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Wednesday, June 15, 2011

विकास का जरूरी आधार पानी


किसी भी देश के आर्थिक विकास में जीवनदायी जल की महत्ता अंतर्निहित है। हालांकि विकास दर सूचकांक नापे जाते वक्त पानी के महत्व को दरकिनार रखते हुए किसी भी देश की औद्योगिक प्रगति को औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक (आईआईपी) से नापा जाता है। इनकी पराश्रित सहभागिता आर्थिक विकास की वृद्धि दर दर्शाती है। यदि हमें देश की औसत विकास दर 6 प्रतिशत तक बनाए रखनी है तो एक अध्ययन के अनुसार 2031 तक मौजूदा स्तर से चार गुना अधिक पानी की जरूरत होगी, तभी सकल घरेलू उत्पाद बढ़कर 2031 तक चार ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच सकेगा। सवाल उठता है कि बीस साल बाद इतना पानी आएगा कहां से ? क्योंकि लगातार गिरते भू-जल स्तर और सूखते जल स्रेतों के कारण जलाभाव की समस्या अभी से मुहं बाये खड़ी है। अमेरिका के दक्षिण और मध्य क्षेत्र मामलों के सहायक विदेश मंत्री रॉबर्ट ब्लैक ने पिछले दिनों प्रथम तिब्बत पर्यावरण फोरम की बैठक में बोलते हुए कहा कि 2025 तक दुनिया के दो तिहाई देशों में पानी की किल्लत भयावह किल्लत हो जाएगी। लेकिन भारत समेत एशियाई देशों में तो यह समस्या 2020 में ही विकराल रूप में सामने आ जाएगी जो भारतीय अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित करेगी। तिब्बत के पठार पर मौजूद हिमालयी ग्लेशियर समूचे एशिया में 1.5 अरब से अधिक लोगों को मीठा जल मुहैया कराते हैं लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण ब्लैक कार्बन जैसे प्रदूषत तत्वों ने हिमालय के कई ग्लेशियरों पर जमी बर्फ की मात्रा घटा दी है जिसके कारण इनमें से कई इस सदी के अंत तक अपना वजूद खो देंगे। इन ग्लेशियरों से गंगा और ब्रrापुत्र समेत नौ नदियों में जलापूर्ति होती है। यही नदियां भारत, पाकिस्तान, अफगनिस्तान और बांग्लादेश के निवासियों को पीने व सिंचाई हेतु बड़ी मात्रा में जल मुहैया कराती हैं। ब्लैक के इस बयान से जाहिर होता है कि भारत में पानी एक दशक बाद ही अर्थव्यवस्था को चौपट करने का प्रमुख कारण बन सकता है। वैसे पानी भारत ही नहीं पूरी दुनिया में एक समस्या के रूप में उभर चुका है। भूमंडलीकरण और उदारवादी आर्थिक व्यवस्था के दौर में बड़ी चतुराई से विकासशील देशों के पानी पर अधिकार की मुहिम अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों ने पूर्व से ही चलाई हुई है। भारत में भी पानी के व्यापार का खेल यूरोपीय संघ के दबाव में शुरू हो चुका है। पानी को मुद्रामें तब्दील करने की दृष्टि से ही इसे वि व्यापार संगठन के दायरे में लाया गया ताकि पूंजीपति देशों की आर्थिक व्यवस्था विकासशील देशों के पानी का असीमित दोहन कर फलती- फूलती रहे। अमेरिकी वर्चस्व के चलते इराक में मीठे पेयजल की आपूर्ति करने वाली दो नदियों यूपरेट्स और टाइग्रिस पर तुर्की नाजायज अधिकार जमा रहा है। दूसरी तरफ कनाडा इसलिए परेशान है क्योंकि अमेरिका ने एक षडयंत्र के तहत वहां के समृद्ध तालाबों पर नियंतण्रकी मुहिम चलाई हुई है। यह कुचक्र इस बात की सनद है कि पानी को लेकर संघर्ष की पृष्ठभूमि रची जा रही है और इसी पृष्ठभूमि में तीसरे वियुद्ध की नींव अंतर्निहित है। भारत वि स्तर पर जल का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। वह दुनिया के जल का 13 फीसद उपयोग करता है। भारत के बाद चीन 12 फीसद और अमेरिका 9 फसद जल का उपयोग करता है। पानी के उपभोग की बड़ी मात्रा के कारण ही भू-जल स्रेत, नदियां और तालाब संकटग्रस्त हैं। वैज्ञानिक तकनीकों ने भू-जल दोहन को आसान बनाने के साथ खतरे में डालने का काम भी किया। लिहाजा नलकूप क्रांति के शुरुआती दौर 1985 में जहां देश भर के भू-जल भंडारों में मामूली स्तर पर कमी आना शुरू हुई थी, वहीं अंधाधुंध दोहन के चलते ये दो तिहाई से ज्यादा खाली हो गए हैं। नतीजतन 20 साल पहले 15 प्रतिशत भू-जल भंडार समस्याग्रस्त थे और आज ये हालात 70 प्रतिशत तक पहुंच गए हैं। ऐसे ही कारणों के चलते देश में पानी की कमी प्रतिवर्ष 104 बिलियन क्यूबिक मीटर तक पहुंच गई है। जल सूचकांक एक मनुष्य की सामान्य दैनिक जीवनचर्या के लिए प्रति व्यक्ति एक चौथाई रह गया है। यदि किसी देश में जीवनदायी जल की उपलब्धता 1700 क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष कम होती चली जाए तो इसे आसन्न संकट माना जाता है। इसके विपरीत विडंबना यह है कि देश में पेयजल के स्थान पर शराब व अन्य नशीले पेयों की खपत के लिए हमारे देश के ही कई प्रांतों में वातावरण निर्मित किया जा रहा है। शराब की दुकानों के साथ अहाते होना अनिवार्य कर दिए गए हैं ताकि ग्राहक को जगह न तलाशनी न पड़े। मध्यप्रदेश सरकार ने तो अर्थव्यवस्था सुचारू रखने के लिए शराब ठेके के लिए आहाता अनिवार्य शर्त कर दी है। इस तरह देश-दुनिया की अर्थव्यवस्था चलाने में पानी का योगदान 20 हजार प्रति डॉलर प्रति हेक्टेयर की दर से सर्वाधिक है। लेकिन दुनिया लगातार पानी की अन्यायपूर्ण आपूर्ति की ओर बढ़ रही है। एक तरफ देश-दुनिया की समृद्ध आबादी पाश्चात्य शौचालयों, बॉथ टबों और पंचतारा तरणतालों में रोजाना हजारों गैलन पानी बेवजह बहा रही है, वहीं दूसरी तरफ बहुसंख्यक आबादी तमाम जद्दोजहद के बाद 10 गैलन पानी, यानी करीब 38 लीटर पानी भी बमुश्किल जुटा पाती है। पानी के इस अन्यायपूर्ण दोहन के सिलसिले में किसान नेता देवीलाल ने तल्ख टिप्पणी की थी कि नगरों में रहने वाले अमीर शौचालय में एक बार फ्लश चलाकर इतना पानी बहा देते हैं जितना किसी किसान के परिवार को पूरे दिन के लिए नहीं मिल पाता है। इस असमान दोहन के कारण ही भारत, चीन, अमेरिका जैसे देश पानी की समस्या से ग्रस्त हैं। इन देशों में पानी की मात्रा 160 अरब क्यूबिक मीटर प्रतिवर्ष की दर से घट रही है। अनुमान है कि 2031 तक वि की दो तिहाई आबादी यानी साढ़े पांच अरब लोग गंभीर जल संकट से जूझ रहे होंगे। जल वितरण की इस असमानता के चलते ही भारत में हर साल पांच लाख बच्चे पानी की कमी से पैदा होने वाली बीमारियों से मर जाते हैं। करीब 23 करोड़ लोगों की जल के लिए जद्दोजहद उनकी दिनचर्या में तब्दील हो गया है। और 30 करोड़ से ज्यादा आबादी के लिए निस्तार हेतु पर्याप्त जल की सुविधाएं नहीं हैं। बहरहाल भारत में सामाजिक, आर्थिक और स्वास्थ्य के स्तर पर पेयजल सबसे भयावह चुनौती बनने जा रही है। ध्यान रखने की जरूरत है कि प्राकृतिक संसाधनों का बेलगाम दोहन जारी रहा तो भविष्य में भारत की आर्थिक विकास दर की औसत गति क्या होगी? और आम आदमी का औसत स्वास्थ्य किस हाल में होगा? मौजूदा हालात में हम भले आर्थिक विकास दर औद्योगिक और प्रौद्योगिक पैमानों से नापते हों, लेकिन ध्यान देने की जरूरत है कि इस विकास का आधार भी आखिरकार प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित है। जल, जमीन और खनिजों के बिना आधुनिक विकास संभव नहीं है। यह भी तय है कि विज्ञान के आधुनिक प्रयोग प्राकृतिक संपदा को रूपांतरित कर उसे मानव समुदायों के लिए सहज सुलभ तो बना सकते हैं लेकिन प्रकृति के किसी तत्व का स्वतंत्र रूप से निर्माण नहीं कर सकते। इनका निर्माण तो निरंतर परिवर्तनशील जलवायु पर निर्भर है। इसलिए जल के उपयोग के लिए यथाशीघ्र कारगर जल नीति अस्तित्व में नहीं आई तो देश का आर्थिक विकास प्रभावित होना तय है।


