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Tuesday, April 5, 2011

बड़े भूकंप की दस्तक हैं ताजा झटके!


 महज आठ दिन में अस्सी से ज्यादा भूकंप के झटके! एशिया महाद्वीप की धरती में लगातार हो रहा कंपन भूगर्भ में किसी बड़ी करवट की चेतावनी दे रहा है। भूगर्भ विज्ञानियों को चिंता सताने लगी है कि भारतीय प्लेट में लगातार हो रहे कंपन और 5.7 तीव्रता का ताजा झटका भारत की जमीन पर किसी बड़े जलजले का पूर्व संकेत हो सकता है। दरअसल बीते चार दिनों में ही तीन बड़े झटके भारत में महसूस किये गए हैं। केंद्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि भारत-नेपाल सीमा पर आए ताजा भूकंप से पहले दो अप्रैल को कश्मीर जिनजियांग सीमा क्षेत्र में 4.9 और एक अप्रैल को हिंदुकुश क्षेत्र में 5.2 का भूकंप दर्ज किया गया है। राजधानी दिल्ली से काफी नजदीक भारतीय प्लेट की उत्तरी सीमा में इतने कम अंतराल में लगातार हो रहा कंपन इस इलाके में बड़े भूकंप की चेतावनी हो सकता है। सोमवार को भारत-नेपाल सीमा पर दर्ज भूकंप का क्षेत्र उसी इलाके में है जहां कई फाल्ट लाइनों का भी जाल है। भारतीय मौसम विभाग के पूर्व महानिदेशक एसके श्रीवास्तव कहते हैं कि ताजा भूकंप भारतीय प्लेट की सक्रियता बताते हैं। साथ ही उनके मुताबिक यह सारे संकेत बताते हैं कि दिल्ली से केवल 160 किमी दूर भारतीय प्लेट की उत्तरी सीमा में एक बड़ा जलजला पक रहा है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के लिए सलाहकार की भी भूमिका निभा रहे श्रीवास्तव कहते हैं कि राजधानी दिल्ली क्षेत्र में बीते सौ सालों में कोई भूकंप नहीं आया है और भारतीय प्लेट में गति के कारण लगातार बढ़ रहा तनाव बड़े जलजले के लिए स्थिति बना रहा है। गौरतलब है कि गत सौ सालों में दिल्ली से उत्तर और उत्तर पूर्व होते हुए अंडमान क्षेत्र तक फैली भारतीय प्लेट में आठ से अधिक तीव्रता के भूकंप दर्ज किए जा चुके हैं। वहीं जानकारों के अनुसार यदि दिल्ली में रिक्टर स्केल पर सात का कंपन दर्ज हुआ तो उसकी तीव्रता सोमवार को महसूस किए गए झटकों से एक लाख गुना अधिक होगी। उल्लेखनीय है कि भूकंप संवेदी सिस्मिक जोन (खतरनाक क्षेत्र) चार में स्थित दिल्ली की तैयारियों पर लगातार सवाल उठते रहे हैं। खासकर अक्षरधाम से लेकर राष्ट्रमंडल खेल गांव निर्माण और पूर्वी दिल्ली के कई इलाकों में नियमों की अनदेखी कर हुए अंधाधुंध निर्माण के खतरे पर चिंता जताई जाती रही है। एसके श्रीवास्तव आगाह करते हैं कि यदि दिल्ली में सात से अधिक तीव्रता का भूकंप आया तो राजधानी दिल्ली के अधिकतम ढांचों पर उसका गंभीर असर पड़ सकती है|

