संयुक्त राष्ट्र संघ के जलवायु परिवर्तन सम्मेलनों की शुरुआत जहां दुनिया भर के राजनेताओं, पर्यावरणविदों और वैज्ञानिकों के लिए पिघलते हुए ग्लेशियर, जलस्तर बढ़ते महासागरों, धसकते पहाड़ों, बदलते मौसम और गर्म होती धरती की चिंताओं का केंद्र थी, वहीं कोपेनहेगन और कानकुन तक पंहुचते यह चिंता विकसित दुनिया के हितों को साधने की कूटनीतिक चालों को पूरा करने के साधन स्थलों में बदल चुकी थी। अंततोगत्वा इस नीले ग्रह को बचाने पर जीत पूंजी संचय के कूटनीतिक इरादों की हुई, जलवायु परिवर्तन पर कई दिनों तक चली कानकुन वार्ता कोपेनेहेगन की विफलता का दूसरा चक्र सिद्ध हुई। टोरंटो में जून 1988 में बदलते मौसम पर आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन ने इस पर चर्चा करते हुए कहा कि दुनिया एक मानव निर्मित खतरे कि तरफ बढ़ रही है। साथ ही इस खतरे पर रोक लगाने की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए सम्मेलन में 2005 तक कार्बन उत्सर्जन में बीस प्रतिशत तक की कटौती का लक्ष्य रखा गया। तत्पश्चात इंटरगर्वमेंटल पैनल फॉर क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की पहली बैठक नवंबर 1988 में जेनेवा में हुई, जिसमें तय किया गया कि सभी सरकारों का दायित्व है कि वह जलवायु परिवर्तन पर जानकारी रखें और उसके प्रभावों का मूल्यांकन करते हुए उसके समाधान के उपाय करें। इसके मद्देनजर आईपीसीसी ने सबसे पहले अगस्त 1990 में जलवायु परिवर्तन पर पहली बार अपनी एक रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसमें बदलते मौसम और गर्म होती पृथ्वी की सतह के बारे में जानकारी और चिंता जाहिर की गई। इसके बाद संयुक्त राष्ट्रसंघ की पहल पर जून 1992 में रियो द जनेरियो (ब्राजील) में एक अर्थ समिट का आयोजन किया, जिसमें यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑफ क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) पर सहमति जताते हुए 154 देशों ने हस्ताक्षर किए। इस समिट में विकसित देशों ने अधिकतर कार्बन उत्सर्जन की जिम्मेदारी लेते हुए वर्ष 2000 तक उत्सर्जन को 1990 के स्तर तक घटाने की बात कही। यूएनएफसीसीसी द्वारा बनाई कांफ्रेंस ऑफ पार्टिज (सीओपी) की पहली बैठक 1995 में बर्लिन (जर्मनी) में आयोजित की गई, जिसमें ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के सुझावों को अपर्याप्त मानते हुए कहा गया कि उत्सर्जन को रोकने के लिए हरेक देश के लिए अलग-अलग वैधानिक बाध्यता तय की जानी चाहिए। पहली सीओपी की इस घोषणा को बर्लिन मेंडेट के नाम से जाना से जाना जाता है। दिसंबर 1996 में आईपीसीसी ने जलवायु परिवर्तन पर अपनी दूसरी रिपोर्ट जारी की, जिसमें जलवायु परिवर्तन के लोगों पर होने वाले प्रभावों को दर्शाया गया। जुलाई 1996 में सीओपी के दूसरे सम्मेलन जेनेवा में ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के लिए वैधानिक बाध्यता और एक समय सारणी तय की गई। इसी सम्मेलन में अमेरिका ने एक अंतरराष्ट्रीय कार्बन