लेखक गंगा नदी के प्रदूषण को कम करने के लिए हो रहे प्रयासों का खोखलापन उजागर कर रहे हैं.....
जिस गंगा को हम सदियों से पूजते आए हैं और जिसके किनारे हमारी सभ्यता और संस्कृति का विकास हुआ, जिसके अस्तित्व से हमारा अस्तित्व है वही गंगा आज संकट के कगार पर है। सबसे बड़ी बात यह है कि यह संकट किसी और ने नहीं, बल्कि हमने खुद पैदा किया है। लगातार कल-कारखानों और घरों से निकलने वाले जहरीले पदार्थ और प्रदूषित जल गंगा में बहाए जाने से आज इसका जल इतना प्रदूषित हो गया है कि इसे कई जगहों पर पीना तो दूर सिंचाई के लिए भी उपयोग नहीं किया जा सकता। 1981 में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक गंगा नदी के जल में ई-कोली का स्तर दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। यह मानव मल अथवा पशुओं के पेट में पाया जाता है, जो जल को जहरीला और अस्वास्थ्यकर बना देता है, जिससे इस जल का उपयोग करने वाले लोगों को कई तरह की गंभीर बीमारियां होने का खतरा होता है। देश के करीब 300 शहर इस नदी के किनारे स्थित हैं, जिनसे प्रतिदिन लाखों टन मल और गंदगी गंगा में बहाया जा रहा है तो दूसरी तरफ मानव स्वास्थ्य व पर्यावरण के लिए हानिकारक रासायनिक पदार्थो को गंगा के जल में औद्योगिक इकाइयों द्वारा बहाया जा रहा है। इसका सम्मिलित प्रभाव यह हुआ है कि कभी न सड़ने वाला गंगा का स्वास्थ्यवर्धक जल आज यदि कुछ दिनों के लिए घर में रख दिया जाए तो इससे दुर्गध महसूस की जा सकती है। एक तरफ औद्योगिक प्रदूषण से इस नदी का जल लगातार प्रदूषित और नष्ट किया जा रहा है तो दूसरी ओर ग्लोबल वार्मिग के कारण भी इसे खतरा पैदा हो गया है। वैज्ञानिकों की मानें तो तेजी से पिघल रहे ग्लेशियर के कारण कुछ दशकों में इस नदी को जल मिलना ही बंद हो जाएगा, जिससे यह नदी सूख सकती है। इस स्थिति से सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि तब हमारे शहरों का अस्तित्व किस तरह बचेगा और खेती कैसे होगी? हमारे नेता और नीति-नियंता इतना क्यों अनजान हैं कि वर्तमान के थोड़े से स्वार्थ के लिए पूरी मानव सभ्यता को ही अंधकार में डुबो देना चाहते हैं। 1985 में सुप्रीम कोर्ट ने जहरीला प्रदूषण फैला रही इकाइयों को तत्काल बंद करने का निर्देश दिया था, लेकिन सच्चाई यही है कि आज पूरे देश में करीब दो लाख छोटी-बड़ी ऐसी इकाइयां हैं जिनसे गंगा में प्रतिदिन लाखों टन जहरीले प्रदूषक बहाए जा रहे हैं। कानपुर और बनारस में स्थिति अकल्पनीय है, लेकिन वहां अभी भी कई इकाइयां सरकार की अनदेखी के कारण चल रही हैं। जब अदालत की फटकार पड़ती है तो सरकार कुछ दिन के लिए जाग जाती है, लेकिन समय बीतने के साथ ही अधिकारी इन इकाइयों से पैसा लेकर उन्हें अनापत्ति प्रमाण पत्र देते हैं और ये चलती रहती हैं। यदि हम लोहारीनागपाला परियोजना की ही बात करें तो प्रो. बीडी अग्रवाल के आमरण अनशन और देशव्यापी दबाव बनाए जाने पर सरकार ने इस तरह की परियोजनाओं को तत्काल रोकने के लिए अपनी सहमति दे दी, लेकिन अब फिर से एनटीपीसी योजना आयोग और सरकार के पास इसे शुरू कराने के लिए प्रयासरत है। इससे तो यही साबित होता है कि सरकार ने बांधों के काम को रोका है, छोड़ा नहीं है। टिहरी बांध पूरी तरह धंस गया है, जिससे काफी नुकसान हुआ, लेकिन इससे कोई सबक सीखने को तैयार हो, ऐसा लगता नहीं। सितंबर 1985 में गंगा को बचाने के लिए गंगा अथॉरिटी का गठन हुआ था और गंगा की सफाई के लिए अब तक करीब 3000 करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं, लेकिन रिपोर्ट बताती हैं कि गंगा के जल का प्रदूषण स्तर आज भी उतना ही है जितना पहले था। 22 सितंबर, 2008 को गंगा को राष्ट्रीय धरोहर घोषित करते हुए सरकार ने इसे राष्ट्रीय नदी की संज्ञा दी। 2020 तक गंगा को पूरी तरह साफ किए जाने के लिए 15 हजार करोड़ रुपये खर्च किए जाने हैं। अभियान को समग्रता देने के लिए सरकार ने गंगा अथॉरिटी की जगह अब नया नामकरण नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी (एनआरजीबीए) बनाया है, जिसके प्रमुख खुद प्रधानमंत्री हैं। यह एक नितांत अव्यावहारिक कदम है, क्योंकि प्रधानमंत्री के पास कई काम होते हैं और उन्हें इतना समय कभी नहीं होता कि वह इन कार्यो की निगरानी अथवा जानकारी कर सकें। इससे यही जाहिर होता है कि सरकार गंगा सफाई के नाम पर विश्व बैंक और सरकारी कोष से आने वाले पैसे के उपयोग के प्रति ईमानदार नहीं है। यदि ऐसा है तो बेहतर होगा कि पावन नदी गंगा की देखभाल और सफाई आदि के लिए किसी पूर्णकालिक आयोग का गठन किया जाए, जिसका कोई स्थायी उप प्रमुख अथवा सचिव हो, जो यथार्थ के धरातल पर इन कार्यो की सतत निगरानी कर सके। यदि ऐसा कुछ नहीं किया जाता है तो गंगा की सफाई के नाम पर एक और बड़ा घोटाला आने वाले समय में देश देखे तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। (लेखक मैग्सेसे पुरस्कार विजेता पर्यावरणविद हैं)
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