Friday, January 7, 2011

वन कानून का चेहरा बदलने की कवायद, प्रस्ताव अगले सत्र में

वन क्षेत्रों में जनजातीय आबादी की परेशानी का सबब बनने वाले वन कानून को सरकार अब बदलने की तैयारी कर रही है। आजादी से पहले के इस कानून में सुधार की सुध लेते हुए केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने संशोधन का एक प्रस्ताव केंद्रीय कानून मंत्रालय को भेजा है। सब कुछ ठीक चला तो भारतीय वन कानून 1927 में संशोधन संसद के आगामी सत्र में पेश कर दिया जाएगा। केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के अनुसार सरकार की मंशा इस कानून को अधिक मानवीय बनाने की है ताकि आदिवासियों के खिलाफ मामलों का बोझ कम किया जा सके। इस संबंध में केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्री कांतिलाल भूरिया का कहना था कि कानूनी खामियों के कारण कई बार आदिवासियों को झाड़ू बनाने के लिए कुछ पत्ते तोड़ने और शहद जमा करने के लिए थोड़ा धुंआ करने पर भी तीन महीने की सजा भुगतनी पड़ती है। उनके मुताबिक इस तरह के मामले नक्सल हिंसा को सींचने में भी मददगार बनते हैं। जनजातीय इलाकों में वन प्रबंधन की व्यवस्था दुरुस्त बनाने के लिए वन अधिकार कानून में सुधार के लिए गठित एनसी सक्सेना समिति ने भी अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। बीस सदस्यों वाली इस समिति ने 17 राज्यों का दौरा कर देश में वन अधिकार कानून के क्रियान्वयन की समीक्षा की। समिति ने 2006 में लागू वन अधिकार कानून के खराब क्रियान्वयन का हवाला देते हुए इस दिशा में कई सुधार करने की सिफारिश की है। रिपोर्ट प्राप्त करने के बाद केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा कि सरकार की योजना देश में वन प्रबंधन तीन स्तरीय बनाने की है। इसके तहत देश की सात करोड़ हैक्टेयर वन भूमि के प्रबंधन में सरकार के अलावा सामुदायिक जिम्मेदारियों को भी जगह दी जाएगी। रमेश ने कहा कि देश का 60 फीसदी वन क्षेत्र 180 जिलों में स्थित है और करीब 25 करोड़ लोग अपनी आजीविका के लिए जंगलों पर निर्भर हैं।

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