हमारे मुल्क में नदियों के अंदर बढ़ते प्रदूषण पर आए दिन र्चचा होती रहती है। प्रदूषण रोकने के लिए गोया बरसों से कई बड़ी परियोजनाएं भी चल रही हैं। लेकिन नतीजे देखें तो वही ‘ढाक के तीन पात’। प्रदूषण से हालात इतने भयावह हो गए हैं कि पेय जल तक का संकट गहरा गया है। राजधानी दिल्ली के 55 फीसद लोगों की जीवनदायिनी, उनकी प्यास बुझाने वाली- यमुना के पानी में जहरीले रसायनों की मात्रा इतनी बढ़ गई है कि उसे साफ कर पीने योग्य बनाना तक दुष्कर हो गया है। बीते एक महीने में दिल्ली में दूसरी बार ऐसे हालात के चलते पेयजल शोधन संयंत्रों को रोक देना पड़ा। चंद्राबल और वजीराबाद के जलशोधन केंद्रों की सभी इकाइयों को महज इसलिए बंद करना पड़ा कि पानी में अमोनिया की मात्रा .002 से बढ़ते-बढ़ते 13 हो गई, जिससे पानी जहरीला हो गया। अब गर्मी आने को है। समय रहते यदि समस्या पार नहीं पा ली गई, तो हालात और भी विकराल हो जाएंगे। यमुना का प्रदूषण आहिस्ता-आहिस्ता अब लोगों की जान पर बन आया है। यमुना के पानी में जहरीले रसायनों की मात्रा ज्यादा होने को लेकर हरियाणा सरकार और दिल्ली जल बोर्ड के बीच तनातनी चल रही है। दिल्ली जल बोर्ड का कहना है कि हरियाणा के उद्योगों द्वारा यमुना नदी में जो कचरा डाला जाता है, उसकी वजह से ही पानी में अमोनिया की मात्रा ज्यादा हुई। जल बोर्ड ने इसकी शिकायत केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड से भी की लेकिन कोई सकारात्मक नतीजा नहीं निकला जबकि खुद केंद्रीय प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड ने कल- कारखानों से निकलने वाले पानी के सम्बंध में कड़े कायदे- कानून बना रखे हैं। इस बात को भी अभी कोई ज्यादा दिन नहीं बीते हैं, जब पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कानपुर में ऐलान किया था कि, ‘‘नदियों में मिलने वाले जहरीले रसायनों की जवाबदेही अंतत: केंद्रीय प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड की होगी। यदि इस मामले में वह नाकाम साबित होता है तो, उसके खिलाफ कड़े कदम उठाए जाएंगे।’’ जयराम रमेश ने उस वक्त इसके बाबत निर्देश भी जारी किए। फिर भी हरियाणा और उत्तर प्रदेश के औद्योगिक इलाकों, पानीपत और बागपत में लगे कारखानों का विषैला पानी बिना रुके यमुना में लगातार गिरता रहा। यों, यमुना के प्रदूषण के लिए अकेला हरियाणा ही जिम्मेदार नहीं है बल्कि इसमें दिल्ली भी बराबर भागीदार है। शीला सरकार ने एक समय राजधानी के इलाकों में चल रहे कल-कारखानों को दिल्ली से बाहर बसाने के लिए बाकायदा एक मुहिम चलाई, जगह-जगह जल, मलशोधक संयंत्र लगाए, लेकिन हालात आज भी ऐसे बने हुए हैं कि, हजारों कारखाने रिहाइशी इलाकों के आसपास बने हैं और तिस पर रख-रखाव में लापरवाही के चलते ज्यादातर शोधन संयंत्र भी काम करना बंद कर चुके हैं। पिछले दिनों हुए राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़े बुनियादी ढांचा सम्बंधी विकास कायरें ने भी यमुना को प्रदूषित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। बीते कुछ सालों में दिल्ली में न सिर्फ वायु प्रदूषण बढ़ा है, बल्कि उसी रफ्तार में जल प्रदूषण भी। उद्योगों-कारखानों से निकलने वाला कचरा यमुना में लगातार गिरता है। औद्योगिक इकाइयां ज्यादा मुनाफे के चक्कर में कचरे के निस्तारण और परिशोधन के जानिब कतई संवेदनशील नहीं हैं। मंजर यह है कि यमुना के 1,376 किलोमीटर लम्बे रास्ते में मिलने वाली कुल गंदगी में से महज 2 फीसद रास्ते, यानी 22 किलोमीटर में मिलने वाली दिल्ली की 79 फीसद गंदगी ही यमुना को जहरीला बनाने के लिए काफी है। गंगा-यमुना को प्रदूषण मुक्त करने के लिए सरकार अब तक 15 अरब रुपये से अधिक खर्च कर चुकी है लेकिन उनकी वर्तमान हालत 20 साल पहले से कहीं बदतर है। गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा दिए जाने के बावजूद इसमें प्रदूषण जरा भी कम नहीं हुआ है। करोड़ों रुपये यमुना की भी सफाई