Monday, December 20, 2010

प्रगति की होड़ से उठता विप्लव

मनुष्यों की संख्या जहां बहुत बढ़ गई है, वहीं दूसरी ओर उनके बीच विषमता और भी अधिक बढ़ गई है। उनमें से अनेक की बुनियादी जरूरतें भी पूरी नहीं हो पाती हैं। अनेक लोग तरह-तरह के दुख-दर्द से त्रस्त हैं। आपसी संबंध अच्छे नहीं हैं। पारिवारिक संबंधों तक में टूटन व अन्याय है। जो थोड़े से लोग बहुत वैभव की जिंदगी जी रहे हैं, उनका जीवन दूसरों से छीना-छपटी व अन्याय पर आधारित है। इतना ही नहीं, सीमित संसाधनों का अत्यधिक दोहन कर व ग्रीनहाऊस गैसों का अत्यधिक उत्सर्जन कर यह थोड़े से लोगों की जीवन-शैली भावी पीढ़ियों को खतरे में भी डाल रही हैं।
इस स्थिति में यह सवाल बहुत महत्त्वपूर्ण है कि यहां दस हजार वर्षों से जो बदलाव हुआ उसे प्रगति माना जाए कि नहीं? बहुत से लोग कहेंगे कि यह निश्चय ही प्रगति है क्योंकि पहले जहां जंगल था वहां अब गगनचंुबी इमारते खड़ी हैं। बहुत से नए आविष्कार हो चुके हैं। कार, हवाई जहाज, टीवी, एयरकंडीशनर, सिनेमा सब मौजूद हैं। पर अधिकांश जीव-जंतु, पेड़-पौधे उजड़ चुके हैं या उजड़ रहे हैं। जिन्हें वैभव मिला है वे इसका उपयोग ऐसे कर रहे हैं जिससे भविष्य में हर तरह का जीवन ही संकट में पड़ जाएगा। अतः प्रगति न तो अधिकांश जीव-जंतुओं की है, न पेड़-पौधों की है। अधिकांश मनुष्यों और साथ ही भावी पीढ़ियों का जीवन भी संकटग्रस्त हो गया है। तो इसे प्रगति कैसे माने?
यदि मनुष्य अन्य जीवों, पेड़-पौधों, भावी पीढ़ियों, व अपने साथियों के प्रति अधिक संवेदनशील होता, तो फिर वह एक दूसरी तरह की दुनिया बना सकता था जिसमें सभी मनुष्य छोटे-छोटे घरों में रहते व सादगी की जीवन शैली से जीते पर अपने पास बहुत हरियाली को पनपने देते। इस हरियाली में सब तरह के जीव-जंतुओं को शरण मिलती व भोजन भी मिलता। इससे हवा-पानी की बुनियादी जरूरतें सबके लिए ठीक से पूरी होने में मदद मिलती। सादगी का जीवन सब अपनाते तो विषमता, लालच, छीना-झपटी की बुराईयों से बचते। मनुष्य का जीवन समता व सद्भावना पर आधारित होता तो उसमें दुख-दर्द भी कम होता।
यह राह भी संभव है यदि मनुष्य अपनी बढ़ती संख्या के बावजूद अपनी क्षमताओं व सुबुद्धि के बल पर ऐसी दुनिया बनाए जिसमें वह अन्य जीवों को पनपने के लिए पर्याप्त स्थान दे, अपने साथियों में खुशियां बांटे व भावी पीढ़ी की रक्षा सुनिश्चित करे। जब मनुष्य यह सच अपनाएगा तो इसे प्रगति कहा जाएगा, क्योंकि इसमें सभी मनुष्यों, सभी जीव-जंतुओं व भावी पीढ़ियों की भलाई बढ़ रही है। इस तरह अभी तक के मानव इतिहास को प्रगति नहीं कहा जा सकता है। हालांकि इतिहास में कुछ वर्षों के लिए प्रगति अवश्य हुई जब तरह-तरह के सद्भावना, सादगी, सह-अस्तित्व व सबकी भलाई के संदेशों ने जोर पकड़ा। सही प्रगति की राह वह है जिसमें मनुष्य अपने साथियों से प्रगाढ़ सद्भावना के संबंध बनाकर सभी मनुष्यों, सभी जीवों, पेड़-पौधों व भावी पीढ़ियों की रक्षा के लिए सक्रिय होते हैं। प्रगति की इस सही राह को अपना कर ही धरती की व इसके विविधता भरे जीवन की रक्षा हो सकती है।
यदि हमने सब जीवों की भलाई पर आरंभ से ध्यान दिया होता, तो ऐसी सभ्यता विकसित होती जो हरियाली से घिरी रहती। इस सभ्यता में ग्रीनहाऊस गैस उत्सर्जन की अधिकता से जुड़ा जलवायु बदलाव का संकट कभी उत्पन्न ही न होता। इस तरह सब जीवों की भलाई पर ध्यान देना हमारे अपने जीवन की रक्षा का सबसे बड़ा उपाय बन सकता था। अभी भी हम चाहें तो अपनी गलतियों को सुधार कर अपनी तथा अन्य जीवों दोनों की रक्षा कर सकते हैं।ली के। ध्यान रहे जीवन का आनंद एकरसता में नहीं विविधता में है।

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