उत्सर्जन व्यापार योजना का प्रस्ताव रखा, जिस पर सौ से अधिक देशों ने अपनी सहमति जताई। मार्च 1997 में जेनेवा में यूरोपीय पर्यावरण मंत्रियों की एक बैठक में 2010 तक सभी औद्योगिक देशों द्वारा 1990 के स्तर से 15 प्रतिशत तक उत्सर्जन कम करने का निर्णय किया गया। साथ ही इस बैठक में यह भी कहा गया कि विकसित और विकासशील सभी देश पर्यावरण को स्थिर रखने के लिए अपना उत्सर्जन घटाएं। कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज की तीसरी बैठक जापान के क्योटा शहर में दिसंबर 1997 में हुई, जिसमें 150 देशों ने भाग लिया। इस क्योटा बैठक का जलवायु परिवर्तन के लिए आयोजित बैठकों में विशेष महत्व है। इसी बैठक में होने वाली गहन चर्चा के बाद क्योटो प्रोटोकॉल का प्रस्ताव पारित किया गया। यह क्योटो प्रोटोकॉल औद्योगिक और कुछ मध्य यूरोपीय देशों को 2008 से 2012 तक 1990 के स्तर से 6 से 8 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन घटाने की कानूनी बाध्यता बनाता है। मगर अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा जैसे औद्योगिक देश अभी तक इसके अनुमोदन से बच रहे हैं। अमेरिका के किसी भी राष्ट्रपति ने क्लिंटन, बुश और अब ओबमा तक ने सीनेट के अनुमोदन के लिए इसे अभी तक सीनेट में दाखिल ही किया है। हालांकि इस क्योटो प्रोटोकॉल में कुछ बचाव का रास्ता भी था। यदि औद्योगिक देश अधिक उत्सर्जन करते हैं तो वे गरीब अल्प विकसित देशों से उत्सर्जन का व्यापार कर सकते हैं यानी उत्सर्जन क्रेडिट अथवा उधार ले सकते हैं, लेकिन उसके लिए उन्हें उसका मूल्य चुकाना होगा। अब भला पूंजी संचय के लिए होने वाला विकास अपनी पूंजी क्यों गंवाना चाहेगा। इसी कारण हेग में सीओपी की छठी बैठक भी नाकामयाब रही। अमेरिका, जापान, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया इससे बचने के लिए चालाकी करते रहे। जबकि यूरोपीय यूनियन और कुछ द्वीपीय देश इसे लागू करते हुए उत्सर्जन घटाना व उत्सर्जन उधारी चुकाना चाहते हैं। दिसंबर 2002 में तीन महीने की लंबी बहस के बाद कनाडा ने क्योटो प्रोटोकॉल को एक कानून के रूप में अनुमोदित कर दिया। 16 फरवरी 2005 को रूसी अनुमोदन के बाद जब इस कानून को 55 प्रतिशत देशों का अनुमोदन मिल गया तो यह एक अंतरराष्ट्रीय कानून बन गया। मई 2005 के बाद अब दूसरे क्योटो प्रोटोकॉल के लिए बहस छिड़ गई थी, जो 2012 के बाद के लिए कानून तैयार करेगा। इसी दौरान फरवरी-नवंबर 2007 में आईपीसीसी की चौथी रिपोर्ट प्रकाशित हुई। दिसंबर 2007 में बाली में संपन्न संयुक्त राष्ट्रसंघ और पार्टियों की बैठक में तय किया गया कि 2009 में कोपेनहेगन में होने वाली संयुक्त राष्ट्रसंघ क्लाइमेट समिट में क्योटो प्रोटोकॉल के दूसरे फेज का रोडमैप तैयार किया जाएगा। इस बीच जुलाई 2009 में संपन्न जी-8 देशों की बैठक में निर्णय किया गया कि धरती का तापमान दो डिग्री सेल्सियस से अधिक नही बढ़ना चाहिए और जिसके लिए 2050 तक कम से कम पचास प्रतिशत तक उत्सर्जन कम किया जाना चाहिए