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Saturday, January 8, 2011

वनों के लिए सबसे बड़ा खतरा विकास

पारिस्थितिकों संवेदनशील क्षेत्रों में परियोजनाओं को हरी झंडी देने को लेकर अपने ही मंत्रिमंडल सहयोगियों की आलोचना से केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश अविचलित हैं। उनके मुताबिक देश के वनों के लिए इस समय सबसे बड़ा खतरा विकासात्मक खतरा है।
फिक्की की ओर से आयोजित सेमिनार में पर्यावरण मंत्री ने कहा, ‘हमारे वन केवल अतिक्रमण के खतरे का सामना नहीं कर रहे। आज वनों के लिए जो सबसे बड़ा खतरा है, उसे मैं विकास संबंधी खतरा कहूंगा।इस संबंध में तादोबा अंधेरी टाइगर रिजर्व का उदाहरण दिया, जहां विभिन्न प्रोजेक्ट को मंजूरी देने से उन्होंने इनकार कर दिया था। रमेश ने कहा कि ऐसे ही कारणों से उनका नाम यूपीए सरकार के सहयोगी मंत्रियों के साथ विवादों में आता है। नोबल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर एलिनोर ओस्ट्रॉम की मौजूदगी में पर्यावरण मंत्री ने कहा कि पर्यावरण संबंधी ये मुद्दे ऐसे समय उठ रहे हैं जब भारत उच्च विकास दर की ओर बढ़ रहा है। यह ऐसा वक्त है जब हमें विकास की राह पर भी खुद को बरकरार रखना है, लेकिन इसका पर्यावरण के साथ तालमेल भी बनाना है।
रमेश ने कहा कि देश के सात करोड़ हेक्टेयर वन क्षेत्र में से करीब 40 फीसदी वन खुले क्षेत्र में है। एक अनुमान के मुताबिक, देश का करीब 21 फीसदी भौगोलिक क्षेत्र वनों से घिरा हुआ है। देश के वन क्षेत्र को घने वन, मध्यम तौर के वन और खुले वन, तीन वर्गों में बांटते हुए उन्होंने कहा कि जब आप वन में खड़े होकर ऊपर की ओर देखते हैं और यदि आपको सूरज दिखाई दिखाई नहीं दे तो यह घने वन हैं। यदि सूरज आधा-अधूरा सा दिखाई तो यह मध्यम रूप के वन है और यदि आपको केवल और कुछ नहीं केवल सूरज ही दिखाई दे तो यह खुले क्षेत्र के विकृत हो चुके वन हैं। यही वास्तविकता है। देश के 40 फीसदी वन क्षेत्र में आप खड़े होकर सूरज को देख सकते हैं। इसलिए हमें वन क्षेत्र की मात्रा के बजाय इसके गुणवत्ता पर ध्यान देने की दरकार है। 