सक्रिय प्रयास की दरकार


भारतीय जनमानस वैसे तो प्रकृति के सभी तत्वों के प्रति संवेदनशील है। पेड़ और पशु से लेकर पहाड़ तक यहां पूजे जाते हैं और यही कारण है कि कई दूसरे विकासशील और विकसित देशों की तुलना में हमारे यहां प्रकृति ज्यादा सुरक्षित और संरक्षित है। भारत में अभी भी लोग दिन ढलने के बाद फूल-पत्ते तोड़ने, आवारा कहे जाने वाले पशुओं को कष्ट देने और अपवित्र स्थिति में पावन नदियों में प्रवेश से बचते हैं। इनमें भी नदियों की स्थिति सबसे अलग और महत्वपूर्ण है। गंगा को पतित पावनी कहा गया है और जहां गंगा नहीं है, वहां वे सभी नदियां जो किसी न किसी तरह गंगा में आ मिलती हैं, गंगा की ही तरह पूज्य और पवित्र मानी जाती हैं। जाति-धर्म, संप्रदाय या विचारधारा आदि की सीमाओं से ऊपर पूरा भारत गंगा के प्रति आस्था और प्यार से भरा हुआ है। यमुना सिर्फ गंगा में मिलती ही नहीं है, इसके तट कृष्ण की बाल लीलाओं के साक्षी रहे हैं। पुराणों में सूर्य की पुत्री और यम की बहन के रूप में वर्णित होने के कारण भी यमुना का अलग स्थान है। इसके बावजूद यह एक दुखद सत्य है कि आज प्रदूषण के दानव से जो नदियां सबसे ज्यादा दुष्प्रभावित हुई हैं, वे यमुना और गंगा ही हैं। हालांकि यमुना और गंगा दोनों ही पवित्र नदियों की स्वच्छता के लिए बड़े अभियान बनाए और चलाए जा चुके हैं। आंकड़ों पर भरोसा करें तो इन पर अरबों रुपये खर्च भी किए जा चुके हैं। हालांकि यह खर्च कहां और कैसे किया गया, इसकी स्पष्ट जानकारी कहीं किसी को भी नहीं है। क्योंकि इस सच से कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि खर्च का असर कहीं दिखाई नहीं देता है। जाहिर है, इस मामले में भी वैसा ही हुआ जैसा ज्यादातर सरकारी परियोजनाओं के मामले में होता है। सरकारी अफसरों और कर्मचारियों का जोर गंगा या यमुना की सफाई के बजाय कागज का पेट भरने पर ज्यादा रहा। जिसका नतीजा यह रहा कि इस मद में निकाला गया धन तो साफ हो गया, लेकिन नदियों की गंदगी सिर्फ बढ़ती ही चली गई है। इन नदियों की सफाई को लेकर कई जनांदोलन भी चलाए गए हैं। हालांकि आंदोलनों में आम जनता की अत्यंत सीमित भागीदारी के कारण सरकार या संबंधित एजेंसियों पर इनका कोई खास दबाव बन नहीं सका। शायद इसका ही नतीजा है कि नदियों की सफाई पर भी इनका कोई खास असर दिखाई नहीं देता है। नदियों की गंदगी साफ न हो पाने का एक बड़ा कारण यह भी है कि इनकी सफाई के लिए जितने भी प्रयास किए जाते हैं, गंदगी हर दिन उससे बहुत ज्यादा डाल दी जाती है। जाहिर है, अगर गति यही बनी रही तो शायद इनकी सफाई का सपना सिर्फ सपना ही बना रह जाएगा। इधर एक अच्छी बात यह हुई है कि यमुना की सफाई के लिए प्रयास का बीड़ा संतों ने उठा लिया है। संतों ने यमुना यात्रा निकाली है। यह यात्रा गत मार्च को ही शुरू हो चुकी है। इलाहाबाद के संगम से चली इस यात्रा में साधु-संतों के अलावा हजारों की तादाद में किसान भी शामिल हैं। यह यात्रा इलाहाबाद से चलकर बीते शनिवार को आगरा पहुंच चुकी थी। अगले दिन यह आगरा से मथुरा होते हुए दिल्ली के लिए कूच कर चुकी है। इस यात्रा के दौरान संतों ने विभिन्न पड़ावों पर महापंचायतें आयोजित करके संघर्ष छेड़ने का आह्वान किया है। कई जगह महापंचायतों में यमुना की सफाई के लिए निर्णायक संघर्ष छेड़ने का संकल्प लिया गया है। इन महापंचायतों में संत और किसान ही नहीं, समाज के सभी वर्गो के लोग शामिल हुए हैं। जाहिर है, यमुना-गंगा या किसी