के नाम पर बहा दिए गए, मगर रिहाइशी कॉलोनियों व कल-कारखानों से निकलने वाले गंदे पानी का कोई माकूल इंतजाम नहीं किया गया। जाहिर है, जब तक यह गंदा पानी यमुना में गिरने से नहीं रोका जाता, यमुना सफाई अभियान की सारी मुहिमें फिजूल हैं। ज्यादातर औद्योगिक इकाइयां रसूख वाले लोगों की हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड औद्योगिक-राजनीतिक दबाव के चलते औद्योगिक इकाइयों पर कोई कार्रवाई नहीं करता। कार्रवाई होती भी है तो वे अपने सियासी रसूख की वजह से बच निकलते हैं। इस पूरे मामले में दिल्ली सरकार भले ही हरियाणा सरकार को गुनहगार ठहराकर खुद को पाक-साफ साबित करे लेकिन वह खुद कितनी संजीदा है, यह किसी से छिपा नहीं है। प्रदूषण फैलाने वाली इकाइयों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई कर ही यमुना को बचाया जा सकता है।
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Monday, March 7, 2011
जान पर बना यमुना का प्रदूषण
हमारे मुल्क में नदियों के अंदर बढ़ते प्रदूषण पर आए दिन र्चचा होती रहती है। प्रदूषण रोकने के लिए गोया बरसों से कई बड़ी परियोजनाएं भी चल रही हैं। लेकिन नतीजे देखें तो वही ‘ढाक के तीन पात’। प्रदूषण से हालात इतने भयावह हो गए हैं कि पेय जल तक का संकट गहरा गया है। राजधानी दिल्ली के 55 फीसद लोगों की जीवनदायिनी, उनकी प्यास बुझाने वाली- यमुना के पानी में जहरीले रसायनों की मात्रा इतनी बढ़ गई है कि उसे साफ कर पीने योग्य बनाना तक दुष्कर हो गया है। बीते एक महीने में दिल्ली में दूसरी बार ऐसे हालात के चलते पेयजल शोधन संयंत्रों को रोक देना पड़ा। चंद्राबल और वजीराबाद के जलशोधन केंद्रों की सभी इकाइयों को महज इसलिए बंद करना पड़ा कि पानी में अमोनिया की मात्रा .002 से बढ़ते-बढ़ते 13 हो गई, जिससे पानी जहरीला हो गया। अब गर्मी आने को है। समय रहते यदि समस्या पार नहीं पा ली गई, तो हालात और भी विकराल हो जाएंगे। यमुना का प्रदूषण आहिस्ता-आहिस्ता अब लोगों की जान पर बन आया है। यमुना के पानी में जहरीले रसायनों की मात्रा ज्यादा होने को लेकर हरियाणा सरकार और दिल्ली जल बोर्ड के बीच तनातनी चल रही है। दिल्ली जल बोर्ड का कहना है कि हरियाणा के उद्योगों द्वारा यमुना नदी में जो कचरा डाला जाता है, उसकी वजह से ही पानी में अमोनिया की मात्रा ज्यादा हुई। जल बोर्ड ने इसकी शिकायत केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड से भी की लेकिन कोई सकारात्मक नतीजा नहीं निकला जबकि खुद केंद्रीय प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड ने कल- कारखानों से निकलने वाले पानी के सम्बंध में कड़े कायदे- कानून बना रखे हैं। इस बात को भी अभी कोई ज्यादा दिन नहीं बीते हैं, जब पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कानपुर में ऐलान किया था कि, ‘‘नदियों में मिलने वाले जहरीले रसायनों की जवाबदेही अंतत: केंद्रीय प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड की होगी। यदि इस मामले में वह नाकाम साबित होता है तो, उसके खिलाफ कड़े कदम उठाए जाएंगे।’’ जयराम रमेश ने उस वक्त इसके बाबत निर्देश भी जारी किए। फिर भी हरियाणा और उत्तर प्रदेश के औद्योगिक इलाकों, पानीपत और बागपत में लगे कारखानों का विषैला पानी बिना रुके यमुना में लगातार गिरता रहा। यों, यमुना के प्रदूषण के लिए अकेला हरियाणा ही जिम्मेदार नहीं है बल्कि इसमें दिल्ली भी बराबर भागीदार है। शीला सरकार ने एक समय राजधानी के इलाकों में चल रहे कल-कारखानों को दिल्ली से बाहर बसाने के लिए बाकायदा एक मुहिम चलाई, जगह-जगह जल, मलशोधक संयंत्र लगाए, लेकिन हालात आज भी ऐसे बने हुए हैं कि, हजारों कारखाने रिहाइशी इलाकों के आसपास बने हैं और तिस पर रख-रखाव में लापरवाही के चलते ज्यादातर शोधन संयंत्र भी काम करना बंद कर चुके हैं। पिछले दिनों हुए राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़े बुनियादी ढांचा सम्बंधी