वनक्षेत्र बढ़ाने के लिए खेतों में लगेंगे पौधे

राजमार्गो का निर्माण और कृषि भूमि की अधिकता हरियाणा में राष्ट्रीय वन क्षेत्र के घटने की प्रमुख वजह है। पर्यावरण संरक्षण के प्रति आम लोगों की उदासीनता और सरकारी प्रयासों की कमी को भी वन क्षेत्र में बढ़ोतरी न हो पाने का बड़ा कारण माना जा रहा है। अब जब पानी सिर से गुजरने लगा तो राज्य सरकार पर्यावरण संरक्षण के प्रति गंभीर दिखाई देने लगी है। इस कड़ी में जहां पर्यावरण संरक्षण के प्रति आम लोगों की जिम्मेदारी तय की जाएगी, वहीं राष्ट्रीय राजमार्गो के दोनों तरफ किसानों की खेती योग्य जमीनों में आमदनी वाले पौधे रोपित करना प्रस्तावित है। गौरतलब है कि राज्य का कृषि क्षेत्र 80 और वन क्षेत्र कुल भौगोलिक क्षेत्र का सिर्फ 6.80 फीसदी है। अगस्त 2010 में वन क्षेत्र को बढ़ाकर 10 प्रतिशत करने का लक्ष्य तय किया गया था, लेकिन इसे हासिल करने में वन विभाग के पसीने छूटे हुए हैं। वन विभाग पिछले साल राज्य में पांच करोड़ पौधे लगाने का लक्ष्य लेकर आगे बढ़ा। दो करोड़ 65 लाख पौधे निशुल्क बांटे गए। 60 लाख पौधे किसानों की जमीन पर लगाने का मसौदा तैयार हुआ, लेकिन किसानों की नानुकूर, अधिकारियों की लापरवाही और आम लोगों की उदासीनता ने सब कुछ चौपट कर दिया। राज्य में गठित 5 हजार इको क्लब, 1700 ग्राम वन समितियों और 1607 स्वयं सहायता समूहों ने भी पर्यावरण संरक्षण के प्रति अपनी जिम्मेदारी का ठीक ढंग से निर्वाह नहीं किया। सूबे में राष्ट्रीय राजमार्ग के दोनों तरफ पौधारोपण पर 8 करोड़ रुपये खर्च करने की योजना है। वाहनों से फैलने वाले प्रदूषण को रोकने और राजमार्गो के विस्तार की वजह से कटे पेड़ों की कमी को पूरा करने के लिए यह योजना चलाई गई। इसके तहत वन विभाग आय वाले पौधे लगाकर तीन वर्ष तक देखभाल के बाद उन्हें किसानों को सौंप देगा। दिक्कत यह है कि किसान इसके लिए सहयोग देने को मानसिक तौर पर तैयार नहीं दिखते हैं। उन्हें अपनी जमीनों पर कब्जे का डर है। राज्य में 26 औद्योगिक उद्यान हैं। इनमें कई की हालत बेहद खराब है। पिछले साल योजना बनी थी कि इन औद्योगिक उद्यानों में पैदा होने वाली औषधियों की बिक्री के लिए निजी कंपनियों से बात की जाएगी, लेकिन इस पर कोई प्रगति नजर नहीं आई। अब इस योजना को आगे बढ़ाना इस साल की बड़ी चुनौती है। औद्योगिक प्रदूषण की अगर बात करें तो फरीदाबाद देश का आठवां सबसे अधिक प्रदूषित जिला है। पानीपत और सोनीपत की दशा भी अच्छी नहीं है। फैक्टरियों और अस्पतालों का कचरा खुले में छोड़ा जा रहा है। हरियाणा प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारियों ने इस प्रदूषण को रोकने की दिशा में कोई गंभीर प्रयास नहीं किए हैं। पर्यावरण मंत्री कैप्टन अजय यादव का कहना है कि पर्यावरण संरक्षण के प्रति आम लोगों को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी, तभी वन क्षेत्र को चरणबद्ध ढंग से 20 प्रतिशत तक ले जाया जा सकेगा। पौधारोपण के बाद उसकी देखभाल बेहद जरूरी है। बड़, पीपल व नीम के पौधे लगाने की प्रेरणा देते हुए कैप्टन ने कहा कि इस वर्ष स्कूल व कालेजों में युवाओं के बीच मजबूती के साथ जागरूकता अभियान चलाया जाएगा। उन्होंने किसानों को भी प्रेरित करने की जरूरत पर जोर दिया है।

गंगा किनारे बसे शहरों में अकूत जल भंडार

पानी की किल्लत से जूझ रहे गंगा किनारे बसे शहरों के लिए अच्छी खबर है। वैज्ञानिकों का दावा है कि गंगा के दोनों ओर गहराई में अथाह भूगर्भ जल भंडार मौजूद है। यह दावा हरिद्वार से बलिया तक किए गए अध्ययन के आधार पर किया गया है। यह निष्कर्ष इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे भूजल के ऐसे भंडारों से भविष्य की पेयजल मांग को आसानी से पूरा किया जा सकेगा। इतना ही नहीं शहरों के लिए पेयजल नियोजन की भावी दिशा भी तय करने में मदद मिलेगी। अध्ययन के अनुसार इन भूजल Fोतों को गंगा बेसिन के गर्भ में दबी भूगर्भीय जल धाराओं (एक्यूफर्स) के रूप में जाना जाता है। भूवैज्ञानिक बीबी त्रिवेदी, बीसी जोशी, अरुण कुमार व अबरार हुसैन की टीम ने यह अध्ययन किया है। भूवैज्ञानिक त्रिवेदी बताते हैं कि वर्षा के दौरान गंगा व सहायक नदियों के बाढ़ क्षेत्र में बड़े पैमाने पर इन एक्यूफर्स की प्राकृतिक रीचार्जिग होती रहती है। उन्होंने बताया कि भविष्य में पेयजल की चुनौतियां बढ़ेंगी। इस गहरी जल स्त्रोत को पेयजल का ठोस विकल्प माना जा सकता है। इससे गंगा किनारे बसे 30 जिलों में पानी की किल्लत दूर की जा सकेगी। एक ओर गंगा का बहाव सामान्य दिनों में काफी कम रह गया है वहीं, शहरों में ऊपरी भूजल स्ट्रेटा के बेलगाम दोहन से जल स्तर नीचे चला गया है। रिपोर्ट में ट्रांस गंगा (गंगा नदी का बायां हिस्सा) के गाजियाबाद (गजरौला) से बलिया (राजापुर इकौना) तथा सिस गंगा (गंगा नदी का दायां हिस्सा) क्षेत्र के मेरठ (हस्तिनापुर) से मिर्जापुर (चंदिका) तक स्थानों पर भूगर्भीय स्ट्रेटा का विस्तृत आकलन किया गया है।