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Friday, April 8, 2011

पुनर्विचार जरुरी


कोयला खनन पर नरम पड़े जयराम रमेश


 गो और नो-गो के मुद्दे पर वन व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश थोड़े और ढीले पड़े हैं। देश के लगभग तीन चौथाई कोयला ब्लॉकों से कोयला निकालने के रास्ते में वन व पर्यावरण मंत्रालय अब अड़ंगा नहीं डालेगा। वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता वाले मंत्रियों के समूह (जीओएम) की गुरुवार को हुई दूसरी बैठक में यह सहमति बनी। माना जा रहा है कि इस फैसले से देश में कोयला उत्पादन बढ़ेगा। खास तौर पर झारखंड, ओडीशा के कई ब्लाकों में फिर से कोयला निकालने का काम शुरू हो सकेगा। प्रधानमंत्री ने कोयला खनन में गो व नो-गो की परिभाषा की वजह से आई दिक्कतों को दूर करने के लिए इस जीओएम का गठन किया है। आज इसकी दूसरी बैठक थी। समूह के एक वरिष्ठ सदस्य ने आज की बैठक में कोयला उत्पादन में कमी की वजह से आर्थिक विकास दर पर पड़ने वाले असर की बात कही। इसके बाद ही कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने यह प्रस्ताव किया कि ऐसे कोयला ब्लॉक जिनसे वन व पर्यावरण को बड़ा खतरा नहीं है, उनमें कोयला निकालने की मंजूरी दी जानी चाहिए। इस प्रस्ताव का स्टील मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा और बिजली मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने जोरदार समर्थन किया। वन व पर्यावरण मंत्री को इस प्रस्ताव पर सहमति दिखानी पड़ी। सूत्रों के मुताबिक इस फैसले का व्यापक असर होगा। गो और नो-गो की वजह से लगभग 203 कोयला ब्लॉक प्रतिबंधित हैं। इनमें से 70-72 फीसदी को लेकर बहुत ज्यादा समस्या नहीं है। अब यहां फिर से कोयला निकाला जा सकेगा। वन व पर्यावरण मंत्रालय क्रमवार तरीके से इन परियोजनाओं को मंजूरी देगा। इन ब्लॉकों के प्रतिबंधित होने से वर्ष 2010-11 में कोयला उत्पादन में भी कमी आई थी। सरकार ने पहले वर्ष 2011-12 में 71.3 करोड़ टन कोयला उत्पादन का अनुमान लगाया था। मगर गो और नो-गो के चक्कर में इसके घट कर 63 करोड़ टन रह जाने के आसार बन गये थे। सूत्रों के मुताबिक अगर जीओएम में बनी सहमति को शीघ्रता से लागू किया जाता है तो कोयला उत्पादन सात करोड़ टन और बढ़ सकता है। दो हफ्ते बाद जीओएम की एक और बैठक होगी। उसके बाद ही अंतिम प्रस्ताव तैयार किया जाएगा|