विकास कायरें ने भी यमुना को प्रदूषित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। बीते कुछ सालों में दिल्ली में न सिर्फ वायु प्रदूषण बढ़ा है, बल्कि उसी रफ्तार में जल प्रदूषण भी। उद्योगों-कारखानों से निकलने वाला कचरा यमुना में लगातार गिरता है। औद्योगिक इकाइयां ज्यादा मुनाफे के चक्कर में कचरे के निस्तारण और परिशोधन के जानिब कतई संवेदनशील नहीं हैं। मंजर यह है कि यमुना के 1,376 किलोमीटर लम्बे रास्ते में मिलने वाली कुल गंदगी में से महज 2 फीसद रास्ते, यानी 22 किलोमीटर में मिलने वाली दिल्ली की 79 फीसद गंदगी ही यमुना को जहरीला बनाने के लिए काफी है। गंगा-यमुना को प्रदूषण मुक्त करने के लिए सरकार अब तक 15 अरब रुपये से अधिक खर्च कर चुकी है लेकिन उनकी वर्तमान हालत 20 साल पहले से कहीं बदतर है। गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा दिए जाने के बावजूद इसमें प्रदूषण जरा भी कम नहीं हुआ है। करोड़ों रुपये यमुना की भी सफाई के नाम पर बहा दिए गए, मगर रिहाइशी कॉलोनियों व कल-कारखानों से निकलने वाले गंदे पानी का कोई माकूल इंतजाम नहीं किया गया। जाहिर है, जब तक यह गंदा पानी यमुना में गिरने से नहीं रोका जाता, यमुना सफाई अभियान की सारी मुहिमें फिजूल हैं। ज्यादातर औद्योगिक इकाइयां रसूख वाले लोगों की हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड औद्योगिक-राजनीतिक दबाव के चलते औद्योगिक इकाइयों पर कोई कार्रवाई नहीं करता। कार्रवाई होती भी है तो वे अपने सियासी रसूख की वजह से बच निकलते हैं। इस पूरे मामले में दिल्ली सरकार भले ही हरियाणा सरकार को गुनहगार ठहराकर खुद को पाक-साफ साबित करे लेकिन वह खुद कितनी संजीदा है, यह किसी से छिपा नहीं है। प्रदूषण फैलाने वाली इकाइयों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई कर ही यमुना को बचाया जा सकता है।
भविष्य के लिए पानी बचाने का जतन
भूजल संरक्षण के लिए समय रहते चेतना जरूरी है। भूजल का अत्यधिक दोहन रोकने के लिए दिल्ली जल बोर्ड संशोधन अधिनियम 2011 को स्वीकृत प्रदान कर दी गई है। अधिनियम को स्वीकृति मिलने के बाद जल बोर्ड की स्वीकृति बिना भूजल नहीं निकाला जा सकेगा। निरंतर पानी की कमी से जूझते अपने देश में जल नियमन का कोई एकीकृत कानून नहीं है। वैसे जल उपयोग से जुड़े अंतरराज्यीय, अतंरराष्ट्रीय, संवैधानिक प्रावधान देश में कई बने और लागू हुए लेकिन भूजल दोहन और उपयोग संबंधी कोई एक कानून नहीं है। जो भी कानून हैं वह जल निकासी, जल शुल्क, प्रदूषण, वन पर्यावरण, भूमि जल संरक्षण से संबधित हैं। जल प्राप्ति के मूलत: दो स्रेत हैं- भूजल और सतह का जल। अधिकांश जलापूर्ति भूमिगत माध्यम द्वारा होती है। भूजल वह महत्वपूर्ण स्रेत है, जिसे जल का अनंत भंडार समझकर आमजन से लेकर सरकारी मशीनरी तक इसका इस कदर दोहन करती रही है कि आज देश के बड़े हिस्से में भूजल का स्तर लगातार नीचे जाने से न केवल जलसंकट पैदा हो गया है बल्कि पारिस्थितिकी तंत्र भी असंतुलित हो रहा है। देश में चालीस के दशक में प्रति व्यक्ति 5,277 घन मीटर जल उपलब्ध था जो अब घटकर 1869 घनमीटर से भी कम रह गया है। 1992 में सिंचाई आयोग की स्थापना के समय सतह के जल और भूजल में कोई भेद नहीं किया गया। तत्कालीन लक्ष्य था अधिक से अधिक सिंचित क्षेत्र का विस्तार। गौरतलब है कि पूरे देश के भूजल का अस्सी प्रतिशत उपयोग कृषि हेतु होता है और सब्सिडी पर मिलने वाली सस्ती बिजली के चलते कृषक उसका अंधाधुंध-दोहन कर ऐसे संकट को आमंत्रित कर रहे हैं, जिससे कालांतर में उबरना मुश्किल होगा। भूजल चूंकि सार्वजनिक संपत्ति घोषित नहीं है इसलिए निजी क्षेत्र में भी हजारों नलकूप और कुएं खोदे जा रहे हैं। पिछले 25 वर्षो में तीन चौथाई तालाब व दो तिहाई नाले खत्म हुए हैं और बरसाती नदियों की गहराई घटी है। फलत: भूगर्भ जल की रिचार्जिंग की संभावना घटी है। वन क्षेत्र सिकुड़ रहे हैं जिससे वर्षा जल के रिसाव में कमी आई है। विश्व बैंक की हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में जलस्तर निरंतर घट रहा है। 