Tuesday, June 14, 2011

वन्य जीवन व वनस्पतियों पर संकट


वन्य जीवन के लिए चार प्रमुख खतरे हैं- प्रदूषण, वन्य जीवों के प्राकृतिक वास का नष्ट होना, उनका अंधाधुंध शिकार और प्रजातियों का स्थान परिवर्तन। हवा और पानी की प्रदूषण के मामले में अहम भूमिका है क्योंकि इन्हीं के जरिये जमीन और समुद्र में घातक रसायन (जहर) फैलने में मदद मिलती है। चाहे कारखानों से निकला धुआं हो या विषैला रसायन युक्त कचरा, ये दोनों हवा और पानी में मिलकर जीव-जंतुओं को प्रभावित करते हैं। कुछ जहर ऐसे होते हैं जो वर्षो तक नुकसान पहुंचाते रहते हैं। डीडीटी जैसा कीटनाशक 1972 से अमेरिका में प्रतिबंधित हैं। कारण, इससे वहां के पेरिग्रिन श्रेणी के बाज लगभग खत्म हो गए थे। लेकिन हमारे यहां फसलों पर आज भी डीडीटी का छिड़काव होता है। नतीजन अनेकों पक्षियों और तितलियों की प्रजाति इससे प्रभावित हैं। उनका अस्तित्व खतरे में है। इसका असर यदि एक बार पर्यावरण में हो गया तो यह कई वर्षों तक स्थायी बना रहता है। यह भोजनादि में पहुंचकर तो और भी सांद्रित हो जाता है। इसका इतना ज्यादा असर होता है कि पक्षियों के अंडों की ऊपरी परत पतली हो जाती है और जब वे उन्हें सेतने के लिए उन पर बैठते हैं तो अंडे हल्के से दबाव से टूट जाते हैं। बढ़ती आबादी और विकास की आवश्यकताओं की पूर्ति की खातिर जंगलों के सफाये से जैव विविधता को भंयकर खतरा है। गौरतलब है कि जब-जब कोई भी वनस्पति विलुप्ति के कगार पर पहुंचती है, उस पर भोजन व आश्रय के लिए प्रत्यक्षत: निर्भर रहने वाले जीव-जंतु स्वाभाविक रूप से संकटग्रस्त हो जाते हैं। नतीजन इन पर निर्भर प्रजातियां भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहतीं। क्योंकि इनका सारा जीवनतंत्र एक दूसरे से जुड़ा होता है, इसलिए इनका अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। इसमें दो राय नहीं है कि मानव अपने शौक, सजने-संवरने, घर की सजावट, फैशन, भोजन व दवाई आदि के लिए जीव-जंतुओं का शिकार करता आया है। वन्य जीवों के शिकार पर प्रतिबंध के बावजूद उनकी खाल, हड्डी आदि के लिए उनका शिकार जारी है। बाघ, गैंडा आदि ऐसे वन्य जीव हैं जिनके अंगों से चीन व कोरिया में पौरुषवर्धक दवाइयां बनती हैं। इसके चलते इनके शिकार में बढ़ोतरी हुई है। यही कारण है कि इन समेत भालू, चीता, व्ल्यू ह्वेल और माउन्टेन गोरिल्ला जैसी जीव प्रजातियां संकट में हैं। जीवों पर संकट के रूप में सबसे बड़ी समस्या प्रजातियों के स्थान परिवर्तन की है। कई प्रजातियों को उनके मूल स्थान से दूसरी जगह ले जाया जाता है तो उन्हें वहां भोजन और आवास जैसी समस्याओं से दो चार होना पड़ता है। साथ ही दूरदेश के माहौल में जब नई प्रजातियों का विकास होता है, तो वहां पहले से रहने-बसने वाली पुरानी और बाहर से आयी नयी प्रजातियों के बीच का संतुलन बिगड़ जाता है। कभी-कभी तो इस प्रक्रिया में कई जंतु विलुप्त हो गए और कई संकट में हैं। यही दुर्दशा वनस्पति की भी हुई। जहां तक प्रजातियों के विलोपन या विनाश का सवाल है, तो अधिकांशत: यह पर्यावरणीय परिवर्तन के कारण होता है। यह सतत प्रक्रिया है, घटना है। अधिकतर प्रजातियां बदले पर्यावरण के साथ सामंजस्य न बैठा पाने के कारण खुद मिट जाती हैं। कई बार कुछ जीव या वनस्पतियां बदली परिस्थिति, बदले पर्यावरण में सामंजस्य तो बिठा लेती हैं लेकिन इस दौरान नई प्रजाति में विकसित हो जाती हैं। जीवों और जीवाश्मों के विस्तृत अध्ययन में वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला है कि पृथ्वी पर जीवन की कहानी महाविनाश जिसे हम पल्रय भी कह सकते हैं, के द्वारा अनेक बार खंड-खंड हुई लेकिन इसके कारणों पर आज भी संशय बना है। यह बहस का विषय अवश्य है लेकिन यह सच है कि कभी न कभी किसी छोटे ग्रह का पृथ्वी से टकराव हुआ, तेजी से ज्वालामुखी गतिविधियां घटित हुई, पर्यावरण परिवर्तन हुआ और वातावरण में अस्थिरता पैदा हुई। नतीजन अभी तक न जाने कितनी प्रजातियों का बहुत बड़ा हिस्सा विलुप्त हो गया है। चूंकि यह एक सतत घटना है, प्रक्रिया है, इसलिए यह स्पष्ट है कि बार-बार हुए महाविनाशों में हर बार बड़े पैमाने पर प्रजातियों का विनाश हुआ है। जीवाश्मों के अध्ययन, शोध और इनसे सम्बंधित दस्तावेज इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं। क्रेटेसश काल का महाविनाश जिसमें डायनासोर सहित बहुत बड़ी मात्रा में समुद्री जीवों के नष्ट होने के प्रमाण मिलते हैं, असलियत में किसी छोटे गृह के पृथ्वी से टकराने का परिणाम माना जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार लाखों वर्षो के अंतराल पर एक बार ऐसा महाविनाश होता है जिसका आकाशीय पिंड से सम्बंध होता है। शोध, अध्ययन, आंकड़े व तथ्य खुलासा करते हैं कि प्रजातियों पर इस तरह के संकट को नकारा नहीं जा सकता। हिमयुग से शुरू जीव-जंतुओं के सफाये की यह प्रक्रिया आज भी जारी है। लेकिन वर्तमान में मानवीय हस्तक्षेप द्वारा उनके प्राकृतिक आवास नष्ट किये जाने व दूसरी गतिविधियों ने और भी ज्यादा नकारात्मक भूमिका निभायी है।


