Saturday, April 9, 2011

बाघों की बढ़ोतरी पर कितना करें भरोसा


वर्ष 2010 में हुई बाघ गणना के आकड़ों को सही मानें तो देश में बाघों की संख्या 1411 से बढ़कर 1706 हो गई है, लेकिन केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्री जयराम रमेश ने अखिल भारतीय बाघ गणना का जो प्रतिवेदन जारी किया है, उसी का गंभीरता से आकलन करें तो जाहिर होता है यह गणना भ्रामक है। वर्ष 2006 की गणना में सुंदरवन के बाघ शामिल नहीं थे। नई गणना में इनकी संख्या 70 बताई गई है। दूसरे, बाघों की बढ़ी संख्या नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से आई है। इसमें नक्सली भय से वन अमले का प्रवेश वर्जित है। जब वन अमला दूरांचल और बियावान जंगलों में पहंुचा ही नहीं तो गणना कैसे संभव हुई? जाहिर है, यह गिनती अनुमान आधारित है। हालांकि यह तय है कि नक्सली वर्चस्व वाले भूखंडों में बाघों की ही नहीं, अन्य दुर्लभ वन्य जीवों की भी संख्या बढ़ी होगी। क्योंकि इन मुश्किल इलाकों में बाघ के अभ्यस्त शिकारी भी नक्सलियों से भय खाते हैं। लिहाजा, इन क्षेत्रों में बाघ बढ़े भी हैं तो इसका श्रेय वन विभाग को क्यों? इस रपट को जारी करते हुए खुद वनमंत्री ने माना है कि 2009-2010 में बड़ी संख्या में बाघ मारे गए। इसके बावजूद शिकारी और तस्कारों के समूहों को न हिरासत में लिया जा सका और न ही शिकार की घटनाओं पर अंकुश लगाया जा सका। ऐसे में सवाल उठता है कि जब शिकारी उन्मुक्त रहे तो बाघों का शिकार बाधित कहां हुआ। आधुनिक तकनीक से महज 615 बाघों के छाया चित्र लेकर गिनती की गई है। बाकी बाघों की गिनती परंपरागत पद्धतियों और रेडियो पट्टेधारी तकनीक से की गई है, जबकि पदचिह्न गिनती की वैज्ञानिक प्रमाणिकता पर खुद वन मंत्री सवाल उठा चुके हैं। अब सवाल यह भी उठता हैं कि क्या बाघों की जान-बूझकर गिनती बढ़ाकर इसलिए बताई गई है, जिससे वन विभाग की साख बची रहे और बाघ संरक्षण के उपक्रमों के बहाने आवंटन के रूप में बड़ी धनराशि मिलती रहे? बाघों की यह गिनती उस दौर की है जिस दौर में भारत में ही नहीं, बल्कि दुनियाभर में बाघ मारे गए। ये बाघ अंगों के अवैध व्यापार के लिए शिकार बनाए गए। इस लुप्त प्राय वन्य जीव के अंगों की अवैध बरामदगी के मामले में बाघ बहुल 13 में से 11 देशों की सूची में भारत, चीन और नेपाल सबसे ऊपर हैं। वन्यजीव प्रणियों के अवैध व्यापार पर नजर रखने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था ट्रेफिक ने यह रिपोर्ट 2010 में प्रकाशित की थी। बाघों के अंगों का विश्लेषण करने के बाद पाया गाया कि हर वर्ष औसतन 104 से 199 बाघों का शिकार किया गया। यह संख्या सिर्फ उन बाघों की है, जिनके अंग व खालें वन अमले, पुलिस और प्रशासन ने शिकारियों के पास से बरामद किए हैं। जो शिकार और शिकारी पकड़े नहीं जा सके, उनका तो अनुमान ही लगाना मुश्किल है। भारत में बाघों के सर्वाधिक 276 अंग बरामद किए गए। इन अंगों की भिन्न पहचान करके साफ हुआ कि 469 से लेकर 533 बाघों को मारा गया। हत्या किए गए इन बाघों की गिनती का आधार खाल, कंकाल, जबड़ा, दांत और पूंछ शामिल थे। इसी दौरान सरिस्का और पन्ना से बाघों के सफाए की खबरें आई। सरिस्का से 24 बाघों और पन्ना से 16 से 32 बाघों के मारे जाने की खबरें आई। काजीरंगा में 9 बाघ 3 महीने के अंदर मार गिराए गए। भोपाल के वन विहार राष्ट्रीय उद्यान जो देश के सर्वाधिक सुरक्षित उद्यानों में से एक है, उसमें 16 बाघ अज्ञात कारणों से मारे गए। जबकि मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल जैसे मुख्य स्थल पर होने के कारण यहां न शिकारियों का खतरा है और न ही ग्रामीणों द्वारा जहर देकर मार दिए जाने का भय। वन विभाग के अधिकारी और पशु चिकित्सकों का भी भोपाल बड़ा ठिकाना है। इसके बावजूद 16 बाघ, 5 तेंदुए और 3 शेर काल के गाल में समा गए। हल्ला मचने पर खासतौर से बाघों की मौत की जांच एक विशेष समिति से कराई गई। संपत्ति की जांच का नतीजा इतना हास्यापद था कि उस पर कोई भरोसा करने को तैयार नहीं है। भरोसा करने को तैयार नहीं है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट और फॉरेंसिक जांच ने मौत की वजह बताई कि ये बाघ एक खास तरह के पिस्सू और मक्खी के संक्रमण से मारे गए। रिपोर्ट में बताया गया कि टेबनेस प्रजाति के