भी नदी का सूखना या गंदा होना किसी एक वर्ग की नहीं, बल्कि पूरे समाज और मानवता के लिए गंभीर चिंता का विषय है। इस बात को कहीं न कहीं हमारे समाज का हर वर्ग महसूस भी कर रहा है। अब संतों ने इसके लिए कमर कस ली है, तो इसे हलके ढंग से नहीं लिया जाना चाहिए। अगर भारत के इतिहास पर गौर करें तो हम पाते हैं कि यहां जनमानस पर संतों का बहुत व्यापक और गहरा असर रहा है। संतों का यह असर हमारी परंपरा का हिस्सा है। प्राचीन काल में ऋषियों-मुनियों का आम जनता से लेकर सम्राटों तक पर कैसा प्रभाव रहा है, इसका वर्णन हम पुराणों और साहित्यिक ग्रंथों में देख सकते हैं। सामाजिक परिवर्तन में इनकी भूमिका कितनी महत्वपूर्ण रही है, इसके जीवंत उदाहरण भगवान महावीर और भगवान बुद्ध हैं। मध्यकाल में कबीर, दादू, रैदास से लेकर सूर और तुलसी तक की भूमिका देखी जा सकती है। भारतीय समाज पर संतों का गहरा प्रभाव शायद इसीलिए है कि अन्य वर्गो की तुलना में इसके प्रति आम जनता का विश्वास अभी भी बहुत हद तक कायम है। व्यापक जनहित के प्रति इनके समर्पण पर लोग आम तौर पर संदेह नहीं करते, क्योंकि इनका अपना कोई प्रत्यक्ष स्वार्थ नहीं है। जाहिर है, जनता को जागरूक करने और नदियों के प्रति लोगों में व्याप्त रूढि़यों को वैज्ञानिक समझ में बदलने में ये प्रभावी भूमिका निभा सकते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकारी तंत्र की संवेदनहीनता हमारे प्राकृतिक संसाधनों की बर्बादी के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। इसके बावजूद खुद आम जनता भी अपनी जिम्मेदारी से पल्लू नहीं झाड़ सकती है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि वैज्ञानिकता के इस दौर में भी हमारे देश के पढ़-लिखे लोग भी रूढि़यों से बहुत ज्यादा बंधे हुए हैं। नदियों-नालों में पॉलीथिन सरकार नहीं फेंकती है, हम फेंकते हैं। दुनिया भर का कचरा और औद्योगिक रसायनों का उत्प्रवाह भी सरकार नहीं, उद्योगों द्वारा डाला जाता है और उद्योग चलाने वाले लोग भी आम जनता से अलग नहीं हैं। हम गंगा और यमुना की पूजा करके या उनमें डुबकी लगाकर अपने पाप धोने और पुण्यलाभ की कामना तो करते हैं, लेकिन उनमें पॉलीथिन और विभिन्न प्रकार की गंदगी डालने जैसा जघन्य अपराध करने में भी हिचकिचाते नहीं हैं। आखिर यह पुण्यलाभ का कौन सा तरीका है और क्या नदियों की गंदगी का यह एक महत्वपूर्ण कारण नहीं है? सच तो यह है कि यमुना या किसी भी नदी की सफाई के लिए सबसे उम्दा तरीका ही यह है कि इस निमित्त संघर्ष छेड़ने के साथ-साथ जनता को भी जागरूक किया जाए और सक्रिय प्रयास भी किए जाएं। इस मामले में पंजाब के संत बाबा बलबीर सिंह सींचेवाल एक जीवंत उदाहरण हैं। उन्होंने 165 किमी लंबी बेई नदी की सफाई के लिए स्वयं अभियान चलाया और आम जनता के सहयोग से काफी हद तक उन्होंने यह काम कर भी डाला। अभी भी वे इस काम में प्राणप्रण से लगे हुए हैं और उनके प्रयास की गंभीरता को देखते हुए आम जनता के अलावा सरकार के लोग भी उनसे खुद ब खुद जुड़ते जा रहे हैं। इस यात्रा पर निकले संतों को भी चाहिए कि सरकार पर दबाव बनाने के साथ-साथ यमुना की सफाई के लिए आम जनता को भी प्रेरित करें। चूंकि वे लोगों से सीधा संपर्क कर रहे हैं और दूसरे किसी भी वर्ग की तुलना में उनका असर समाज पर अधिक है, लिहाजा इसमें कोई दो राय नहीं है कि वे यह काम कर सकते हैं। (लेखक दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं)