Friday, June 10, 2011

इस साल और बढ़ेगा बिजली संकट


ईधन की कमी और पर्यावरण संबंधी अड़चनों के कारण चालू वित्त वर्ष के दौरान देश के बिजली उत्पादन में दस फीसदी की कमी आएगी। वर्ष 2010-11 में बिजली की कमी 8.5 प्रतिशत तक थी। ऐसे में वर्ष 2011-12 बिजली संकट और बढ़ेगा। केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (सीईए) ने कहा कि वर्ष 2011-12 के दौरान देश में बिजली की सामान्य समय में 10.3 फीसदी और व्यस्त समय में 12.9 प्रतिशत तक की कमी रहेगी। इस अनुमान के हिसाब से चालू वित्त वर्ष में बिजली की आपूर्ति मांग की तुलना में 9,636.7 करोड़ यूनिट कम रहेगी। वर्ष 2010-11 में बिजली की मांग 93,374.1 करोड़ यूनिट रहेगी, जबकि आपूर्ति 83,737.4 करोड़ यूनिट पर सिमटने की संभावना है। सीईए ने कहा कि देश के सभी क्षेत्रों को बिजली की कमी से जूझना होगा। पूर्वोत्तर क्षेत्र में बिजली कमी 0.3 प्रतिशत की रहेगी, वहीं पश्चिमी क्षेत्र में इसमें 11 प्रतिशत की कमी रहेगी। सीईए के अधिकारियों का कहना है कि बेहतर आर्थिक वृद्धि दर की वजह से देश में बिजली की मांग बढ़ती जा रही है। कुछ परियोजनाओं में देरी की वजह से बिजली की उपलब्धता कम है। सीईए के अनुसार, बीते वित्त वर्ष के दौरान बिजली की जरूरत में 3.7 प्रतिशत का इजाफा हुआ। इसी तरह व्यस्त समय में बिजली की मांग 6.5 प्रतिशत के अनुमान की तुलना में 2.6 फीसदी बढ़ गई। चालू वित्त वर्ष के लिए बिजली का सकल उत्पादन लक्ष्य 85,500 करोड़ यूनिट का है। हालांकि सरकार को 11वीं पंचवर्षीय योजना की शेष अवधि यानी 10 महीने में 16,000 मेगावाट अतिरिक्त बिजली उत्पादन की उम्मीद है। मौजूदा अनुमान के मुताबिक सरकार मार्च, 2012 तक 52,000 मेगावाट अतिरिक्त बिजली ही जोड़ने में कामयाब हो पाएगी, जो संशोधित 62,000 मेगावाट अतिरिक्त बिजली उत्पादन के लक्ष्य से कम है। बिजली मंत्रालय के एक अधिकारी ने यह जानकारी दी। उन्होंने बताया कि इस अतिरिक्त उत्पादन में 2,000 मेगावाट परमाणु बिजली शामिल है। अधिकारी के मुताबिक बिजली मंत्रालय ने 11वीं योजना अवधि में मई तक कुल बिजली उत्पादन में 36,000 मेगावाट अतिरिक्त बिजली जोड़ी है। उल्लेखनीय है कि सरकार ने 11वीं योजना के दौरान 78,000 मेगावाट अतिरिक्त बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा था, जिसे मध्यावधि समीक्षा में योजना आयोग ने घटाकर 62,000 मेगावाट कर दिया था। हालांकि मंत्रालय ने महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है, लेकिन कोयले की आपूर्ति में बाधा और पर्यावरण मंजूरी में देरी के कारण कई तापीय बिजली परियोजनाएं अटकी पड़ी हैं। कुल बिजली उत्पादन में सर्वाधिक हिस्सेदारी तापीय परियोजनाओं की ही है। मंत्रालय ने 12वीं पंचवर्षीय योजना (वर्ष 2012-17) के दौरान एक लाख मेगावाट बिजली उत्पादन क्षमता जोड़ने का लक्ष्य रखा है।

