दिल्ली में प्लास्टिक की थैलियों और पॉलीथिन के उपयोग पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया है। यह प्रतिबंध पॉलीथिन के उत्पादन, बिक्री, भंडारण और इस्तेमाल पर लगाया गया है। इससे पूर्व जनवरी 2009 को जारी अधिसूचना बिक्री, भंडारण और इस्तेमाल तक ही सीमित थी। इस बार दिल्ली सरकार ने नियम को और सख्त करते हुए पॉलीथिन के उपयोग करने वालों के खिलाफ 10, 000 रुपये से लेकर एक लाख रुपये तक का जुर्माना लगाने का प्रावधान भी किया है। इसके अतिरिक्त पांच वर्ष सजा का भी प्रावधान है। देखा जाए तो पर्यावरण प्रदूषण की दृष्टि से एक बड़ी समस्या बन चुकी प्लास्टिक की थैलियों के इस्तेमाल पर पाबंदी को लेकर ज्यादातर राज्य सरकारों का रुख टालमटोल का ही रहा है। विशेषकर दिल्ली में इनसे निजात दिलाने के दावे तो बहुत किए जाते रहे हैं, लेकिन यह सब अब तक चलन में है। इसीलिए प्रतिबंध का ताजा कदम भी बहुत उम्मीद नहीं जगा पाता। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि पॉलीथिन का इस्तेमाल पर्यावरण और लोगों की सेहत को किस हद तक प्रभावित करता है। विशेषकर शहरों या महानगरों के नदी-नालों के लगातार प्रदूषित होते जाने और व्यापक जल-जमाव के लिए जिम्मेदार इन थैलियों के कारण कई बार सामान्य दिनचर्या तक बाधित हो जाती है। एक अध्ययन के मुताबिक भारत में हर रोज करीब छह हजार टन प्लास्टिक कचरा निकलता है जिसमें साठ फीसदी हिस्से को दुबारा गलाकर घटिया गुणवत्ता वाली दूसरी वस्तुएं बनाई जाती हैं। बाकी का कचरा यूं ही छोड़ दिया जाता है। चूंकि देश में वैज्ञानिक तरीके से रिसाइक्लिंग सुविधाओं की भारी कमी है इसलिए अधिकतर प्लास्टिक की थैलियां या तो कचराघर में पहुंच जाती है या नदी-नालों में । जिस कारण पानी के बहाव व सहज यातायात में बड़ी कठिनाई की समस्या पैदा हो जाती है। कई बार तो इनसे सीवर सिस्टम तक बंद हो जाते हैं। 2005 में आई मुंबई की बाढ़ में अचानक हुई वर्षा से अधिक भूमिका पॉलीथिन के कारण जाम हुए पानी के निकासी तंत्र की थी। मानसून के दौरान सड़कों पर बाढ़ जैसी स्थिति पैदा होने का मुख्य कारण पॉलीथिन ही है। जहरीले रसायनों की उपस्थिति और गलनशील नहीं होने की वजह से ये थैलियां भूमि प्रदूषण को बढ़ाने के साथ-साथ प्राकृतिक गैसों से प्रतिक्रिया कर श्वांसऔर त्वचा संबंधी तमाम बीमारियों का कारण बनती हैं। इनसे होने वाले नुकसान की गंभीरता को देखते हुए कई देशों में इनके इस्तेमाल पर पाबंदी लगाई जा चुकी है। दक्षिण अफ्रीका में प्लास्टिक की थैलियों को प्राय: राष्ट्रीय फूल कहा जाता है, क्योंकि एक बार ये पूरे देश में छा गई थीं। हालांकि वहां अब टैक्स चुकाकर ही इनका इस्तेमाल किया जा सकता है। इसीलिए अब खरीदारी करने में फिर से इस्तेमाल किए जा सकने लायक कपड़े के थैले ज्यादा लोकप्रिय हो रहे हैं। ऑस्ट्रेलिया में पॉलीथिन के इस्तेमाल को रोकने के लिए 2003 में एक कानून पारित किया गया। इस कारण वहां 2005 तक इनके इस्तेमाल में पचास फीसदी की कमी आ चुकी थी। कीप ऑस्ट्रेलिया ब्यूटीफुल अभियान के कारण बांग्लादेश में बने हुए जूट के थैलों को प्लास्टिक बैग रिडक्शन अवॉर्ड दिया गया। इससे बांग्लादेश में जूट बैग बनाने का व्यवसाय तेजी से फला-फूला। आगे चलकर बांग्लादेश ने भी पॉलीथिन पर पूरी तरह रोक लगा दी। इसी तरह यूरोप के देशों में आयरलैंड ने पॉलीथिन पर टैक्स लगा दिया जिससे इनके प्रचलन में 95 फीसदी तक की कमी देखी गई। चीन ने 2008 में मुफ्त में मिलने वाली प्लास्टिक की थैलियों को प्रतिबंधित कर उनकी बिक्री को अनिवार्य बना दिया। इससे मांग में दो तिहाई की कमी आई। कुछ और देशों ने इस प्रकार के उपायों के जरिये पॉलीथिन के प्रचलन को नियंत्रित किया है। अपने देश में हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड ने इन थैलियों से मुक्ति दिलाने में उल्लेखनीय सफलता पाई है। इसी प्रकार के ठोस प्रयास अन्य राज्यों में भी करने की जरूरत है। पॉलीथिन के निर्माण में काफी मात्रा में पेट्रोलियम पदार्थो की जरूरत होती है। यदि इन पर रोक लगा दी जाए तो इससे काफी मात्रा में तेल की बचत होगी जिसे दूसरे कामों में प्रयोग में लाया जा सकता है और तेल आयात पर निर्भरता भी कम होगी। प्लास्टिक की थैलियों का विकल्प जूट कपड़े और कागज से बने कैरी बैग हो सकते हैं और इनके उपयोग से छोटे उद्योगों को प्रोत्साहन मिलेगा जिससे बड़े पैमाने पर व्याप्त बेरोजगारी और गरीबी को दूर करने में सहायता मिलेगी। पॉलीथिन के निर्माताओं और इससे जुड़े व्यापारियों का मुख्य तर्क यह होता है कि इन थैलियों के मुकाबले दूसरा सस्ता व आरामदायक विकल्प मौजूद नहीं है, इसलिए इनका प्रचलन जारी रहना चाहिए। कुछ हद तक यह बात ठीक भी है, लेकिन किसी वस्तु की लोकप्रियता या इस्तेमाल में आसानी के आधार पर उससे लोगों की सेहत पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। दरअसल थैलियों की सहज उपलब्धता पर्यावरण अनुकूल विकल्प के अनुसंधान व विकास को हतोत्साहित करती है। यदि पॉलीथिन के उत्पादन, वितरण व उपयोग पर प्रतिबंध का सख्ती से पालन किया जाए तो वैकल्पिक साधनों की खोज में तेजी आएगी। फिर हमें यह भी सोचना होगा कि थैलियों के बड़े पैमाने पर प्रचलन से भी पहले जीवन था। उस समय अधिकतर खरीदार कपड़े के जूट या कागज के थैले लेकर घर से निकलते थे। अचानक पुरानी पद्धति में खरीदारी की परंपरा बदलने में कठिनाइयां तो आएंगी ही, लेकिन मनुष्य पशु-पक्षी व पर्यावरण के हित में इतना त्याग तो किया ही जा सकता है। पर्यावरण की सुरक्षा के लिए भी यह जरूरी है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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