आस्ट्रेलिया के समीप पापुआ न्यूगिनी का एक द्वीप कार्टरेट्स इतिहास बनने जा रहा है समुद्र में हमेशा के लिए डूबकर। पर्यावरणीय हृास का पहला शिकार। इस द्वीप की पूरी आबादी विश्व में ऐसा पहला समुदाय बन गयी है, जिसे वैश्विक तापन की वजह से विस्थापित होना पड़ा रहा है। समुद्र की उफनती लहरों ने यहां के बाशिंदों की फसलें बर्बाद कर दी हैं और स्वच्छ जल के स्रेतों को जहरीला बना दिया है। कार्टरेट्स द्वीप के निवासी इस तरह की विभीषिका के पहले शिकार हैं। यहां से 2000 की मानव जनसंख्या को तो सुरक्षित निकाल लिया गया है पर द्वीप के बाकी जीवों और वनस्पतियों की प्रजातियों की जल समाधि तय मानी जा रही है। ऑस्ट्रेलिया के नेशनल टाइड फैसिलिटी सेंटर के अनुसार इन द्वीपों के आसपास समुद्र के जलस्तर में प्रतिवर्ष 82 मिलीमीटर की वृद्धि हो रही है। अरब सागर में आबाद 12 सौ लघुद्वीपों वाला मालदीव भी इस शताब्दी के अंत तक समुद्र के गर्भ में समाने की ओर अग्रसर है। पिछली एक शताब्दी में पृथ्वी और समुद्र की सतह के तापमान में औसतन आधा डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो चुकी है। औद्योगीकरण और तीव्र विकास के नये-नये मॉडलों को अपनाने की अंधी दौड़ में प्रकृति को विनाश के गर्त में ढकेलने के बाद अब आभास हो रहा है कि अगर औद्योगिकीकरण और विकास की इस गति को न रोका गया तो शीघ्र ही पृथ्वी मानव सहित सभी प्राणियों और वनस्पतियों के लिए अयोग्य हो जाएगी। पर्यावरणीय हृास की यह समस्या मुख्यत: उपभोक्तावादी विकास के औद्योगीकरण वाले मॉडल की वजह से है। प्रारम्भ में इसे मानव के सामाजिक-आर्थिक अधिकारों की पूर्ति के स्रेत के रूप में देखा गया। शुरुआती दौर में ऐसा होता दिखा भी। लोग अनुबंध के लिए स्वतंत्र हुए, आम आदमी जिन वस्तुओं को पाने की कल्पना भी नहीं कर सकता था औद्योगीकरण ने उसे वह पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध कराया। उत्पादन के साथ पूंजी-प्रसार ने लोगों की आय और खरीदारी की क्षमता में वृद्धि की। किन्तु यह प्रक्रिया अनेक विषमताओं से भरी रही और इसने समाज में अमीर-गरीब के बीच की खाई अधिक चौड़ी कर दी। औद्योगीकरण के कारण धरती के संसाधनों विशेषकर जीवाश्म ईंधन (यथा-कोयला व पेट्रोलियम पदाथोर्ं) का उपयोग काफी बढ़ गया है। एक अनुमान के मुताबिक प्रतिवर्ष लगभग चार अरब टन जीवाश्म ईंधन जलाये जा रहे हैं, जिससे लगभग 0.4 प्रतिशत कार्बनडाईआक्साइड की वृद्धि हो रही है। आज से लगभग सौ वर्ष पूर्व वायुमंडल में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा 275 पीपीएम (पार्ट्स पर मिलियन) थी जो 350 पीपीएम के स्तर पर पहुंच चुकी है। 2035 तक इसके 450 पीपीएम तक पहुंच जाने का अनुमान है। औद्योगीकरण से पूर्व मीथेन की मात्रा 715 पीपीबी (पार्ट्स पर बिलियन) थी जो 2005 में बढ़कर 1734 पीपीबी हो गयी। मीथेन की मात्रा में वृद्धि के लिए कृषि व जीवाश्म ईंधन उत्तरदायी माना गया है। उपयरुक्त वषों में नाइट्रस आक्साइड की सांद्रता क्रमश: 270 पीपीबी से बढ़कर 319 पीपीबी हो गई है। बढ़ते सांदण्रसे पिछले सौ वषों में वायुमंडल के ताप में 0.6 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि दर्ज की गयी है जिससे समुद्र के जल स्तर में कई इंच वृद्धि हो चुकी है। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के मार्कन्यु के नेतृत्व में वैज्ञानिकों के एक अंतरराष्ट्रीय दल ने नवम्बर 2010 में जारी अध्ययन रिपोर्ट में 2060 तक दुनिया के तापमान में चार डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि का अनुमान किया है। पृथ्वी के तापमान में वर्तमान से मात्र 3.6 सेल्सियस तक की वृद्धि से ही ध्रुवों की बर्फ पिघलने लगेगी जिससे समुद्र के जलस्तर में एक से बारह फीट तक बढ़ोतरी हो सकती है। इसके फलस्वरूप तटीय नगर यथा मुम्बई, न्यूयार्क, पेरिस, लंदन, रियो डि जनेरियो एवं मालद्वीव, हालैंड व बांग्लादेश के अधिकांश भूखंड समुद्र में समा जाएंगे। कुल मिलाकर पर्यावरणीय हृास से न सिर्फ मानव बल्कि पृथ्वी पर बसने वाले अन्य जीव-जन्तुओं व वनस्पतियों का भी अधिकार छिनता दिख रहा है। विकास के इस मॉडल से पर्यावरण की अपूर्णनीय क्षति हो रही है। विज्ञान और तकनीक की प्रगति और औद्योगिक क्रांति जो एक समय मानवाधिकारों की उपलब्धि कराने वाले सबसे बड़े स्रेत या माध्यम माने गऐ थे, छलावा साबित हो रहे हैं। सवाल यह भी उठ रहा है कि इस विकास और समृद्धि से जिन मानवाधिकारों की र्चचा की जा रही है वे किनके मानवाधिकार हैं। भावी पीढ़ी को हम क्या सौंपने जा रहे हैं- ग्लेशियरों के पिघलने से जलमग्न धरती या ग्रीन हाउस गैसों से शुक्र ग्रह की भांति तप्त और जीवन के लिए हर तरह से अनुपयुक्त पृथ्वी नामक ग्रह। शायद इसीलिए सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रोफेसर स्टीफन हॉकिंग यह चेताने पर मजबूर हो गए कि ‘अगर आने वाले 200 वषों के भीतर हम अंतरिक्ष में किसी और जगह अपना ठिकाना नहीं बना लेते तो मानव प्रजाति हमेशा के लिए लुप्त हो जाएगी।’
अंतत: सारा विमर्श इस पर केंद्रित होता है कि इस समस्या का समाधान कैसे हो? इसके लिए सोच, संस्कृति, जीवनशैली, विकास-योजनाएं सबमें एक साथ बदलाव की जरूरत है। कोई भी विकास इन सब आयामों में बदलाव लाए बिना टिकाऊ नहीं हो सकता। दुनिया भर की सरकारों और जनता को मिलकर प्रयास करना होगा। समय आ गया है सीख लेने और सचेत होने का।
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