Wednesday, May 11, 2011

रेत में लोटती हरियाली


सूखी भूमि को हरा-भरा करने का कार्य बहुत सार्थक है। बहुत जरूरी है, सब मानते हैं, फिर भी न जाने क्यों पौधरोपण व वनीकरण के अधिकांश कार्य उम्मीद के अनुकूल परिणाम नहीं दे पाते हैं। खर्च अधिक होने पर भी बहुत कम पेड़ ही बच पाते हैं। इस तरह के अनेक प्रतिकूल समाचारों के बीच यह खबर बहुत उत्साहवर्धक है कि राजस्थान में सूखे की अति प्रतिकूल स्थिति के दौर में भी एक लाख से अधिक पेड़ों को पनपाने का काम बहुत सफलता से किया गया है। उल्लेखनीय बात यही है कि यह सफलता घोर जल संकट के दौर में प्राप्त की गई। इतना ही नहीं, यह कार्य अपेक्षाकृत कम लागत पर किया गया व जो भी खर्च हुए उसका बड़ा हिस्सा गांववासियों को ही मजदूरी के रूप में मिल गया। अजमेर जिले का सिलोरा (किशनगढ़) ब्लाक की तीन पंचायतों टिकावड़ा, नलू व बारा सिंदरी में बबूल, खेजड़ी, शीशम, नीम आदि के एक लाख से अधिक पौधे बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों में गांववासियों ने पनपाए हैं। इसकी शुरुआत वर्ष 1987 के आसपास हुई जब केंद्र सरकार व राष्ट्रीय परती विकास बोर्ड ने विभिन्न संस्थाओं व व्यक्तियों को परती भूमि को हरा-भरा करने के कायरे के लिए आमंत्रित किया। जिले की एक प्रमुख संस्था बेयरफुट कॉलेज ने चार-पांच पंचायतों में यह कार्य आरंभ किया। बाद में कुछ अन्य संस्थाओं ने (विशेषकर नलू पंचायत) भी इसमें अपना योगदान दिया। गांववासियों की पूरी भागेदारी से कार्य करने की नीति को समर्पित इस संस्था ने विभिन्न पंचायतों में चरागाह विकास समितियों की स्थापना की। गांववासियों के सहयोग से कार्यक्रम व नियम बनाए गए। सभी समुदायों को समिति में स्थान दिया गया। महिलाओं की भागीदारी विशेष तौर पर प्राप्त की गई। सबसे बड़ी कठिनाई चूंकि पानी की कमी की थी। अत: यह कार्य प्राय: जल-संग्रहण व संरक्षण प्रयासों से आरम्भ किया गया। मेड़बंदी की गई। चेक डैम व एनीकट बनाए गए। कुएं खोदे गए। पाईप लाइनों से कुंए का पानी दूर-दूर तक पहुंचाया। मटकों में छेद कर उन्हें रोपे गए पौधों की जड़ों के पास रखा गया ताकि बूंद-बूंद पानी मिलता रहे। भुरभरी उपजाऊ मिट्टी लाकर पौधों के लिए खोदे गए गड्ढों में डाला गया। इन प्रयासों के बावजूद सूखे के कुछ वर्ष इतने कठिन थे कि कुछ पौधे सूख गए पर अधिकांश को बचाया जा सका। नलू पंचायत में इस प्रयास से जुड़ी रही वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता रतन बहन कहती हैं, ‘जब हम पौधे रोपते जाते थे तो लगता था जैसे एक-एक पौधा हमसे कह रहा था कि मुझे यहां लगाओ, मुझे पानी दो। उस समय तो बस ये पौधे ही हमारे जीवन का केन्द्र बन गए थे।
वे बताती हैं, ‘कई मुश्किलें आई और कुछ झगड़े भी हुए। दो गांवों की चरागाह सीमा को लेकर ही बड़ा विवाद आरंभ हो गया। पर किसी तरह इन झगड़ों और तनावों को सुलझाकर कार्य आगे बढ़ता रहा। टिकावड़ा पंचायत क्षेत्र की वनीकरण कार्यक्रम समन्वयक कलावती ने बताया, गांववासियों से इस बारे में निरंतर परामर्श चलता रहा कि धीरे-धीरे जो हरियाली लौट रही है, उसे पशुओं के चरने से कैसे बचाया जाए। इस बारे में बहुत मतभेद भी हो जाते थे पर किसी न किसी तरह ऐसा अनुशासन बनाया गया कि हरियाली खतरे में न पड़े।
टिकावड़ा व नलू पंचायत में तो यह प्रयास सफल रहा, पर तिलोनिया गांव में स्थिति बिगड़ गई। यहां पंचायत चुनाव से पहले बड़े संकीर्ण स्वार्थ के शक्तिशाली व्यक्तियों ने इशारा कर दिया कि जो चाहे लकड़ी काट सकता है। वर्षो की मेहनत से पनपाए गए पेड़ों को रातोंरात कई लोगों ने काट लिया। यहां ध्यान देने की बात है कि इस पंचायत में 50 वर्षो से एक ही परिवार का आधिपत्य चल रहा था। पिछले चुनाव में उसे हटाया जा सका पर वन-विनाश का तांडव इससे पहले ही हो चुका था। इससे पता चलता है कि बेहद निष्ठा से प्राप्त की गई सफलता को भी स्वार्थी संकीर्ण तत्वों से बचाना कितना जरूरी है, अन्यथा दस-बीस वर्षो की मेहनत दो- चार दिनों में नष्ट हो सकती है। फिलहाल टिकावड़ा, नलू व बारा सिंदरी पंचायतों में खड़े एक लाख से अधिक पेड़ बता रहे हैं कि बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों में सूखी बंजर धरती को हरा-भरा करने का कार्य सफलता से हो सकता है। यहां गांववासियों को चारा, ईधन, सब्जी की उपलब्धि बढ़ी है। उनके पशुपालन का आधार मजबूत हो गया है क्योंकि अधिक पशुओं के लिए चारा उपलब है। धरती की जल-ग्रहण क्षमता बढ़ गई है। इसके साथ अनेक वन्य जीवों व पक्षियों को जैसे नवजीवन मिल गया है। एक समय बंजर सूखी रही इस धरती पर जब हम घूम रहे थे तो पक्षियों के चहचहाने के बीच हमें नीलगाय के झुंड भी नजर आए। वह हरियाली उनके लिए भी उतना ही वरदान है जितना गांववासियों के लिए।


