भूजल संरक्षण के लिए समय रहते चेतना जरूरी है। भूजल का अत्यधिक दोहन रोकने के लिए दिल्ली जल बोर्ड संशोधन अधिनियम 2011 को स्वीकृत प्रदान कर दी गई है। अधिनियम को स्वीकृति मिलने के बाद जल बोर्ड की स्वीकृति बिना भूजल नहीं निकाला जा सकेगा। निरंतर पानी की कमी से जूझते अपने देश में जल नियमन का कोई एकीकृत कानून नहीं है। वैसे जल उपयोग से जुड़े अंतरराज्यीय, अतंरराष्ट्रीय, संवैधानिक प्रावधान देश में कई बने और लागू हुए लेकिन भूजल दोहन और उपयोग संबंधी कोई एक कानून नहीं है। जो भी कानून हैं वह जल निकासी, जल शुल्क, प्रदूषण, वन पर्यावरण, भूमि जल संरक्षण से संबधित हैं। जल प्राप्ति के मूलत: दो स्रेत हैं- भूजल और सतह का जल। अधिकांश जलापूर्ति भूमिगत माध्यम द्वारा होती है। भूजल वह महत्वपूर्ण स्रेत है, जिसे जल का अनंत भंडार समझकर आमजन से लेकर सरकारी मशीनरी तक इसका इस कदर दोहन करती रही है कि आज देश के बड़े हिस्से में भूजल का स्तर लगातार नीचे जाने से न केवल जलसंकट पैदा हो गया है बल्कि पारिस्थितिकी तंत्र भी असंतुलित हो रहा है। देश में चालीस के दशक में प्रति व्यक्ति 5,277 घन मीटर जल उपलब्ध था जो अब घटकर 1869 घनमीटर से भी कम रह गया है। 1992 में सिंचाई आयोग की स्थापना के समय सतह के जल और भूजल में कोई भेद नहीं किया गया। तत्कालीन लक्ष्य था अधिक से अधिक सिंचित क्षेत्र का विस्तार। गौरतलब है कि पूरे देश के भूजल का अस्सी प्रतिशत उपयोग कृषि हेतु होता है और सब्सिडी पर मिलने वाली सस्ती बिजली के चलते कृषक उसका अंधाधुंध-दोहन कर ऐसे संकट को आमंत्रित कर रहे हैं, जिससे कालांतर में उबरना मुश्किल होगा। भूजल चूंकि सार्वजनिक संपत्ति घोषित नहीं है इसलिए निजी क्षेत्र में भी हजारों नलकूप और कुएं खोदे जा रहे हैं। पिछले 25 वर्षो में तीन चौथाई तालाब व दो तिहाई नाले खत्म हुए हैं और बरसाती नदियों की गहराई घटी है। फलत: भूगर्भ जल की रिचार्जिंग की संभावना घटी है। वन क्षेत्र सिकुड़ रहे हैं जिससे वर्षा जल के रिसाव में कमी आई है। विश्व बैंक की हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में जलस्तर निरंतर घट रहा है। 2020 में इसके 360 क्यूबिक किमी व 2050 में 100 क्यूबिक किमी रह जाने का अनुमान है। पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में पिछले छह वर्षो में 190 क्यूबिक किमी भूजल कम हुआ है। चूंकि जल राज्य का विषय है, इसलिए राज्यों को भूजल प्रबधंन पर ठोस कारवाई करने के लिए कदम उठाने चाहिए लेकिन इस दिशा में, कोई ठोस नीतियां नहीं बनी हैं। उल्टे केन्द्र की पहल पर 1970 और 1992 में वन मॉडल भूजल (नियमन एवं नियंत्रण) कानून पर राज्यों का यथोचित सहयोग नहीं मिला। केन्द्रीय भूजल प्राधिकरण के तहत भूजल बचाने हेतु दिए गए सुझावों पर भी राज्यों ने उचित प्रकार से अमल नहीं किया। ‘न्यू सांइटिस्ट’ पत्रिका के सव्रेके मुताबिक भारत के अधिकतकर भागों में एक करोड़ नब्बे लाख कुओं का जल स्तर घटता जा रहा है। भूजल वास्तव में वर्ष जल है जो भूमि में समाहित हो जाता है। चूंकि वार्षिक वर्षा में कमी आ रही है इसीलिए भूजल की भरपाई सीमित स्तर तक ही हो सकती है। वर्षाजल का देश में समुचित उपयोग और संरक्षण नहीं हो पाता। वर्षा और हिमपात से वर्षभर पानी की कुल उपलब्धता लगभग 40 करोड़ हेक्टेयर मीटर हो जाती है। इसमें से लगभग साढ़े 11 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी नदियों में बह जाता है। सात करोड़ हेक्टेयर मीटर जल वाष्प बन उड़ जाता है और लगभग 12 करोड़ हेक्टेयर मीटर को धरती सोख लेती है। ऐसे में दो ही रास्ते हैं- पहला वर्षा जल का ‘रुफ टॉप वाटर हाव्रेस्टिंग’
के माध्यम से जल संरक्षण करना और दूसरा जल स्रेतों के दोहन, पुनर्भरण और उपयोग के लिए कानूनी प्रावधान। कानून में जल दोहन और जल उपयोग के तौर-तरीके भी नियमबद्ध होने चाहिए।
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