2020 में इसके 360 क्यूबिक किमी व 2050 में 100 क्यूबिक किमी रह जाने का अनुमान है। पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में पिछले छह वर्षो में 190 क्यूबिक किमी भूजल कम हुआ है। चूंकि जल राज्य का विषय है, इसलिए राज्यों को भूजल प्रबधंन पर ठोस कारवाई करने के लिए कदम उठाने चाहिए लेकिन इस दिशा में, कोई ठोस नीतियां नहीं बनी हैं। उल्टे केन्द्र की पहल पर 1970 और 1992 में वन मॉडल भूजल (नियमन एवं नियंत्रण) कानून पर राज्यों का यथोचित सहयोग नहीं मिला। केन्द्रीय भूजल प्राधिकरण के तहत भूजल बचाने हेतु दिए गए सुझावों पर भी राज्यों ने उचित प्रकार से अमल नहीं किया। ‘न्यू सांइटिस्ट’ पत्रिका के सव्रेके मुताबिक भारत के अधिकतकर भागों में एक करोड़ नब्बे लाख कुओं का जल स्तर घटता जा रहा है। भूजल वास्तव में वर्ष जल है जो भूमि में समाहित हो जाता है। चूंकि वार्षिक वर्षा में कमी आ रही है इसीलिए भूजल की भरपाई सीमित स्तर तक ही हो सकती है। वर्षाजल का देश में समुचित उपयोग और संरक्षण नहीं हो पाता। वर्षा और हिमपात से वर्षभर पानी की कुल उपलब्धता लगभग 40 करोड़ हेक्टेयर मीटर हो जाती है। इसमें से लगभग साढ़े 11 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी नदियों में बह जाता है। सात करोड़ हेक्टेयर मीटर जल वाष्प बन उड़ जाता है और लगभग 12 करोड़ हेक्टेयर मीटर को धरती सोख लेती है। ऐसे में दो ही रास्ते हैं- पहला वर्षा जल का ‘रुफ टॉप वाटर हाव्रेस्टिंग’
के माध्यम से जल संरक्षण करना और दूसरा जल स्रेतों के दोहन, पुनर्भरण और उपयोग के लिए कानूनी प्रावधान। कानून में जल दोहन और जल उपयोग के तौर-तरीके भी नियमबद्ध होने चाहिए।
Friday, March 4, 2011
पर्यावरण संरक्षण के नाम पर जहां के तहां हम
हम लगातार धरती का दोहन करते जा रहे हैं। इस कारण लगातार भूकंप के झटके, ग्लोबल वार्मिंग या जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण और कोई नहीं, हम स्वयं हैं। मशीनीकरण के युग में हम प्रकृति के महत्व को भूलते जा रहे हैं। आज इस संवेदनशील मुद्दे पर व्यावहारिक स्तर पर कोई नहीं सोच रहा है। सही मायनों और अन्य मुद्दों से ज्यादा जरूरी अब हमारे लिए ग्लोबल वार्मिंग और ऋतु परिवर्तन का विषय है। जिस पर चिंता नहीं, बल्कि गंभीर चिंतन का समय है। सरकार द्वारा महज यह कह देने से जिम्मेदारियों से इतिश्री नही हो सकती कि अमुक समस्या की वजह ग्लोबल वार्मिंग या जलवायु परिवर्तन है। पर्यावरण संरक्षण एवं इसकी जागरूकता के लिए सरकार द्वारा काफी योजनाओं का क्रियान्वयन किया जाता है लेकिन इसके अपेक्षाकृत परिणाम नहीं निकलते। पर्यावरण संरक्षण के प्रति जब तक लोग व्यक्तिगत तौर पर जिम्मेदारी नहीं लेंगे, तब हालात नहीं सुधरेंगे। भूकंप जैसे प्राकृतिक आपदा से लोगों को खुद बचना चाहिए और उसके उपाय भी खुद तलाशने चाहिए, सरकार के एक मंत्री की ओर से दिया गया इस तरह का बयान पूरी तरह बचकाना सा लगता है। कुछ समय पहले दिल्ली में आए भूकंप के झटकों के बाद जिम्मेदार मंत्री ने उक्त बयान दिया था जिस पर विपक्ष ने खूब हंगामा किया। ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि बिगड़ते पर्यावरण के कारण उत्पन्न हो रही अनिश्चितता से कैसे निपटा जाए। सिंचाई के लिए गहरे ट्यूबवेल खोदकर भूजल का दोहन किया जा रहा है तो इस बात की क्या गारंटी है कि जलस्तर भयावह स्थिति तक नीचे नहीं पहुंच जाएगा? भारत चूंकि विशाल क्षेत्रफल वाला देश है, जहां पैदावार अच्छी होगी अथवा सूखा पड़ेगा, इसका पूरा दारोमदार गैर भरोसेमंद वष्रा जल पर निर्भर होता है। देश की कृषि योग्य जमीन के 85 प्रतिशत हिस्सा सिंचाई के लिए या तो प्रत्यक्ष रूप से वष्रा जल पर निर्भर करता है या भूजल पर। लेकिन भूजल का स्तर प्रतिवर्ष होने वाली बारिश से ही तय होता है। इस मामले में कहीं न कहीं सरकार की गलत