Monday, May 9, 2011

खतरे में है नर्मदा का उद्गम स्थल


नर्मदा नदी मध्य प्रदेश और गुजरात की जीवन रेखा कहलाती है। इसके उद्गम अमरकंटक के चप्पे-चप्पे प्राकृतिक सौंदर्य, ऐतिहासिकता और समृद्व परम्पराओं की सुगंध देते हैं। अमरकंटक एक तीर्थस्थान व पर्यटन केंद्र ही नहीं, बल्कि प्राकृतिक चमत्कार भी है। हिमाच्छादित न होते हुए भी यह पांच नदियों का उद्गम स्थल है। इनमें से दो सदानीरा, विशाल नदियां हैं जिनका प्रवाह परस्पर विपरीत दिशाओं में है। हाल ही में मध्य प्रदेश प्रदूषण बोर्ड ने नर्मदा की बायोमानिटरिंग करवाई तो पता चला कि केवल दो स्थानों को छोड़कर नर्मदा नदी आज भी स्वच्छ है। जिन दो स्थानों पर नदी की हालत चिंताजनक दिखी, उनमें एक अमरकंटक ही है। चिरकुमारी नर्मदा पश्चिममुखी है और यह 1304 किलोमीटर की यात्रा तय करती है जबकि सोन नदी का बहाव पूर्व दिशा में 784 किमी तक है। इसके अलावा जोहिला, महानदी का भी यहां से उद्गमस्थल है। यहां प्रचुर मात्रा में कीमती खनिजों का मिलना, इस सुरम्य प्राकृतिक सुषमा के लिए दुश्मन साबित हो रहा है। तेजी से कटते जंगलों, कंक्रीट के जंगलों की बढ़ोतरी और खदानों से बाक्साइट के अंधाधुंध उत्खनन के चलते यह पावनभूमि तिल दर तिल विनाश और आत्मघात की ओर अग्रसर है। मध्य प्रदेश के शहडोल जिले में मैकल पर्वत श्रेणी की अमरकंटक पहाड़ी समुद्र की सतह से कोई 3,500 फीट ऊंचाई पर है। यहीं नर्मदा, सोन व अन्य नदियों का उद्गम स्थल है। चाहे स्कंद पुराण हो या फिर कालिदास की काव्य रचना, हरेक में इस पावन भूमि का उल्लेख है। नर्मदा और सोन दोनों ही भूमिगत जल-स्रेतों से उपजी हैं । नर्मदा ‘माई की बगिया’ में पहले पहल दिखकर गुम हो जाती है। फिर यह ‘नर्मदा कुंड’ से बहती दिखती है। अमरकंटक पहाड़ी पर मौजूद कई भूगर्भ जल स्रेत ही नर्मदा नदी के स्रेत हैं। वहां मौजूद शिलालेख और हालात बताते हैं कि 15वीं सदी के आस-पास से नर्मदा का उद्गम-स्थल ‘नर्मदा कुंड’ रहा है। इससे पूर्व पाश्र्व में स्थित ‘सूर्यकुंड’ नर्मदा की जननी रहा होगा। आज सूर्यकुंड की हालत बेहद खराब है। यह स्थान गंदा और उपेक्षित-सा पड़ा है। स्पष्ट है कि महज चार सौ सालों के अंतराल में नर्मदा का उद्गम स्थल खिसक आया है। अमरकंटक के जिन घने अरण्यों का वर्णन प्राचीन साहित्य में मिलता है, उनकी हरियाली अब यहां देखने को नहीं मिलती है। इस विनाश का मुख्य जिम्मेदार यहां की जमीन में पाया जाने वाला एल्यूमीनियम का अयस्क ‘बाक्साइट’ है। स्थानीय पर्यावरण की सबसे बड़ी दुश्मन बाक्साइट खदानों से खनन की शुरुआत 1962 में हिंदुस्तान एल्यूमीनियम कम्पनी (हिंडाल्को) ने की थी। तब सरकार ने इस कम्पनी को 480 हेक्टेयर जमीन पर खुदाई का पट्टा दिया था। फिर केंद्र सरकार के उपक्रम भारत एल्यूमीनियम कम्पनी (बाल्को) ने यहां खनन शुरू कर दिया। इन दोनों कम्पनियों ने खनन अधिनियमों को बलाए-ताक पर रखकर इस तपोभूमि को यहां-वहां खूब उजाड़ा। जंगल काटे गए। डायनामाइट लगाकर गहराई तक जमीन को छेदा गया। प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने में सहायक पहाड़, पेड़ और कई छोटे-बड़े जल-स्रेत इस खनन की चपेट में आ गए हैं। हालांकि सरकार ने 1990 के बाद नई खदानों का पट्टा देने से इनकार कर दिया है लेकिन ‘चिड़िया के खेत चुग लेने के बाद पछताने’ से क्या होता है । अमरकंटक की पहाड़ियों पर बाक्साइट की नई-नई खदानें बनाने के लिए वहां खूब पेड़ काटे गए। इन खदानों में काम करने वाले हजारों मजदूर भी ईधन के लिए इन्हीं जंगलों पर निर्भर रहे। सो पेड़ों की कटाई अनवरत जारी है। पहाड़ों पर पेड़ घटने से बरसात का पानी खनन के कारण एकत्र हुई धूल को तेजी से बहाता है। यह धूल नदियों को उथला बना रही है। मैकल पर्वत श्रृंखला से बेतरतीब ढंग से बाक्साइट खुदाई के कारण बन गई बड़ी-बड़ी खाइयां यहां की बदसूरती व पर्यावरण असंतुलन में इजाफा कर रही हैं। खनिज निकालने के लिए किए जा रहे डायनामाइट विस्फोटों के कारण इस क्षेत्र का भूगर्भ काफी प्रभावित हुआ है। शीघ्र ही यहां जमीन के समतलीकरण और पौधरोपण की व्यापक स्तर पर शुरुआत नहीं की गई तो पुण्य सलिला नर्मदा भी खतरे में आ जाएगी। अमरकंटक के जंगल दुर्लभ वनस्पतियों, जड़ी- बूटियों और वन्य प्राणियों के लिए मशहूर रहे हैं। कुछ साल पहले यहां अद्भुत सफेद भालू मिला था, जो इन दिनों भोपाल चिड़ियाघर में है। खदानों में विस्फोटों के धमाकों से जंगली जानवर भारी संख्या में पलायन कर रहे हैं। ‘गुलाब काबली’ के फूल कभी यहां पटे पड़े थे, अब यह दुर्लभ जड़ी-बूटी बामुश्किल मिलती है। इस फूल का अर्क आंखों की कई बीमारियों का अचूक नुस्खा है। इसके अलावा भी आयुव्रेद का बेशकीमती खजाना यहां खनन ने लूट लिया है। अब पौधरोपण के नाम पर यहां यूक्लिप्टस उगाया जा रहा है, जिसके साये में जड़ी बूटियां तो उग नहीं सकतीं, उल्टे यह जमीन के भीतर का पानी यह जरूर सोख लेता है।