ढूंढ़ना होगा पॉलीथीन का विकल्प


दिल्ली में प्लास्टिक की थैलियों और पॉलीथिन के उपयोग पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया है। यह प्रतिबंध पॉलीथिन के उत्पादन, बिक्री, भंडारण और इस्तेमाल पर लगाया गया है। इससे पूर्व जनवरी 2009 को जारी अधिसूचना बिक्री, भंडारण और इस्तेमाल तक ही सीमित थी। इस बार दिल्ली सरकार ने नियम को और सख्त करते हुए पॉलीथिन के उपयोग करने वालों के खिलाफ 10, 000 रुपये से लेकर एक लाख रुपये तक का जुर्माना लगाने का प्रावधान भी किया है। इसके अतिरिक्त पांच वर्ष सजा का भी प्रावधान है। देखा जाए तो पर्यावरण प्रदूषण की दृष्टि से एक बड़ी समस्या बन चुकी प्लास्टिक की थैलियों के इस्तेमाल पर पाबंदी को लेकर ज्यादातर राज्य सरकारों का रुख टालमटोल का ही रहा है। विशेषकर दिल्ली में इनसे निजात दिलाने के दावे तो बहुत किए जाते रहे हैं, लेकिन यह सब अब तक चलन में है। इसीलिए प्रतिबंध का ताजा कदम भी बहुत उम्मीद नहीं जगा पाता। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि पॉलीथिन का इस्तेमाल पर्यावरण और लोगों की सेहत को किस हद तक प्रभावित करता है। विशेषकर शहरों या महानगरों के नदी-नालों के लगातार प्रदूषित होते जाने और व्यापक जल-जमाव के लिए जिम्मेदार इन थैलियों के कारण कई बार सामान्य दिनचर्या तक बाधित हो जाती है। एक अध्ययन के मुताबिक भारत में हर रोज करीब छह हजार टन प्लास्टिक कचरा निकलता है जिसमें साठ फीसदी हिस्से को दुबारा गलाकर घटिया गुणवत्ता वाली दूसरी वस्तुएं बनाई जाती हैं। बाकी का कचरा यूं ही छोड़ दिया जाता है। चूंकि देश में वैज्ञानिक तरीके से रिसाइक्लिंग सुविधाओं की भारी कमी है इसलिए अधिकतर प्लास्टिक की थैलियां या तो कचराघर में पहुंच जाती है या नदी-नालों में । जिस कारण पानी के बहाव व सहज यातायात में बड़ी कठिनाई की समस्या पैदा हो जाती है। कई बार तो इनसे सीवर सिस्टम तक बंद हो जाते हैं। 2005 में आई मुंबई की बाढ़ में अचानक हुई वर्षा से अधिक भूमिका पॉलीथिन के कारण जाम हुए पानी के निकासी तंत्र की थी। मानसून के दौरान सड़कों पर बाढ़ जैसी स्थिति पैदा होने का मुख्य कारण पॉलीथिन ही है। जहरीले रसायनों की उपस्थिति और गलनशील नहीं होने की वजह से ये थैलियां भूमि प्रदूषण को बढ़ाने के साथ-साथ प्राकृतिक गैसों से प्रतिक्रिया कर श्वांसऔर त्वचा संबंधी तमाम बीमारियों का कारण बनती हैं। इनसे होने वाले नुकसान की गंभीरता को देखते हुए कई देशों में इनके इस्तेमाल पर पाबंदी लगाई जा चुकी है। दक्षिण अफ्रीका में प्लास्टिक की थैलियों को प्राय: राष्ट्रीय फूल कहा जाता है, क्योंकि एक बार ये पूरे देश में छा गई थीं। हालांकि वहां अब टैक्स चुकाकर ही इनका इस्तेमाल किया जा सकता है। इसीलिए अब खरीदारी करने में फिर से इस्तेमाल किए जा सकने लायक कपड़े