नीतियां जिम्मेदार हैं। राज्य सरकारों ने नदियों पर बांध और नहरें वगैरह बनाकर सतह के पानी का प्रबंधन तो अपने पास रखा है लेकिन आज भी किसान सिंचाई के लिए सबसे ज्यादा भूजल का दोहन करते हैं। किसी की व्यक्तिगत जमीन का भूजल उसी की मिल्कियत माना जाता है। आज भी लगभग तीन चौथाई हिस्से की सिंचाई भूजल से ही की जाती है। एक हालिया सव्रेक्षण के अनुसार देश में लगभग 1.9 करोड़ ट्यूबवेल, कुएं जैसे भूजल के स्रेत हैं। सरकार को अपनी इस नीति पर पुनर्विचार कर सोचना चाहिए कि क्यों उसके प्रबंधन से केवल 35-40 प्रतिशत भूभाग की सिंचाई हो पाती है जबकि ग्राउंड वाटर से शेष प्रतिशत भूभाग की। जब हमने वष्रा जल संचयन के पारंपरिक तरीकों को छोड़कर नई तकनीकें अपना लीं तो उनकी कोई वैकल्पिक व्यवस्था क्यों नहीं की गई? जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के खतरों से निपटने के लिए जब तक कोई वैिक नीति नहीं तैयार की जाती, तब तक इस समस्या से निपटना नामुमकिन होगा। कहने को तो पिछले कई सालों से बड़ी-बड़ी संधियां होती रहीं हैं और वादे किए जाते रहें हैं लेकिन सब बेनतीजा ही रहे हैं। पिछले कुछ सालों में हम इस मामले में इंच भर भी प्रगति नहीं की है और आज भी जहां के तहां खड़े हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह शायद यह है कि ग्रीन हाउस गैसों तथा प्रदूषण नियंतण्रके वादे तो सब करते हैं मगर कोई पैमाना नहीं तय किया जाता कि कौन किस हद तक करेगा? ( डॉ भट्टाचार्य भू-वैज्ञानिक एवं आपदा प्रबंधन संस्थान दिल्ली में विजिटिंग प्रोफेसर हैं)
Sunday, February 20, 2011
पोस्को को मिली हरी झंडी के खतरे
वन एवं पर्यावरण मंत्रालय का रिकॉर्ड बताता है कि पर्यावरणीय स्वीकृतियां देने के मामले में वह ज्यादा ही उदार रहा है। इस प्रक्रिया में पर्यावरणीय प्रभाव आकलन की तैयारी, जन- सुनवाई और मंत्रालय की विशेषज्ञ समिति द्वारा समीक्षा शामिल है। अधिकांश आकलन अधूरे, अशुद्ध या दोषपूर्ण होते हैं। ख्यात पर्यावरणविद माधव गाडगिल इसकी पुष्टि करते हैं कि अधिकांश प्रोजेक्ट प्रमोटर के दबाव में जल्दबाजी में स्वीकृत होते हैं
लवासा शहर के मामले में आलोचना किए जाने पर कृषिमंत्री शरद पवार पर्यावरण संरक्षकों पर बरस पड़े कि ये ‘निहित स्वार्थी’ लोग इस अग्रगामी परियोजना के रास्ते में रोड़े अटका रहे हैं परंतु लवासा के साथ भयंकर अवैधानिकताएं और पर्यावरणीय विनाश जुड़ा है। प्रमोटरों ने धन-कुबेर समुदाय के लिए इसका निर्माण करने से पहले अनुमति तक नहीं ली जो एक हजार मीटर से ऊंचे स्थानों पर निर्माण करने से पहले लेना अनिवार्य है। विकास के नाम पर अछूते वष्रा वनों को बर्बाद और पहाड़ों को चपटा कर दिया गया। नदियों की धाराओं को मोड़ दिया गया और उस आदिवासी जमीन पर कब्जा कर लिया गया, कानून के अनुसार जिसका हस्तांतरण नहीं किया जा सकता था। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय का रिकॉर्ड प्रदर्शित करता है कि पर्यावरणीय स्वीकृतियां देने के मामले में यह ज्यादा ही उदार रहा है। इस प्रक्रिया में पर्यावरणीय प्रभाव आकलन की तैयारी, जन-सुनवाई और मंत्रालय की विशेषज्ञ समिति द्वारा समीक्षा शामिल है। अधिकांश आकलन अधूरे, अशुद्ध या दोषपूर्ण होते हैं। यह बात मैं 1990 के दशक में मंत्रालय की नदी घाटी परियोजना की विशेषज्ञ समिति के सदस्य होने के नाते अपने अनुभव से जानता हूं। ख्यात पर्यावरणविद माधव गाडगिल इसकी पुष्टि करते हैं कि आकलन ‘लगभग निरपवादरूप से दोषपूर्ण’ होते हैं और अधिकांश प्रमोटर के दबाब में जल्दबाजी में स्वीकृत होते हैं। पिछले 18 महीनों में केवल चार क्षेत्रों में ही प्रति कार्यदिवस लगभग चार प्रस्ताव स्वीकृत हुए हैं। अगस्त 2009 और जुलाई 2010 के बीच 769 प्रस्ताव पेश किए गए थे जिनमें से केवल दो अस्वीकृत हुए। हां दामन पाक-साफ रखने के लिए कुछ ‘शत्रे’ जरूर लगा दी जाती हैं परंतु वन एवं पर्यावरण मंत्रालय इनके अनुपालन पर नजर नहीं रख पाता है। पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश स्वीकार करते हैं कि पिछले दशक के दौरान, हमने लगभग सात हजार प्रोजेक्टों को स्वीकृति दी है। हरेक के साथ शत्रे और सुरक्षात्मक उपाय जुड़े थे लेकिन दुर्भाग्यवश हमारे पास अनुपालन पर नजर रखने की व्यवस्था नहीं है। अनेक शत्रे अस्पष्ट हैं और इनका संबंध परियोजना के बुनियादी दोषों से है ही नहीं। उदाहरण के लिए न्यूक्लियर पावर कारपोरेशन से जैतापुर न्यूक्लियर स्टेशन के आसपास की जैव विविधता के अध्ययन का आदेश देने से खतरे में पड़ी प्रजातियों या जैव विविधता को विनाश से नहीं बचाया जा सकता। शतरे से न्यूक्लियर पावर से जुड़ी बुनियादी समस्याएं भी हल नहीं होतीं, जिनमें विकिरण के जोखिम या खतरनाक कूड़ा-कचरे का सुरक्षापूर्वक निस्तारण भी नहीं किया जा सकता है। जयराम रमेश यह व्यवस्था सुधारने में असफल रहे हैं। शुरू- शुरू में उन्होंने कुछ पारदर्शिता जरूर अपनाई थी लेकिन पिछले एक साल से वह परियोजनाओं को हरी झंडी दिखाने में लगे हैं। जैसे नवी मुंबई हवाई अड्डा, उड़ीसा के ‘नो गो’ क्षेत्रों में खनन, गुजरात के गिरनार वन विहार में रोप वे, आंध्र में पोलावरम बांध और उत्तराखंड में स्वर्णरेखा परियोजना। और इन सबके ऊपर आता है पोस्को का विराटकाय इस्पात कारखाना जिसका अपना बिजलीघर और उड़ीसा में नया बंदरगाह होगा। यह परियोजना मुख्य क्षेत्र में करीब 22,000 लोगों को विस्थापित और अन्य ढाई हजार को प्रभावित करेगी। 3,096 एकड़ वन भूमि लेकर यह एक फलती-फूलती खेती की अर्थव्यवस्था बर्बाद करेगी। यह महानदी डेल्टा का पानी पी ओलिव रिडले कछुओं और डॉल्फिन के प्रजनन स्थल में घुस जाएगी। इससे समुद्री तूफानों का खतरा बढ़ जाएगा। 2.8 लाख पेड़ काटे जाएंगे। इससे पहले से ही पानी के दबाव वाले इस क्षेत्र में पानी की गुणवत्ता और उपलब्धता कम हो जाएगी। जनता के स्वास्थ्य पर इसका प्रतिकूल असर पड़ेगा। अपनी समिति की सिफारिशें एक ओर करते हुए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने पोस्को को तीन मामलों में- पर्यावरण, वन और तटीय नियमन क्षेत्र- अनुमति पत्र दिए हैं। ऐसा कर वह अपने ही पिछले आदेशों के विरुद्ध गया है। दिसम्बर 2009 में जारी अनुमति-पत्र को उसने उचित ही निरस्त कर दिया था। अनुसूचित जनजातियों तथा वनों के अन्य परंपरागत निवासी (वन अधिकार पहचान) अधिनियम 2006 के अनुपालन की जांच पड़ताल करने तथा पोस्को से संबंधित विशेष मामलों पर पूर्व प्रशासनिक अधिकारी एनसी सक्सेना और मीना गुप्ता के अधीन दो कमेटियों का गठन किया गया था। उनकी रिपोटरे का अध्ययन वन मंत्रालय की वैधानिक वन सलाहकार समिति ने किया। तीनों की सिफारिश थी कि परियोजना को पर्यावरणीय अनुमति पत्र न दिया जाए। पर वन व पर्यावरण मंत्रालय ने इसे रद्द कर दिया। वन अनुमति-पत्र के मामले में तो मंत्रालय का दोष घृणास्पद हद तक था। वन अधिकार अधिनियम भारत के सबसे अच्छे कानूनों में एक है। यह वन भूमि का स्वामित्व आदिवादियों और उन्हें प्रदान करता है जो वहां 75 सालों से रह रहे हैं। यह अधिनियम वन भूमि को दूसरे कामों में लगाए जाने के विरुद्ध ग्रामसभा को वीटो का अधिकार देता है। सक्सेना और गुप्ता कमेटियों ने अंतिम रूप से कहा था कि प्रोजेक्ट एरिया में वन अधिकार अधिनियम पर अमल नहीं किया गया है और उड़ीसा सरकार ने ग्राम सभाओं से इस आशय के प्रमाण पत्र नहीं लिए हैं कि वे वन भूमि को अन्य उपयोग में लिए जाने से सहमत हैं। इस मामले में मंत्रालय ने 60 में से एक शर्त का चालाकी से इस्तेमाल किया कि उड़ीसा सरकार को यह स्पष्ट आासन देना चाहिए कि उस क्षेत्र में ऐसे कोई लोग नहीं बसते हैं जो वन अधिकार अधिनियम के अंतर्गत पात्र हैं। हालांकि थोड़े आदिवासियों सहित वहां 4,000 परिवार रहते हैं लेकिन राज्य सरकार पात्रता का निर्धारण नहीं कर सकती है। इसके लिए वन अधिकार अधिनियम गांव, तहसील, जिला स्तर पर तीन सोपानिक प्रक्रिया की मांग करता है। इसमें राज्य सरकार की कोई