Sunday, February 20, 2011

पोस्को को मिली हरी झंडी के खतरे


वन एवं पर्यावरण मंत्रालय का रिकॉर्ड बताता है कि पर्यावरणीय स्वीकृतियां देने के मामले में वह ज्यादा ही उदार रहा है। इस प्रक्रिया में पर्यावरणीय प्रभाव आकलन की तैयारी, जन- सुनवाई और मंत्रालय की विशेषज्ञ समिति द्वारा समीक्षा शामिल है। अधिकांश आकलन अधूरे, अशुद्ध या दोषपूर्ण होते हैं। ख्यात पर्यावरणविद माधव गाडगिल इसकी पुष्टि करते हैं कि अधिकांश प्रोजेक्ट प्रमोटर के दबाव में जल्दबाजी में स्वीकृत होते हैं
लवासा शहर के मामले में आलोचना किए जाने पर कृषिमंत्री शरद पवार पर्यावरण संरक्षकों पर बरस पड़े कि ये निहित स्वार्थीलोग इस अग्रगामी परियोजना के रास्ते में रोड़े अटका रहे हैं परंतु लवासा के साथ भयंकर अवैधानिकताएं और पर्यावरणीय विनाश जुड़ा है। प्रमोटरों ने धन-कुबेर समुदाय के लिए इसका निर्माण करने से पहले अनुमति तक नहीं ली जो एक हजार मीटर से ऊंचे स्थानों पर निर्माण करने से पहले लेना अनिवार्य है। विकास के नाम पर अछूते वष्रा वनों को बर्बाद और पहाड़ों को चपटा कर दिया गया। नदियों की धाराओं को मोड़ दिया गया और उस आदिवासी जमीन पर कब्जा कर लिया गया, कानून के अनुसार जिसका हस्तांतरण नहीं किया जा सकता था। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय का रिकॉर्ड प्रदर्शित करता है कि पर्यावरणीय स्वीकृतियां देने के मामले में यह ज्यादा ही उदार रहा है। इस प्रक्रिया में पर्यावरणीय प्रभाव आकलन की तैयारी, जन-सुनवाई और मंत्रालय की विशेषज्ञ समिति द्वारा समीक्षा शामिल है। अधिकांश आकलन अधूरे, अशुद्ध या दोषपूर्ण होते हैं। यह बात मैं 1990 के दशक में मंत्रालय की नदी घाटी परियोजना की विशेषज्ञ समिति के सदस्य होने के नाते अपने अनुभव से जानता हूं। ख्यात पर्यावरणविद माधव गाडगिल इसकी पुष्टि करते हैं कि आकलन लगभग निरपवादरूप से दोषपूर्णहोते हैं और अधिकांश प्रमोटर के दबाब में जल्दबाजी में स्वीकृत होते हैं। पिछले 18 महीनों में केवल चार क्षेत्रों में ही प्रति कार्यदिवस लगभग चार प्रस्ताव स्वीकृत हुए हैं। अगस्त 2009 और जुलाई 2010 के बीच 769 प्रस्ताव पेश किए गए थे जिनमें से केवल दो अस्वीकृत हुए। हां दामन पाक-साफ रखने के लिए कुछ शत्रेजरूर लगा दी जाती हैं परंतु वन एवं पर्यावरण मंत्रालय इनके अनुपालन पर नजर नहीं रख पाता है। पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश स्वीकार करते हैं कि पिछले दशक के दौरान, हमने लगभग सात हजार प्रोजेक्टों को स्वीकृति दी है। हरेक के साथ शत्रे और सुरक्षात्मक उपाय जुड़े थे लेकिन दुर्भाग्यवश हमारे पास अनुपालन पर नजर रखने की व्यवस्था नहीं है। अनेक शत्रे अस्पष्ट हैं और इनका संबंध परियोजना के बुनियादी दोषों से है ही नहीं। उदाहरण के लिए न्यूक्लियर पावर कारपोरेशन से जैतापुर न्यूक्लियर स्टेशन के आसपास की जैव विविधता के अध्ययन का आदेश देने से खतरे