और विकसित देशों को यह कटौती अस्सी प्रतिशत तक करनी चाहिए। जलवायु परिवर्तन सम्मेलन जलवायु परिवर्तन पर एक स्वच्छ, महत्वाकांक्षी और एक बेहतर पर्यावरण वाली दुनिया बनाने का कानून बनाने पर सहमति के लिए आयोजित किए जाते रहे हैं, लेकिन दुनिया के विकसित देश क्योटो प्रोटोकॉल के बाद प्रोटोकॉल के दूसरे चक्र से किसी भी तरह से बचना चाहते हैं। जिसके लिए कोपेनहेगन में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने सभी राजनयिक प्रोटोकॉल का उल्लंघन करते हुए पहले बेसिक देशों की एक गुप्त बैठक में अचाानक दाखिल होकर बेसिक देशों के राष्ट्राध्यक्षों को धमकाने की कोशिश की और फिर बात नहीं बनते देखकर उन्हें वित्त पैकेज देने की घोषणा कर डाली। कानकुन तक आते-आते उस अमेरिकी वित्त पैकेज के शिगूफे की भी हवा निकल गई और दुनिया के अमीर देशों की असली कार्ययोजना उजागर हो गई। दरअसल, दुनिया के विकसित देश उनके द्वारा रची गई तबाही की कीमत विकासशील और गरीब देशों के सिर मढ़ना चाहते हैं और अपनी इस कार्ययोजना के काम को उन्होंने कोपेनहेगन से ही अंजाम देना शुरू कर दिया था। अब कानकुन तो कोपेनहेगन के प्रारूप के अनुरूप रोडमैप तैयार करना भर था। अब जबकि भारत के पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश विकासशील देशों द्वारा जलवायु परिवर्तन पर एक राष्ट्रीय योजना बनाने का तर्क देते हैं तो इसमें अमेरिकी रणनीति की गूंज साफ सुनाई देती है, लेकिन इससे भी हद दर्जे का समर्पण तब दिखाई देता है, जब वह अमीर देशों के नए बाध्यकारी प्रस्ताव के समर्थन में बेहद संवेदनहीन तरीके से कहते हैं कि हममें से 2050 में कोई नहीं होगा। अमेरिकी दबाव में आए पर्यावरण मंत्री को इस बात का अहसास नही है कि सवाल वर्तमान पीढ़ी को बचाने का नहीं, बल्कि इस खूबसूरत नीले ग्रह को बचाने का है। वास्तव में कोपेनहेगन से शुरू हुई विफलताओं की यह अतुल्य रणनीति गरीबों की जिंदगी पर अमीर दुनिया की सुविधाओं की जीत ही है। बेसिक देशों और अमेरिका के साथ एक कमरे की बैठक में संपन्न कोपेनहेगन समझौते का अफ्रीका के सूडान और लैटिन अमेरिका जैसे देश जो प्रखर विरोध करते रहे हैं, उससे विश्व राजनीति में बेसिक जैसे विकासशील देशों से अलग अल्प विकसित देशों के नए गुट की धमक के तौर पर महसूस किया जा रहा था। अमेरिका नीत विकसित दुनिया के विरोधी खेमे की यह टूट की सुखद घटना निश्चय ही कोपेनहेगन में विकसित देशों के लिए एक बड़ी उपलब्धि थी, मगर इसका खामियाजा उन द्वीपीय और गरीब देशों को भुगतना पडे़गा, जो ग्लोबल वार्मिग से उत्पन्न खतरों को लगातार झेल रहे हैं और उनसे निपटने लायक संसाधन भी उनके पास नही हैं। विकासशील और गरीब देशों की इसी टूट का फायदा लेते हुए अमीर देश अंततोगत्वा एक दिन अपनी जीत सुनिश्चित कर ही लेंगे। मगर जीत किसी की भी हो, तय है कि यह गरीबों और वंचितों पर सुविधासंपन्नों की इस जीत के साथ ही हमारे खूबसूरत नीले ग्रह की ही हार होगी।
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