भूमिका नहीं है। उड़ीसा सरकार निष्पक्ष नहीं है। पोस्को प्रोजेक्ट के लिए उसने आम समर्थन जुटाने की कोशिश की है। वास्तव में वन व पर्यावरण के नियमों का उल्लंघन करते हुए इसने इसके लिए पिछली जुलाई से ही जमीन लेना शुरू कर दिया था जिसे रोकना पड़ा था। इसी आधार पर गुप्ता कमेटी ने राज्य सरकार के कदम को आपराधिक कहा और वन अनुमति-पत्र न देने की सिफारिश भी की थी। इस मामले में तटीय नियामक क्षेत्र संबंधी अनुमति-पत्र भी उतना ही हास्यास्पद है। प्रोजेक्ट के बड़े हिस्से नियामक क्षेत्र तीन के अंतर्गत आते हैं, जहां औद्योगिक गतिविधियों पर प्रतिबंध है। नए बंदरगाह के निर्माण से तटीय पारिस्थितिकी का विनाश होगा और पाराद्वीप बंदरगाह पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। इस चक्रवात प्रवृत्त क्षेत्र में इस प्रकार के नुकसान के गंभीर परिणाम होंगे। इस मामले में भी वन व पर्यावरण मंत्रालय ने गुप्ता कमेटी की सिफारिश को रद्दी की टोकरी में डाल दिया। प्रोजेक्ट फलती-फूलती कृषि अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में है। पान के पत्ते की खेती से लोग एक एकड़ के सौवें हिस्से से 40,000 तक कमा सकते हैं। प्रोजेक्ट से प्रत्यक्ष रूप से केवल 7,000 रोजगार पैदा होंगे जिनमें ज्यादातर स्थानीय लोगों को नहीं मिलेंगे क्योंकि उनके पास तकनीकी कौशल नहीं है। प्रोजेक्ट की चपेट में आने वाले इलाके के लोग इस बात को समझते हैं और पिछले पांच सालों से पोस्को के खिलाफ मजबूती के साथ शांतिपूर्ण संघर्ष चला रहे हैं। इसको कुचलने के लिए सरकार ने जिन निर्मम उपायों का इस्तेमाल किया है, उनमें पोस्को प्रतिरोध संघर्ष समिति के कार्यकर्ताओं के खिलाफ झूठे आरोप लगाना, नवम्बर 2010 में उन पर हमला करवाना, मई 2010 में गोली चलवाना, जिसमें 200 से अधिक लोग घायल हुए थे, और संघर्ष समिति के नेता अभय साहू के खिलाफ 44 मामले लगाए जाना शामिल है। पोस्को को इजाजत इसलिए दी गई है कि भारत में यह प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का सबसे बड़ा प्रोजेक्ट है और इसके लिए दक्षिण कोरिया सरकार ने जी-तोड़ समर्थन जुटाया है। ऐसी चीजें कानून के राज की इज्जत करने वाले जनतंत्र में नहीं होतीं। ये ऐसे देशों में होती है जो जीविकाओं और पर्यावरण को बचाने के स्थान पर अधिक महत्व ‘निवेशक के भरोसे’ और ‘बाजार की भावना’ को देते हैं।
Sunday, January 30, 2011
डूबते द्वीप से सबक लेने का समय
आस्ट्रेलिया के समीप पापुआ न्यूगिनी का एक द्वीप कार्टरेट्स इतिहास बनने जा रहा है समुद्र में हमेशा के लिए डूबकर। पर्यावरणीय हृास का पहला शिकार। इस द्वीप की पूरी आबादी विश्व में ऐसा पहला समुदाय बन गयी है, जिसे वैश्विक तापन की वजह से विस्थापित होना पड़ा रहा है। समुद्र की उफनती लहरों ने यहां के बाशिंदों की फसलें बर्बाद कर दी हैं और स्वच्छ जल के स्रेतों को जहरीला बना दिया है। कार्टरेट्स द्वीप के निवासी इस तरह की विभीषिका के पहले शिकार हैं। यहां से 2000 की मानव जनसंख्या को तो सुरक्षित निकाल लिया गया है पर द्वीप के बाकी जीवों और वनस्पतियों की प्रजातियों की जल समाधि तय मानी जा रही है। ऑस्ट्रेलिया के नेशनल टाइड फैसिलिटी सेंटर के अनुसार इन द्वीपों के आसपास समुद्र के जलस्तर में प्रतिवर्ष 82 मिलीमीटर की वृद्धि हो रही है। अरब सागर में आबाद 12 सौ लघुद्वीपों वाला मालदीव भी इस शताब्दी के अंत तक समुद्र के गर्भ में समाने की ओर अग्रसर है। पिछली एक शताब्दी में पृथ्वी और समुद्र की सतह के तापमान में औसतन आधा डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो चुकी है। औद्योगीकरण और तीव्र विकास के नये-नये मॉडलों को अपनाने की अंधी दौड़ में प्रकृति को विनाश के गर्त में ढकेलने के बाद अब आभास हो रहा है कि अगर औद्योगिकीकरण और विकास की इस गति को न रोका गया तो शीघ्र ही पृथ्वी मानव सहित सभी प्राणियों और वनस्पतियों के लिए अयोग्य हो जाएगी। पर्यावरणीय हृास की यह