वन क्षेत्रों में जनजातीय आबादी की परेशानी का सबब बनने वाले वन कानून को सरकार अब बदलने की तैयारी कर रही है। आजादी से पहले के इस कानून में सुधार की सुध लेते हुए केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने संशोधन का एक प्रस्ताव केंद्रीय कानून मंत्रालय को भेजा है। सब कुछ ठीक चला तो भारतीय वन कानून 1927 में संशोधन संसद के आगामी सत्र में पेश कर दिया जाएगा। केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के अनुसार सरकार की मंशा इस कानून को अधिक मानवीय बनाने की है ताकि आदिवासियों के खिलाफ मामलों का बोझ कम किया जा सके। इस संबंध में केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्री कांतिलाल भूरिया का कहना था कि कानूनी खामियों के कारण कई बार आदिवासियों को झाड़ू बनाने के लिए कुछ पत्ते तोड़ने और शहद जमा करने के लिए थोड़ा धुंआ करने पर भी तीन महीने की सजा भुगतनी पड़ती है। उनके मुताबिक इस तरह के मामले नक्सल हिंसा को सींचने में भी मददगार बनते हैं। जनजातीय इलाकों में वन प्रबंधन की व्यवस्था दुरुस्त बनाने के लिए वन अधिकार कानून में सुधार के लिए गठित एनसी सक्सेना समिति ने भी अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। बीस सदस्यों वाली इस समिति ने 17 राज्यों का दौरा कर देश में वन अधिकार कानून के क्रियान्वयन की समीक्षा की। समिति ने 2006 में लागू वन अधिकार कानून के खराब क्रियान्वयन का हवाला देते हुए इस दिशा में कई सुधार करने की सिफारिश की है। रिपोर्ट प्राप्त करने के बाद केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा कि सरकार की योजना देश में वन प्रबंधन तीन स्तरीय बनाने की है। इसके तहत देश की सात करोड़ हैक्टेयर वन भूमि के प्रबंधन में सरकार के अलावा सामुदायिक जिम्मेदारियों को भी जगह दी जाएगी। रमेश ने कहा कि देश का 60 फीसदी वन क्षेत्र 180 जिलों में स्थित है और करीब 25 करोड़ लोग अपनी आजीविका के लिए जंगलों पर निर्भर हैं।
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Friday, January 7, 2011
27 साल से मैला ही रहा यमुना का आंचल!
यमुना का मैलापन दूर करने की मुहिम में 27 साल बीत गए, पर नदी का आंचल आज तक साफ नहीं हो पाया। हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश की सरकारों के सहयोग से चलाई जा रही इस मुहिम पर केंद्र सरकार 841 करोड़ 88 लाख रुपये खर्च कर चुकी है। ज्यादातर धनराशि जापान सरकार से ब्याज पर ली गई है। यमुना एक्शन प्लान के दो चरणों के बावजूद अब यमुना में न केवल अमोनिया की मात्रा बढ़ गई है, बल्कि अन्य घातक रसायन भी पानी में जहर घोल रहे हैं। लोगों में जागरूकता के अभाव को इसका सबसे बड़ा कारण माना जा रहा है। यमुना के मैलेपन से चिंतित केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को आखिरकार यमुना के रखवाले राज्यों को पत्र लिखकर अपने आक्त्रोश का इजहार करना पड़ा है। इसकी शुरुआत उन्होंने हरियाणा को पत्र लिखकर की है। यमुना नदी हरियाणा के छह और उत्तर प्रदेश के आठ जिलों तथा दिल्ली से होकर बहती है। जयराम रमेश की नाराजगी के बाद यमुना से घिरे तीनों राज्यों की बढ़ी जिम्मेदारी से अब इनकार नहीं किया जा सकता है। दरअसल, यमुना के प्रदूषण को खत्म करने और पानी में सुधार के लिए अप्रैल 1993 में यमुना एक्शन प्लान आरंभ किया गया था। फरवरी 2003 तक चले इस प्लान के तहत हरियाणा के यमुनानगर-जगाधरी, करनाल, पलवल, पानीपत, रादौर, सोनीपत, गोहाना, गुड़गांव और इंद्री में सीवरेज ट्रीटमेंट लगाए गए। पहले चरण में सभी राज्यों के लिए 705.50 करोड़ रुपये स्वीकृत किए गए, जिसमें से 595.86 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। यमुना एक्शन प्लान का दूसरा चरण दिसंबर 2004 में आरंभ हुआ, जो अब भी जारी है। इसके तहत 647.86 करोड़ रुपये स्वीकृत किए गए, जिसमें से 284.76 करोड़ रुपये जारी हुए और 246.02 करोड़ रुपये का इस्तेमाल हो चुका है। हरियाणा में जनस्वास्थ्य एवं अभियांत्रिकी विभाग, उत्तर प्रदेश में उत्तर प्रदेश जल बोर्ड तथा दिल्ली में दिल्ली जल निगम के सहयोग से यह प्लान संचालित किए गए हैं। नेशनल यूथ अफेयर आर्गेनाइजेश के अध्यक्ष रणबीर बतान की मानें तो यमुना एक्शन प्लान इसलिए कामयाब नहीं हो पाया, क्योंकि इसे लागू करने से पहले आम लोगों को विश्र्वास में नहीं लिया गया। रणबीर बतान यमुना एक्शन प्लान के लिए भी काम कर चुके हैं। उनके अनुसार सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट के सीवर-पाइप छोटे रखे गए, जबकि पानी का बहाव अधिक था। लोगों ने पालीथीन भी सीवरेज में डालनी आरंभ कर दी। राज्यों में औद्योगिक फैक्टरियों पर भी कड़ा अंकुश नहीं लग पाया। उन्होंने दावा किया कि विभिन्न राज्यों के ज्यादातर सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट अभी भी खराब पड़े हैं।
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