Tuesday, May 3, 2011

गंगा को बचाने की नई मुहिम


आर्थिक मामलों की केबिनेट कमेटी ने हाल में गंगा की सफाई के लिए सात हजार करोड़ की महत्वाकांक्षी परियोजना पर मुहर लगा दी है। तीव्र औद्योगिकरण, शहरीकरण और प्रदूषण से अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही गंगा को बचाने के लिए अब तक की यह सबसे बड़ी परियोजना होगी। गंगा को साफ करने की पिछली परियोजनाओं की कामयाबी और नाकामयाबियों से सबक लेते हुए इस परियोजना को बनाया गया है जिसके तहत पर्यावरणीय नियमों का कड़ाई से पालन करना, नगर निगम के गंदे पानी के नालों, औद्योगिक प्रदूषण, कचरे और नदी के आस-पास के इलाकों का बेहतर और कारगर प्रबंधन शामिल है। परियोजना का मकसद गंगा-संरक्षण के साथ ही नदी घाटी जुड़ाव द्वारा पर्यावरणीय प्रवाह व्यापक बनाए रखना है। गंगा को साफ करने के नाम पर खर्च होने वाली कुल राशि में 5100 करोड़ रुपये जहां केंद्र वहन करेगा, वहीं जिन पांच राज्यों में गंगा प्रवाहित होती है, यानी उाराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल सरकारें शेष 1900 करोड़ रुपये का खर्च उठाएंगी। 5100 करोड़ की जो भारी-भरकम राशि केन्द्र को खर्च करनी है, उसमें से 4600 करोड़ रुपए उसे विश्व बैंक से हासिल होंगे। आठ साल की समय सीमा में पूरी होने वाली इस महत्वाकांक्षी परियोजना में ऐसे कई प्रावधान हैं कि यदि इन पर ईमानदारी से अमल हुआ तो गंगा की तस्वीर बदलते देर न लगेगी। केन्द्रीय प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड, जिसकी जिम्मेदारी नदियों में प्रदूषण रोकना है, को पहले से ज्यादा मजबूत बनाया जाएगा। जो शहर गंगा के किनारे बसे हुए हैं, उनमें निकासी व्यवस्था सुधारी जाएगी। औद्योगिक प्रदूषण दूर करने के लिए विशेष नीति बनाई जाएगी। कहने को केन्द्रीय प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड ने कल- करखानों से निकलने वाले कचरे के लिए कड़े कायदे- कानून बना रखे हैं लेकिन आज भी गंगा में इनका प्रवाह रुक नहीं पा रहा है। अकेले कानपुर में रोजाना 400 चमड़ा शोधक फैक्टरियों का तीन करोड़ लीटर गंदा गंगा में मिलता है, जिसमें बड़े पैमाने पर क्रोमियम और रासायनिक बाय प्रोडक्ट होते हैं। यही हाल बनारस का है, जहां हर दिन तकरीबन 19 करोड़ लीटर गंदा पानी खुली नालियों के जरिए गंगा में मिलता है। गंगा सफाई योजना को 25 साल से ज्यादा हो गये हैं और इसकी सफाई पर अरबों बहाये जा चुके हैं लेकिन रिहाइशी कॉलोनियों और कारखानों के गंदे पानी को इसमें मिलने से रोकना मुमकिन नहीं हो पाया है। औद्योगिक इकाइयां जहां मुनाफे के चक्कर में कचरे के निस्तारण और परिशोधन के प्रति लापरवाह हैं वहीं जिम्मेदार राज्य सरकारें और केन्द्रीय प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड कल-करखानों की मनमानियों के जानिब आंखें मूंदें रहते हैं। न्यायपालिका के कठोर रुख के बाद भी सरकारें दोषियों पर कार्रवाई नहीं करतीं। गंगा को साफ करने के लिए 1986 में शुरू हुई कार्य योजना उसी वक्त परवान चढ़ गई होती, यदि इस पर गंभीरता से अमल होता। पांच सौ करोड़ रुपए की लागत से शुरू हुई इस योजना में बीते 15 सालों के दौरान तकरीबन नौ सौ करोड़ खर्च हो गये हैं लेकिन गंगा और प्रदूषित होती जा रही है। भ्रष्टाचार, प्रशासनिक उदासीनता और धार्मिक कर्मकांड मुल्क की सबसे बड़ी नदी को स्वच्छ बनाने की दिशा में लगातार रुकावट बने हुए हैं। गंगा में जहरीला पानी गिराने वाले कारखानों के खिलाफ कठोर कदम नहीं उठाए जाने का ही नतीजा है कि जीवनदायिनी गंगा का पानी कहीं-कहीं बहुत जहरीला हो गया है। आस- पास के इलाकों का भूजल तक इससे प्रदूषित हो रहा है और लोग असाध्य बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। कहा जाता है कि गंगाजल वर्षो खराब नहीं होता क्योंकि इसमें निहित खास वैक्टीरिया इसे प्राकृतिक रूप से शुद्ध रखते हैं। लेकिन अब गंगाजल के बैक्टीरिया खुद को नहीं बचा पा रहे हैं। जिस बनारस में कभी गंगा का जलस्तर 197 फुट हुआ करता था, वहां कई जगहों पर यह महज 33 फुट के करीब रह गया है। गंगा में गाद आज बड़ी समस्या है। गंगा को बांधों ने भी खूब नुकसान पहुंचाया है। ब्रिटिश काल में 1916 में महामना मदनमोहन मालवीय के नेतृत्व में समझौता हुआ था कि गंगा का प्रवाह कभी नहीं रोका जाएगा। संविधान की धारा 363 की भावना भी कमोबेश यही कहती है लेकिन टिहरी में बांध बना गंगा का प्रवाह रोका गया। यही नहीं, उत्तराखंड की मौजूदा सरकार गंगा पर और भी बांध बनाना चाहती है। मुख्यमंत्री निशंक राज्य की नदियों से 10 हजार मेगावाट बिजली पैदा करना चाहते हैं जबकि, बड़े-बड़े दावों के साथ बनाया गया टिहरी बांध आज भी अपने लक्ष्य से एक चौथाई बिजली नहीं बना पा रहा है। उल्टे टिहरी बांध की वजह से गंगा का प्रवाह गड़बड़ा गया है। बांध के आसपास के सौ से भी ज्यादा गांव आज गंभीर जल संकट से जूझ रहे हैं। वही ग्रामीण अपना घरबार छोड़कर मैदानी क्षेत्र में पलायन कर रहे हैं, जिनके कथित हितों के निमित्त यह बनाया गया था। बहरहाल, गंगा-संरक्षण की तमाम चुनौतियों के बावजूद उम्मीदें बाकी हैं। लेकिन इसके लिए सरकारी कोशिशों के अलावा व्यक्तिगत प्रयास भी जरूरी हैं। गंगा की सफाई के लिए भारी-भरकम रकम खर्च करने से ज्यादा जरूरी है, जन-जागरूकता। गंगा से लेते वक्त भूलते रहे हैं कि जिस दिन उसने देना बंद कर दिया, या वह देने लायक नहीं रहेगी, उस दिन हमारा और हमारी आने भावी पीढ़ी का क्या होगा?