समस्या मुख्यत: उपभोक्तावादी विकास के औद्योगीकरण वाले मॉडल की वजह से है। प्रारम्भ में इसे मानव के सामाजिक-आर्थिक अधिकारों की पूर्ति के स्रेत के रूप में देखा गया। शुरुआती दौर में ऐसा होता दिखा भी। लोग अनुबंध के लिए स्वतंत्र हुए, आम आदमी जिन वस्तुओं को पाने की कल्पना भी नहीं कर सकता था औद्योगीकरण ने उसे वह पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध कराया। उत्पादन के साथ पूंजी-प्रसार ने लोगों की आय और खरीदारी की क्षमता में वृद्धि की। किन्तु यह प्रक्रिया अनेक विषमताओं से भरी रही और इसने समाज में अमीर-गरीब के बीच की खाई अधिक चौड़ी कर दी। औद्योगीकरण के कारण धरती के संसाधनों विशेषकर जीवाश्म ईंधन (यथा-कोयला व पेट्रोलियम पदाथोर्ं) का उपयोग काफी बढ़ गया है। एक अनुमान के मुताबिक प्रतिवर्ष लगभग चार अरब टन जीवाश्म ईंधन जलाये जा रहे हैं, जिससे लगभग 0.4 प्रतिशत कार्बनडाईआक्साइड की वृद्धि हो रही है। आज से लगभग सौ वर्ष पूर्व वायुमंडल में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा 275 पीपीएम (पार्ट्स पर मिलियन) थी जो 350 पीपीएम के स्तर पर पहुंच चुकी है। 2035 तक इसके 450 पीपीएम तक पहुंच जाने का अनुमान है। औद्योगीकरण से पूर्व मीथेन की मात्रा 715 पीपीबी (पार्ट्स पर बिलियन) थी जो 2005 में बढ़कर 1734 पीपीबी हो गयी। मीथेन की मात्रा में वृद्धि के लिए कृषि व जीवाश्म ईंधन उत्तरदायी माना गया है। उपयरुक्त वषों में नाइट्रस आक्साइड की सांद्रता क्रमश: 270 पीपीबी से बढ़कर 319 पीपीबी हो गई है। बढ़ते सांदण्रसे पिछले सौ वषों में वायुमंडल के ताप में 0.6 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि दर्ज की गयी है जिससे समुद्र के जल स्तर में कई इंच वृद्धि हो चुकी है। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के मार्कन्यु के नेतृत्व में वैज्ञानिकों के एक अंतरराष्ट्रीय दल ने नवम्बर 2010 में जारी अध्ययन रिपोर्ट में 2060 तक दुनिया के तापमान में चार डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि का अनुमान किया है। पृथ्वी के तापमान में वर्तमान से मात्र 3.6 सेल्सियस तक की वृद्धि से ही ध्रुवों की बर्फ पिघलने लगेगी जिससे समुद्र के जलस्तर में एक से बारह फीट तक बढ़ोतरी हो सकती है। इसके फलस्वरूप तटीय नगर यथा मुम्बई, न्यूयार्क, पेरिस, लंदन, रियो डि जनेरियो एवं मालद्वीव, हालैंड व बांग्लादेश के अधिकांश भूखंड समुद्र में समा जाएंगे। कुल मिलाकर पर्यावरणीय हृास से न सिर्फ मानव बल्कि पृथ्वी पर बसने वाले अन्य जीव-जन्तुओं व वनस्पतियों का भी अधिकार छिनता दिख रहा है। विकास के इस मॉडल से पर्यावरण की अपूर्णनीय क्षति हो रही है। विज्ञान और तकनीक की प्रगति और औद्योगिक क्रांति जो एक समय मानवाधिकारों की उपलब्धि कराने वाले सबसे बड़े स्रेत या माध्यम माने गऐ थे, छलावा साबित हो रहे हैं। सवाल यह भी उठ रहा है कि इस विकास और समृद्धि से जिन मानवाधिकारों की र्चचा की जा रही है वे किनके मानवाधिकार हैं। भावी पीढ़ी को हम क्या सौंपने जा रहे हैं- ग्लेशियरों के पिघलने से जलमग्न धरती या ग्रीन हाउस गैसों से शुक्र ग्रह की भांति तप्त और जीवन के लिए हर तरह से अनुपयुक्त पृथ्वी नामक ग्रह। शायद इसीलिए सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रोफेसर स्टीफन हॉकिंग यह चेताने पर मजबूर हो गए कि ‘अगर आने वाले 200 वषों के भीतर हम अंतरिक्ष में किसी और जगह अपना ठिकाना नहीं बना लेते तो मानव प्रजाति हमेशा के लिए लुप्त हो जाएगी।’
अंतत: सारा विमर्श इस पर केंद्रित होता है कि इस समस्या का समाधान कैसे हो? इसके लिए सोच, संस्कृति, जीवनशैली, विकास-योजनाएं सबमें एक साथ बदलाव की जरूरत है। कोई भी विकास इन सब आयामों में बदलाव लाए बिना टिकाऊ नहीं हो सकता। दुनिया भर की सरकारों और जनता को मिलकर प्रयास करना होगा। समय आ गया है सीख लेने और सचेत होने का।
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