत्र के लिए उचित भी है कि ऐसी व्यापक बहस विकास परियोजनाओं के लिए हो ताकि पूरी पारदर्शिता से लाभ-हानि का सही मूल्यांकन हो सके। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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