रेडियोधर्मी रिसाव का पता लगाने में जुटे वैज्ञानिक


फुकुशिमा परमाणु संयंत्र से रेडियोधर्मी रिसाव की समस्या से जूझ रहे जापानी इंजीनियरों ने सोमवार को डाई (रंजक) का इस्तेमाल कर रिसाव के स्रोत का पता लगाने की कोशिश की। संयंत्र का संचालन करने वाली टोक्यो इलेक्टि्रक पॉवर कंपनी (टेपको) ने घोषणा की है कि संयंत्र से 11,500 टन दूषित पानी समुद्र में छोड़े जाने की योजना है। जापानी समाचार एजेंसी क्योदो के मुताबिक टेपको ने 13 किलोग्राम सफेद डाई एक भूमिगत गर्त में डाली है, ताकि प्रशांत महासागर में हो रहे रेडियोधर्मी रिसाव के स्रोत का पता लगाया जा सके। टेपको अधिकारियों का कहना है कि रेडियोधर्मी पानी संयंत्र के दूसरे रिएक्टर की टर्बाइन इमारत के बेसमेंट और इससे जुडे़ सुरंगनुमा गर्त में भर गया है। गर्त में डाई डालने का कदम दूसरे रिएक्टर के क्षतिग्रस्त हिस्से की मरम्मत करने में सफलता मिलने के बाद उठाया गया। सफेद डाई स्थानीय समयानुसार सुबह 7.30 बजे गर्त में छोड़ी गई। टेपको उस प्रभावित इलाके के आस-पास बाड़ लगाने पर विचार कर रही है, जहां से रेडियोधर्मी रिसाव की संभावना जताई जा रही है। सरकारी प्रवक्ता यूकियो इदेनो ने भी इसकी पुष्टि करते हुए कहा कि यही एकमात्र विकल्प है। भूकंप और सुनामी से क्षतिग्रस्त परमाणु संयंत्र को विशेषज्ञ पिछले तीन हफ्ते से नियंत्रित करने का प्रयास कर रहे हैं। इंडोनेशिया में भूकंप और सुनामी की चेतावनी : इंडोनेशिया के जावा द्वीप के दक्षिणी हिस्से में सोमवार तड़के भूकम्प आने के बाद जारी की गई सुनामी की चेतावनी वापस ले ली गई है। रिक्टर पैमाने पर 7.1 की तीव्रता वाले भूकम्प के बाद यह चेतावनी जारी की गई थी। वेबसाइट बीबीसी डॉट को डॉट यूके के अनुसार इंडोनेशिया की मौसम विज्ञान एवं भूभौतिकी एजेंसी (बीएमकेजी) ने सुनामी की चेतावनी को वापस ले लिया है। भूकंप का मुख्य केंद्र सिलाकैप से लगभग 300 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में 10 किलोमीटर की गहराई पर केंद्रित था। इंडोनेशियाई रेडियो के मुताबिक भूकंप के बाद हजारों लोग अपने घरों से बाहर निकल आए और उंचे स्थानों पर शरण लेने के प्रयास में इधर-उधर भागने लगे|

यूपी में पर्यावरण पर नजर रखेगा निगरानी दस्ता


देर से सही, पर्यावरण निदेशालय को अधिकार मिल ही गए। राज्य सरकार ने पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (1986) के तहत निदेशालय को यह अधिकार दे दिया है कि वह न केवल औचक जांच कराएगा बल्कि अधिनियम के तहत कार्रवाई के लिए प्रमुख सचिव पर्यावरण को संस्तुति भी भेजेगा। यही नहीं जिलाधिकारियों की यह जिम्मेदारी होगी कि पर्यावरण एक्ट के दोषियों पर कार्रवाई कर निदेशालय को अवगत कराएं। पर्यावरण संरक्षण एक्ट के तहत नमूनों को एकत्र करने व उनकी कोडिंग कर अधिकृत प्रयोगशाला को जांच के लिए भेजने की जिम्मेदारी निदेशालय की होगी। नमूने एकत्र करने का काम निगरानी दस्ते का होगा। प्रमुख सचिव पर्यावरण आलोक रंजन के 23 मार्च को जारी शासनादेश के अनुसार पर्यावरण संरक्षण एक्ट के तहत जो भी प्रदूषण संबंधी जो भी शिकायतें प्राप्त होंगी उनकी जांच निगरानी दस्ते के माध्यम से कराई जाएगी। 1986 में बनाए गए पर्यावरण संरक्षण एक्ट को अब शासनादेश से नई धार मिलेगी। बीते 25 वर्षो से अधिनियम को प्रभावी रूप से लागू कराने में राज्य सरकार फिलहाल अब तक विफल रही थी। कारण यह था कि पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के क्रियान्वयन के लिए प्रक्रिया स्पष्ट नहीं थी। अधिनियम तो बना दिए गए थे परंतु पर्यावरण निदेशालय की भूमिका स्पष्ट नहीं थी। इसके चलते प्रदेश में बायोमेडिकल वेस्ट, नगरीय ठोस कचरा, औद्योगिक प्रदूषण, पॉलीथिन अधिनियम, ध्वनि प्रदूषण, हैजार्डस वेस्ट जैसे दर्जनभर अधिनियमों को प्रभावी रूप से लागू नहीं कराया जा पा रहा था। निगरानी दस्ते में राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड व पर्यावरण विभाग के अधिकारी शामिल होंगे। खास बात यह है कि जिस क्षेत्र की शिकायत होगी उस क्षेत्र के अधिकारी निगरानी दस्ते का हिस्सा नहीं होंगे। पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के अंतर्गत कार्यो की समीक्षा पर्यावरण निदेशालय द्वारा की जाएगी और समय-समय पर प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से परामर्श कर नीति संबंधी प्रस्ताव शासन को भेजे जाएंगे। माना जा रहा है कि अब तक मूकदर्शक बना निदेशालय पर्यावरण अधिनियम को धार दे पाएगा|