Monday, April 18, 2011

ऊर्जा और पर्यावरण की चुनौती


ऊर्जा का महत्व किसी राष्ट्र के लिए शरीर में रक्त की तरह है जिसके बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। इसी के साथ महत्वपूर्ण यह भी है कि ऊर्जा की आपूर्ति चाहे जिस रूप में हो, पर्यावरण की कीमत पर नहीं हो सकती जिस पर समूचे मानव समुदाय का अस्तित्व तथा सभी हित निर्भर हैं और जिसके लिए राष्ट्र-राज्य होता है। ऊर्जा की बढ़ती जरूरत और पर्यावरण को न्यूनतम स्तर तक संरक्षित रखने की चुनौती के इन्हीं पाटों में संतुलन के उपायों पर देश की ऊर्जा और पर्यावरण नीति को दो-चार होना पड़ रहा है। इसका हल जल्द नहीं खोजा गया तो आर्थिक विकास की गति तो प्रभावित होगी ही, आम जन-जीवन भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा। आज ऊर्जा के लिए विश्व में कोयले के सिवा कोई सुरक्षित विकल्प नजर नहीं आ रहा है। केंद्र ने परमाणु ऊर्जा को विकल्प मानते हुए अमेरिका से समझौता तो किया लेकिन जापान में भूकम्प से फुकुशिमा परमाणु संयंत्र में पैदा त्रासदी के बाद सरकार की चिंता बढ़ गई है। यद्यपि वह परमाणु ऊर्जा के लिए लालसावान पहले से रही है और उसने रूस, फ्रांस, आस्ट्रेलिया जैसे देशों से भी इसके खातिर सहयोग पाने की सम्भावनाओं की तलाश की पर वह इसके खतरों से आशंकित भी रही है। इसी का नतीजा है कि आज उसको संसद के अगले सत्र में कोयला नियामक बिल पेश करने की घोषणा करनी पड़ रही है। सरकार भले कह रही हो कि इसका मकसद कोयला क्षेत्र में होने वाली छोटी-मोटी अनियमितताओं को दूर करना व कोल इंडिया के कार्य संचालन को दुरुस्त करना है किंतु असल बात पर्यावरण है जिसे संरक्षित करने का पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने बीड़ा उठा रखा है। इसके तहत कोयला खदानों को लेकर देश के 65 प्रतिशत भाग को 'गो' और 35 प्रतिशत भाग को 'नो-गो' क्षेत्र घोषित किया गया है। इससे दो मंत्रालयों में तकरार है। कोयला मंत्री सिर्फ 10 फीसद हिस्से को 'गो' एरिया के तहत चाहते हैं। रमेश के हठ से कोयले के 200 से अधिक ब्लॉकों को मंजूरी नहीं मिल पा रही है और कोयला कमी से ऊर्जा संकट की आशंका बन गई है। सरकारी प्रबंधों से ऐसा नहीं हुआ तो बिजली महंगाने के अलावा चारा नहीं रह जाएगा। कोल इंडिया के खनन से पर्यावरण के लिए अनेक चुनौतियां बढ़ी हैं। इसके मद्देनजर पर्यावरणमंत्री का रवैया तकरे की दृष्टि से सही है फिर भी इसने देश में कोयला उत्पादन वृद्धि दर 2012 तक शून्य पर पहुंच जाने की स्थिति बना दी है। 2009-10 में कोयले का उत्पादन 600 मिलियन टन की मांग के मुकाबले 70 मिलियन टन कम था। इस साल 603 मिलियन टन उत्पादन का अनुमान है पर मांग से 81 मिलियन टन कम है। इससे निपटने के लिए ऊर्जा मंत्रालय कोयले का आयात करना चाहता है जिसका मुख्य उपयोग तापीय बिजली बनाने में हो रहा है। उधर, प्रधानमंत्री की कजाखस्तान यात्रा के दौरान परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में सहयोग के तहत भारत को 2100 टन यूरेनियम की आपूर्ति संतोष की बात है लेकिन कोयला संकट का क्या हल निकलेगा?