में पड़ी प्रजातियों या जैव विविधता को विनाश से नहीं बचाया जा सकता। शतरे से न्यूक्लियर पावर से जुड़ी बुनियादी समस्याएं भी हल नहीं होतीं, जिनमें विकिरण के जोखिम या खतरनाक कूड़ा-कचरे का सुरक्षापूर्वक निस्तारण भी नहीं किया जा सकता है। जयराम रमेश यह व्यवस्था सुधारने में असफल रहे हैं। शुरू- शुरू में उन्होंने कुछ पारदर्शिता जरूर अपनाई थी लेकिन पिछले एक साल से वह परियोजनाओं को हरी झंडी दिखाने में लगे हैं। जैसे नवी मुंबई हवाई अड्डा, उड़ीसा के नो गोक्षेत्रों में खनन, गुजरात के गिरनार वन विहार में रोप वे, आंध्र में पोलावरम बांध और उत्तराखंड में स्वर्णरेखा परियोजना। और इन सबके ऊपर आता है पोस्को का विराटकाय इस्पात कारखाना जिसका अपना बिजलीघर और उड़ीसा में नया बंदरगाह होगा। यह परियोजना मुख्य क्षेत्र में करीब 22,000 लोगों को विस्थापित और अन्य ढाई हजार को प्रभावित करेगी। 3,096 एकड़ वन भूमि लेकर यह एक फलती-फूलती खेती की अर्थव्यवस्था बर्बाद करेगी। यह महानदी डेल्टा का पानी पी ओलिव रिडले कछुओं और डॉल्फिन के प्रजनन स्थल में घुस जाएगी। इससे समुद्री तूफानों का खतरा बढ़ जाएगा। 2.8 लाख पेड़ काटे जाएंगे। इससे पहले से ही पानी के दबाव वाले इस क्षेत्र में पानी की गुणवत्ता और उपलब्धता कम हो जाएगी। जनता के स्वास्थ्य पर इसका प्रतिकूल असर पड़ेगा। अपनी समिति की सिफारिशें एक ओर करते हुए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने पोस्को को तीन मामलों में- पर्यावरण, वन और तटीय नियमन क्षेत्र- अनुमति पत्र दिए हैं। ऐसा कर वह अपने ही पिछले आदेशों के विरुद्ध गया है। दिसम्बर 2009 में जारी अनुमति-पत्र को उसने उचित ही निरस्त कर दिया था। अनुसूचित जनजातियों तथा वनों के अन्य परंपरागत निवासी (वन अधिकार पहचान) अधिनियम 2006 के अनुपालन की जांच पड़ताल करने तथा पोस्को से संबंधित विशेष मामलों पर पूर्व प्रशासनिक अधिकारी एनसी सक्सेना और मीना गुप्ता के अधीन दो कमेटियों का गठन किया गया था। उनकी रिपोटरे का अध्ययन वन मंत्रालय की वैधानिक वन सलाहकार समिति ने किया। तीनों की सिफारिश थी कि परियोजना को पर्यावरणीय अनुमति पत्र न दिया जाए। पर वन व पर्यावरण मंत्रालय ने इसे रद्द कर दिया। वन अनुमति-पत्र के मामले में तो मंत्रालय का दोष घृणास्पद हद तक था। वन अधिकार अधिनियम भारत के सबसे अच्छे कानूनों में एक है। यह वन भूमि का स्वामित्व आदिवादियों और उन्हें प्रदान करता है जो वहां 75 सालों से रह रहे हैं। यह अधिनियम वन भूमि को दूसरे कामों में लगाए जाने के विरुद्ध ग्रामसभा को वीटो का अधिकार देता है। सक्सेना और गुप्ता कमेटियों ने अंतिम रूप से कहा था कि प्रोजेक्ट एरिया में वन अधिकार अधिनियम पर अमल नहीं किया गया है और उड़ीसा सरकार ने ग्राम सभाओं से इस आशय के प्रमाण पत्र नहीं लिए हैं कि वे वन भूमि को अन्य उपयोग में लिए जाने से सहमत हैं। इस मामले में मंत्रालय ने 60 में से