के थैले ज्यादा लोकप्रिय हो रहे हैं। ऑस्ट्रेलिया में पॉलीथिन के इस्तेमाल को रोकने के लिए 2003 में एक कानून पारित किया गया। इस कारण वहां 2005 तक इनके इस्तेमाल में पचास फीसदी की कमी आ चुकी थी। कीप ऑस्ट्रेलिया ब्यूटीफुल अभियान के कारण बांग्लादेश में बने हुए जूट के थैलों को प्लास्टिक बैग रिडक्शन अवॉर्ड दिया गया। इससे बांग्लादेश में जूट बैग बनाने का व्यवसाय तेजी से फला-फूला। आगे चलकर बांग्लादेश ने भी पॉलीथिन पर पूरी तरह रोक लगा दी। इसी तरह यूरोप के देशों में आयरलैंड ने पॉलीथिन पर टैक्स लगा दिया जिससे इनके प्रचलन में 95 फीसदी तक की कमी देखी गई। चीन ने 2008 में मुफ्त में मिलने वाली प्लास्टिक की थैलियों को प्रतिबंधित कर उनकी बिक्री को अनिवार्य बना दिया। इससे मांग में दो तिहाई की कमी आई। कुछ और देशों ने इस प्रकार के उपायों के जरिये पॉलीथिन के प्रचलन को नियंत्रित किया है। अपने देश में हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड ने इन थैलियों से मुक्ति दिलाने में उल्लेखनीय सफलता पाई है। इसी प्रकार के ठोस प्रयास अन्य राज्यों में भी करने की जरूरत है। पॉलीथिन के निर्माण में काफी मात्रा में पेट्रोलियम पदार्थो की जरूरत होती है। यदि इन पर रोक लगा दी जाए तो इससे काफी मात्रा में तेल की बचत होगी जिसे दूसरे कामों में प्रयोग में लाया जा सकता है और तेल आयात पर निर्भरता भी कम होगी। प्लास्टिक की थैलियों का विकल्प जूट कपड़े और कागज से बने कैरी बैग हो सकते हैं और इनके उपयोग से छोटे उद्योगों को प्रोत्साहन मिलेगा जिससे बड़े पैमाने पर व्याप्त बेरोजगारी और गरीबी को दूर करने में सहायता मिलेगी। पॉलीथिन के निर्माताओं और इससे जुड़े व्यापारियों का मुख्य तर्क यह होता है कि इन थैलियों के मुकाबले दूसरा सस्ता व आरामदायक विकल्प मौजूद नहीं है, इसलिए इनका प्रचलन जारी रहना चाहिए। कुछ हद तक यह बात ठीक भी है, लेकिन किसी वस्तु की लोकप्रियता या इस्तेमाल में आसानी के आधार पर उससे लोगों की सेहत पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। दरअसल थैलियों की सहज उपलब्धता पर्यावरण अनुकूल विकल्प के अनुसंधान व विकास को हतोत्साहित करती है। यदि पॉलीथिन के उत्पादन, वितरण व उपयोग पर प्रतिबंध का सख्ती से पालन किया जाए तो वैकल्पिक साधनों की खोज में तेजी आएगी। फिर हमें यह भी सोचना होगा कि थैलियों के बड़े पैमाने पर प्रचलन से भी पहले जीवन था। उस समय अधिकतर खरीदार कपड़े के जूट या कागज के थैले लेकर घर से निकलते थे। अचानक पुरानी पद्धति में खरीदारी की परंपरा बदलने में कठिनाइयां तो आएंगी ही, लेकिन मनुष्य पशु-पक्षी व पर्यावरण के हित में इतना त्याग तो किया ही जा सकता है। पर्यावरण की सुरक्षा के लिए भी यह जरूरी है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