Friday, April 8, 2011

कोयला खनन पर नरम पड़े जयराम रमेश


 गो और नो-गो के मुद्दे पर वन व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश थोड़े और ढीले पड़े हैं। देश के लगभग तीन चौथाई कोयला ब्लॉकों से कोयला निकालने के रास्ते में वन व पर्यावरण मंत्रालय अब अड़ंगा नहीं डालेगा। वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता वाले मंत्रियों के समूह (जीओएम) की गुरुवार को हुई दूसरी बैठक में यह सहमति बनी। माना जा रहा है कि इस फैसले से देश में कोयला उत्पादन बढ़ेगा। खास तौर पर झारखंड, ओडीशा के कई ब्लाकों में फिर से कोयला निकालने का काम शुरू हो सकेगा। प्रधानमंत्री ने कोयला खनन में गो व नो-गो की परिभाषा की वजह से आई दिक्कतों को दूर करने के लिए इस जीओएम का गठन किया है। आज इसकी दूसरी बैठक थी। समूह के एक वरिष्ठ सदस्य ने आज की बैठक में कोयला उत्पादन में कमी की वजह से आर्थिक विकास दर पर पड़ने वाले असर की बात कही। इसके बाद ही कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने यह प्रस्ताव किया कि ऐसे कोयला ब्लॉक जिनसे वन व पर्यावरण को बड़ा खतरा नहीं है, उनमें कोयला निकालने की मंजूरी दी जानी चाहिए। इस प्रस्ताव का स्टील मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा और बिजली मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने जोरदार समर्थन किया। वन व पर्यावरण मंत्री को इस प्रस्ताव पर सहमति दिखानी पड़ी। सूत्रों के मुताबिक इस फैसले का व्यापक असर होगा। गो और नो-गो की वजह से लगभग 203 कोयला ब्लॉक प्रतिबंधित हैं। इनमें से 70-72 फीसदी को लेकर बहुत ज्यादा समस्या नहीं है। अब यहां फिर से कोयला निकाला जा सकेगा। वन व पर्यावरण मंत्रालय क्रमवार तरीके से इन परियोजनाओं को मंजूरी देगा। इन ब्लॉकों के प्रतिबंधित होने से वर्ष 2010-11 में कोयला उत्पादन में भी कमी आई थी। सरकार ने पहले वर्ष 2011-12 में 71.3 करोड़ टन कोयला उत्पादन का अनुमान लगाया था। मगर गो और नो-गो के चक्कर में इसके घट कर 63 करोड़ टन रह जाने के आसार बन गये थे। सूत्रों के मुताबिक अगर जीओएम में बनी सहमति को शीघ्रता से लागू किया जाता है तो कोयला उत्पादन सात करोड़ टन और बढ़ सकता है। दो हफ्ते बाद जीओएम की एक और बैठक होगी। उसके बाद ही अंतिम प्रस्ताव तैयार किया जाएगा|

Wednesday, April 6, 2011

प्रभावी अमल भी हो


प्लास्टिक थैलियों के कचरे से पूरी तरह मुक्त हो सकेगी दिल्ली! उम्मीदें जग रही हैं? राज्य सरकार ने अपनी भौगोलिक-वैधानिक सीमा में इस पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाये जाने का सोमवार को निर्णय लिया है। रोक पहले भी थी पर नियमों में लोच और किंतु-परंतु से प्लास्टिक थैलियों के इस्तेमाल के परिणामस्वरूप पैदा होने वाले अत्यंत घातक कचरे में कोई कमी आने के बजाय यह निरंतर बढ़ता गया है। इससे नाले-नालियों समेत समूचे सीवेज सिस्टम और पेयजल पण्राली के साथ राजधानी की जीवनदायिनी समझी जाने वाली पयस्विनी-यमुना के भी 'जाम' होने के बाद दिल्ली का पारिस्थितिकीय-पर्यावरण संतुलन व जलवायु बुरी तरह प्रभावित होने लगी है। इसका खतरनाक असर राष्ट्रीय राजधानी, खासकर इसके उपनगरीय क्षेत्रों में लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। अनेक स्तर से आवाजें उठने के बाद दिल्ली सरकार ने हालात की गंभीरता समझी और पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 की धारा-5 के अंतर्गत राजधानी में प्लास्टिक थैलियों के उत्पादन, बिक्री व भंडारण के अलावा इसके प्रयोग को भी पूर्णतया प्रतिबंधित करने का फैसला किया है। इस पाबंदी को कड़ाई से लागू कराने के लिए दिल्ली नगर निगम, एनडीएमसी और दिल्ली पुलिस को भी निर्देश दिये गये हैं। पहले प्लास्टिक थैलियों के उत्पादन से सम्बंधित मूल कानून 2008 में जो संशोधन किया गया था उसके तहत सिर्फ प्लास्टिक थैलियों की मोटाई दोगुना-40 माइक्रोन-कर दी गई थी। प्रतिबंध के लिए कुछ क्षेत्रों को ही चिह्नित किया गया था। इस 'लूपहोल्स' से इनका प्रचलन रोक पाना नामुमकिन था। ऐसा नहीं कि अब सरकार के निर्णय मात्र से प्लास्टिक थैलियों पर प्रतिबंध लग जाएगा। जब तक प्रयोग करने वाली जनता इसके दुष्प्रभाव नहीं समझेगी, निर्णय प्रभावी होने वाला नहीं। कुछ दिन तक यह कहीं रुक या कम हो सकता है। जनजागरूकता अभियान से भी अपेक्षित हद तक रोकथाम सम्भव नहीं है। हां, कानून का भय जरूर इसके मोह-पाश से लोगों को रोक सकता है जिसके लिए पुलिस को सम्यक तरीके से मुस्तैद करना होगा। प्लास्टिक थैलियों के उत्पादन-वितरण से बहुत लोगों को आजीविका मिली है। इसके कचरे से बड़ी संख्या में लोगों को 'रोटी' मिलती है। पर इस आधार पर समाज व पांिरस्थितिकी-पर्यावरण के लिए हवा में जहर घोलने की छूट किसी को नहीं दी जा सकती। प्लास्टिक की थैलियां कागज के जिस ठोंगे को बरतरब कर लोगों की सुविधा बन गई हैं, उस गृह उद्योग में भी हजारों लोगों को रोजगार मिला हुआ था। पहले लोग बाजार में खरीदारी के लिए झोले लेकर जाते थे। झोले नये-पुराने कपड़ों के बने होते थे जो 'इकोनॉमिक' भी थे। लेकिन समृद्धि तथा लोगों की सुविधापरस्ती ने उनको चलन से बाहर कर दिया। अब हर व्यक्ति तात्कालिक सहूलियत देखने लगा है। जरूरत इस प्रवृत्ति को खत्म करने की है। इसमें उपयोगशुदा कागज का पुनर्उपयोग काफी हद तक सहायक हो सकता है। यह काम सरकारी एजेंसियों और कानून के साथ आम लोगों को भी करना होगा। उम्मीद है पूरा देश दिल्ली की इस पहल का अनुसरण करेगा।