पिस्सू और मक्खी बाघों पर बैठकर खून चूसते हैं और उनमें हीमोबोटेनेला तथा पायरोप्लाज्मा जैसे खतरनाक परजीवी छोड़ देते हैं। बाघ के शरीर में ये परजीवी तेजी से पनपते हैं, जो उसके इम्यून सिस्टम को कमजोर कर देते हैं। लिहाजा, बाघ की किडनी, लीवर और फेफड़े खराब होने लगते हैं और बाघ तिल-तिल कर मर जाते हैं। लेकिन यहां हैरानी में डालने वाली बात यह है कि वन विहार उद्यान बेहद सीमित दायरे में हैं और उसमें बाघों के आवास, आहार व प्रजनन के लिए बाड़े बने हुए हैं। जिन पर चौबीस घंटे निगरानी रखना आसान है। साथ ही भोपाल में पशु चिकित्सा की श्रेष्ठम सुविधाएं हैं। ऐसे अनुकूल माहौल में जब बीमार बाघों का उपचार नहीं किया जा सका और एक-एक कर 16 बाघ मर गए, तब सवाल उठता है कि वन अमला उन दुर्गम क्षेत्रों में कैसे निगरानी रख सकता है, जिन क्षेत्रों में नक्सली खतरा हर वक्त मंडराता रहता है? देश के कुल 54 चिडि़याघरों में इस वक्त 275 बाघ हैं। उड़ीसा के नंदन कानन में 16 और आंध्र प्रदेश के इंदिरा गांधी चिडि़याघर में 14 बाघ हैं, लेकिन कृत्रिम जीवन जीने के कारण चिडि़याघर के बाघों की प्राकृतिक क्रियाएं बाधित हो जाती हैं। इनकी प्रजनन क्षमता बुरी तरह प्रभावित हो जाती है। लिहाजा, इनके वंशों में वृद्धि नहीं होती। चिडि़याघर के बाघ भी बाघ-गणना में शामिल हैं। यहां विचारणीय बिंदु यह है कि जब बाघों की इतनी बड़ी और संरक्षित आबादी नंपुसकता के हश्र को प्राप्त हो गई तो बाघों की वह कौन-सी आबादी है, जिसने जोड़ा बनाकर वंशवृद्धि की है? बाघों की गिनती और निगरानी के बाबत यहां दो बातें और भी उल्लेखनीय हैं। गौरतलब है कि जब 2009-10 में पन्ना बाघ परियोजना से बाघों के गायब होने की खबरें आ रही थीं, तब 2008 में वन विभाग ने बताया था कि पन्ना में 16 से लेकर 32 बाघ हैं। इस गणना में 50 प्रतिशत का लोचा है, जबकि यह गणना आधुनिकतम तरकीब से ली गई थी। मसलन, जब हम एक उद्यान की सटीक गिनती नहीं कर सकते तो देश के जंगलों में रह रहे बाघों की सटीक गिनती कैसे कर पाएंगे? बाघों की मौजूदा गिनती को यदि पन्ना की बाघ गणना से तुलना करें तो देश में बाघों की अनुमानित संख्या 853 से लेकर 1706 तक भी हो सकती है। बाघों की हाल में हुई गिनती में तकनीक भले ही नई रही है, लेकिन गिनती करने वाला अमला वही था, जिसने 2008 में पन्ना क्षेत्र में बाघों की गिनती की थी। नवंबर-दिसंबर 2010 में श्योपुर-मुरैना की जंगली पट्टी में एक बाघ की आमद दर्ज की गई थी। इसने कई गाय-भैसों का शिकार किया और करीब दर्जन भर ग्रामीणों ने इसे देखने की तसदीक भी की। वन अमले ने दावा किया था कि यह बाघ राजस्थान के राष्ट्रीय उद्यान से भटक कर या मादा की तलाश में श्योपुर-मुरैना के जंगलों में चला आया है। इस बाघ को खोजने में पूरे दो माह ग्वालियर अंचल का वन अमला इसके पीछे लगा रहा। इसके छायांकन के लिए संवेदनशील कैमरे और कैमरा टेप पद्धतियों का भी भी इस्तेमाल किया गया, लेकिन इसके फोटो नहीं लिए जा सके। आखिर पंजे के निशान और शिकार के तरीके से प्रमाणित किया गया कि कोई नर बाघ ने ही श्योपुर-मुरैना में धमाल मचाया हुआ है। यह बाघ वाकई में एक निश्चित क्षेत्र में था। फिर भी इसे हम ट्रेस करने में दो माह की कोशिशों के बाद भी नाकाम रहे। तब एक पखवाड़े के भीतर 1706 बाघों की गिनती कैसे कर ली? बाघों की गणना के ताजा और पूर्व प्रतिवेदनों से भी यह तय हुआ है कि 90 प्रतिशत बाघ आरक्षित बाघ अभ्यारण्यों से बाहर रहते हैं। इन बाघों के संरक्षण में न वनकर्मियों का कोई योगदान होता है और न ही बाघों के लिए मुहैया कराई जाने वाली धनराशि बाघ संरक्षण के उपायों में खर्च होती हैं? इस तथ्य की पुष्टि जयराम रमेश के इस बयान से भी होती है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में जो जंगल हैं, उनमें बाघों की संख्या में गुणात्मक वृद्धि हुई है। जाहिर है, इन क्षेत्रों में बाघ संरक्षण के सभी सरकारी उपाय पहुंच से बाहर हैं। लिहाजा, वक्त का तकाजा है कि जंगल के रहबर वनवासियों को ही जंगल के दावेदार के रूप में देखा जाए तो संभव है कि वन प्रबंधन का कोई मानवीय संवेदना से जुड़ा जनतांत्रिक सहभागितामूलक मार्ग प्रशस्त हो। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


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