बाघों का बढ़ता कुनबा


बाघों की गणना पर  लेखक के विचार
हाल ही में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा जारी रिपोर्ट में बताया गया है कि अब देश में बाघों की संख्या 1411 से बढ़कर 1706 हो गई है। कुल 295 बाघों की बढ़ोतरी दर्ज की गई है जो लगभग 12 फीसदी है। वर्ष 2006 में हुई गणना के समय बाघों की संख्या 1411 थी। पिछली बार सुंदरबन में बाघों की गिनती नहीं हो पाई थी, लेकिन इस बार वहां भी बाघों की गणना की गई है। मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश में बाघों की संख्या कम हुई है। बाघों की संख्या बढ़ने के बावजूद यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि तमाम कोशिशों के बावजूद भी बाघों का शिकार नहीं रुक पा रहा। पिछले दिनों बाघों पर हुए एक अंतरराष्ट्रीय शोध में यह बात सामने आई कि बाघों के 42 Fोत स्थानों मे से 18 स्थान भारत में हैं। ये सभी स्थान बाघों के लिए आखिरी उम्मीद हैं। सुप्रीम कोर्ट ने पशुओं के अंगों का व्यापार करने वाले एक व्यापारी की याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा था कि तुम बाघों और तेदुओं की खाल बेच रहे हो इस तरह से तो देश में बाघों और तेदुओं का सफाया हो जाएगा एक दिन ऐसा आएगा कि जब मनुष्य की खाल का व्यापार भी किया जाएगा और तुम मनुष्य की खाल तक बेचने लगोगे। सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी से स्पष्ट है कि देश में अभी भी बडे पैमाने पर बाघों का व्यापार हो रहा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि दुनिया के कुछ बचे-खुचे बाघों के आवास का दायरा भी सिमटता जा रहा है जो अब सिर्फ एक लाख वर्ग किमी है। शोध में शामिल जॉन राबिनसन का कहना है कि एक प्रजाति के रूप में बाघ अंतिम सांसें गिन रहा है। बाघों की स्थिति अत्यंत चिन्ताजनक है, लेकिन इसका संरक्षण करने वाले जानते हैं कि इन्हें बचाने के लिए क्या किया जाना है। पूरे विश्व समुदाय के साथ मिलकर बाघों को विलुप्त होने से बचाया जा सकता है। शोध में शामिल इंडोनेशिया की डेबी मार्टियर का कहना है कि अगर दुनिया का यही दृष्टिकोण रहा तो बहुत ही खराब स्थिति का सामना करना पड़ सकता है। शोध के अनुसार भारत के 18 स्थानों के अलावा इंडोनेशिया में आठ, रूस में छह और कुछ अन्य एशिया में हैं। देश के विभिन्न संरक्षित वन्य क्षेत्रों में शिकार, मानव गतिविधियों और कुछ अन्य कारणों से बाघों पर संकट मंडरा रहा लेकिन बाघों की संख्या में बढ़ोतरी का समाचार सुखद है। पिछले दिनों खबर आई कि सरिस्का का जंगल बाघों के लिए सर्वश्रेष्ठ स्थान साबित हो रहा है। इसका कारण यह है कि सरिस्का में बाघों के भोजन के लिए पर्याप्त संख्या में जानवर उपलब्ध हैं। इसके साथ ही यहां मानवीय गतिविधियां भी काफी कम हैं। इन बाघों पर जुलाई 2008 से नजर रखने वाले वैज्ञानिकों के एक दल के अनुसार सरिस्का में बाघ समाप्त होने के बाद यहां रणथंभौर से बाघों को लाया जाना देश का अब तक का सबसे सफल स्थानांतरण है। एक नर और मादा बाघ को रणथंभौर से जून 2008 में लाया गया था। इसके बाद मार्च 2009 में एक और मादा बाघ को यहां लाया गया। वैज्ञानिकों के दल ने पाया कि रेडियो कॉलर लगाकर सरिस्का में छोडे जाने के बाद नर और मादा बाघ दोनों अलग-अलग दिशाओं में गए। दोनों अलग-अलग क्षेत्रों में रहने लगे और सितंबर 2008 तक एक-दूसरे से नहीं मिले। जीपीएस प्रणाली के जरिये पहली मादा बाघ के 463 तथा दूसरी मादा बाघ द्वारा भ्रमण किए गए 229 स्थानों को चिह्नित किया गया। दरअसल बाघ और अन्य जीव-जंतु हमारे पारिस्थितिक तंत्र के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम अपने स्वार्थ के लिए पारिस्थितिक तंत्र की इस महत्वपूर्ण कड़ी को समाप्त करने पर तुले हुए हैं। सरकार इस संबंध में योजनाएं बनाकर भूल जाती है तो आम जनता ऐसे मुद्दों से कोई सरोकार नहीं रखती। हमें यह समझना होगा कि हमारे अस्तित्व के लिए पारिस्थितिक तंत्र का सुरक्षित रहना जरूरी है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)