एक शर्त का चालाकी से इस्तेमाल किया कि उड़ीसा सरकार को यह स्पष्ट आासन देना चाहिए कि उस क्षेत्र में ऐसे कोई लोग नहीं बसते हैं जो वन अधिकार अधिनियम के अंतर्गत पात्र हैं। हालांकि थोड़े आदिवासियों सहित वहां 4,000 परिवार रहते हैं लेकिन राज्य सरकार पात्रता का निर्धारण नहीं कर सकती है। इसके लिए वन अधिकार अधिनियम गांव, तहसील, जिला स्तर पर तीन सोपानिक प्रक्रिया की मांग करता है। इसमें राज्य सरकार की कोई भूमिका नहीं है। उड़ीसा सरकार निष्पक्ष नहीं है। पोस्को प्रोजेक्ट के लिए उसने आम समर्थन जुटाने की कोशिश की है। वास्तव में वन व पर्यावरण के नियमों का उल्लंघन करते हुए इसने इसके लिए पिछली जुलाई से ही जमीन लेना शुरू कर दिया था जिसे रोकना पड़ा था। इसी आधार पर गुप्ता कमेटी ने राज्य सरकार के कदम को आपराधिक कहा और वन अनुमति-पत्र न देने की सिफारिश भी की थी। इस मामले में तटीय नियामक क्षेत्र संबंधी अनुमति-पत्र भी उतना ही हास्यास्पद है। प्रोजेक्ट के बड़े हिस्से नियामक क्षेत्र तीन के अंतर्गत आते हैं, जहां औद्योगिक गतिविधियों पर प्रतिबंध है। नए बंदरगाह के निर्माण से तटीय पारिस्थितिकी का विनाश होगा और पाराद्वीप बंदरगाह पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। इस चक्रवात प्रवृत्त क्षेत्र में इस प्रकार के नुकसान के गंभीर परिणाम होंगे। इस मामले में भी वन व पर्यावरण मंत्रालय ने गुप्ता कमेटी की सिफारिश को रद्दी की टोकरी में डाल दिया। प्रोजेक्ट फलती-फूलती कृषि अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में है। पान के पत्ते की खेती से लोग एक एकड़ के सौवें हिस्से से 40,000 तक कमा सकते हैं। प्रोजेक्ट से प्रत्यक्ष रूप से केवल 7,000 रोजगार पैदा होंगे जिनमें ज्यादातर स्थानीय लोगों को नहीं मिलेंगे क्योंकि उनके पास तकनीकी कौशल नहीं है। प्रोजेक्ट की चपेट में आने वाले इलाके के लोग इस बात को समझते हैं और पिछले पांच सालों से पोस्को के खिलाफ मजबूती के साथ शांतिपूर्ण संघर्ष चला रहे हैं। इसको कुचलने के लिए सरकार ने जिन निर्मम उपायों का इस्तेमाल किया है, उनमें पोस्को प्रतिरोध संघर्ष समिति के कार्यकर्ताओं के खिलाफ झूठे आरोप लगाना, नवम्बर 2010 में उन पर हमला करवाना, मई 2010 में गोली चलवाना, जिसमें 200 से अधिक लोग घायल हुए थे, और संघर्ष समिति के नेता अभय साहू के खिलाफ 44 मामले लगाए जाना शामिल है। पोस्को को इजाजत इसलिए दी गई है कि भारत में यह प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का सबसे बड़ा प्रोजेक्ट है और इसके लिए दक्षिण कोरिया सरकार ने जी-तोड़ समर्थन जुटाया है। ऐसी चीजें कानून के राज की इज्जत करने वाले जनतंत्र में नहीं होतीं। ये ऐसे देशों में होती है जो जीविकाओं और पर्यावरण को बचाने के स्थान पर अधिक महत्व निवेशक के भरोसेऔर बाजार की भावनाको देते हैं।


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