दिल्ली में प्लास्टिक थैलियों पर पूर्ण प्रतिबंध


 दिल्ली में प्लास्टिक थैलियों के उपयोग पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया है। दिल्ली मंत्रिमंडल में आए इस प्रस्ताव को एक मत से मंजूर कर लिया गया है। प्रतिबंध प्लास्टिक थैलियों के उत्पादन, बिक्री, भंडारण और इस्तेमाल पर लगाया गया है। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने कहा कि दिल्ली प्लास्टिक मुक्त राज्य बनने को तैयार है। उन्होंने कहा कि प्रतिबंध को कड़ाई से लागू करने के लिए दिल्ली नगर निगम, एनडीएमसी और दिल्ली पुलिस को निर्देश जारी किए जा रहे हैं। मुख्यमंत्री ने बताया कि पहले जो कदम उठाए गए थे, वे नाकाफी थे। इसलिए सरकार को यह फैसला लेना पड़ा। अभी तय नहीं हुआ है कि सीमित स्थानों पर कार्रवाई के लिए दिल्ली सरकार ने जनवरी, 2009 में जो फैसले लिए थे, वे लागू रहेंगे या नहीं। सरकार ने यह भी फैसला किया है कि मौजूदा, दिल्ली डिग्रेडेबल प्लास्टिक बैग उत्पादन, बिक्री और इस्तेमाल और कचरा नियंत्रण कानून-2000 और इससे संबंधित नियमों और अधिसूचना को रद किया जाएगा। राजधानी में हर प्रकार की प्लास्टिक थैलियों के उत्पादन, बिक्री, भंडारण और इस्तेमाल पर पूर्ण प्रतिबंध के लिए पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 के अंतर्गत नई अधिसूचना जारी की जाएगी। नए प्रतिबंध से प्लास्टिक की थैलियों के उत्पादन पर भी रोक लग जाएगी। सरकार ने कहा कि इससे पूर्व 7 जनवरी, 2009 को जारी अधिसूचना बिक्री, भंडारण और इस्तेमाल तक सीमित थी। मंत्रिमंडल ने नियम को और सख्त करते हुए प्लास्टिक के उपयोग करने वालों के खिलाफ 10,000 रुपये से लेकर एक लाख रुपये तक का जुर्माना लगाने का प्रावधान है। इसके अतिरिक्त पांच वर्ष सजा का भी प्रावधान है। लेकिन यह नियम भी कागजों तक ही रहे। पिछले दो वर्षो के दौरान सख्त सजा किसी को भी नहीं दी गई। सरकार ने माना कि प्रतिबंध के बाद भी बाजारों में बिक्री करने वाले अब भी प्लास्टिक की थैलियों का इस्तेमाल कर रहे हैं। मूल कानून 2008 में संशोधित कर प्लास्टिक थैलियों की मोटाई 20 माइक्रोन से बढ़ाकर सभी उत्पादकों के लिए 40 माइक्रोन कर दी गई थी|