भारतीय जनमानस वैसे तो प्रकृति के सभी तत्वों के प्रति संवेदनशील है। पेड़ और पशु से लेकर पहाड़ तक यहां पूजे जाते हैं और यही कारण है कि कई दूसरे विकासशील और विकसित देशों की तुलना में हमारे यहां प्रकृति ज्यादा सुरक्षित और संरक्षित है। भारत में अभी भी लोग दिन ढलने के बाद फूल-पत्ते तोड़ने, आवारा कहे जाने वाले पशुओं को कष्ट देने और अपवित्र स्थिति में पावन नदियों में प्रवेश से बचते हैं। इनमें भी नदियों की स्थिति सबसे अलग और महत्वपूर्ण है। गंगा को पतित पावनी कहा गया है और जहां गंगा नहीं है, वहां वे सभी नदियां जो किसी न किसी तरह गंगा में आ मिलती हैं, गंगा की ही तरह पूज्य और पवित्र मानी जाती हैं। जाति-धर्म, संप्रदाय या विचारधारा आदि की सीमाओं से ऊपर पूरा भारत गंगा के प्रति आस्था और प्यार से भरा हुआ है। यमुना सिर्फ गंगा में मिलती ही नहीं है, इसके तट कृष्ण की बाल लीलाओं के साक्षी रहे हैं। पुराणों में सूर्य की पुत्री और यम की बहन के रूप में वर्णित होने के कारण भी यमुना का अलग स्थान है। इसके बावजूद यह एक दुखद सत्य है कि आज प्रदूषण के दानव से जो नदियां सबसे ज्यादा दुष्प्रभावित हुई हैं, वे यमुना और गंगा ही हैं। हालांकि यमुना और गंगा दोनों ही पवित्र नदियों की स्वच्छता के लिए बड़े अभियान बनाए और चलाए जा चुके हैं। आंकड़ों पर भरोसा करें तो इन पर अरबों रुपये खर्च भी किए जा चुके हैं। हालांकि यह खर्च कहां और कैसे किया गया, इसकी स्पष्ट जानकारी कहीं किसी को भी नहीं है। क्योंकि इस सच से कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि खर्च का असर कहीं दिखाई नहीं देता है। जाहिर है, इस मामले में भी वैसा ही हुआ जैसा ज्यादातर सरकारी परियोजनाओं के मामले में होता है। सरकारी अफसरों और कर्मचारियों का जोर गंगा या यमुना की सफाई के बजाय कागज का पेट भरने पर ज्यादा रहा। जिसका नतीजा यह रहा कि इस मद में निकाला गया धन तो साफ हो गया, लेकिन नदियों की गंदगी सिर्फ बढ़ती ही चली गई है। इन नदियों की सफाई को लेकर कई जनांदोलन भी चलाए गए हैं। हालांकि आंदोलनों में आम जनता की अत्यंत सीमित भागीदारी के कारण सरकार या संबंधित एजेंसियों पर इनका कोई खास दबाव बन नहीं सका। शायद इसका ही नतीजा है कि नदियों की सफाई पर भी इनका कोई खास असर दिखाई नहीं देता है। नदियों की गंदगी साफ न हो पाने का एक बड़ा कारण यह भी है कि इनकी सफाई के लिए जितने भी प्रयास किए जाते हैं, गंदगी हर दिन उससे बहुत ज्यादा डाल दी जाती है। जाहिर है, अगर गति यही बनी रही तो शायद इनकी सफाई का सपना सिर्फ सपना ही बना रह जाएगा। इधर एक अच्छी बात यह हुई है कि यमुना की सफाई के लिए प्रयास का बीड़ा संतों ने उठा लिया है। संतों ने यमुना यात्रा निकाली है। यह यात्रा गत 2 मार्च को ही शुरू हो चुकी है। इलाहाबाद के संगम से चली इस यात्रा में साधु-संतों के अलावा हजारों की तादाद में किसान भी शामिल हैं। यह यात्रा इलाहाबाद से चलकर बीते शनिवार को आगरा पहुंच चुकी थी। अगले दिन यह आगरा से मथुरा होते हुए दिल्ली के लिए कूच कर चुकी है। इस यात्रा के दौरान संतों ने विभिन्न पड़ावों पर महापंचायतें आयोजित करके संघर्ष छेड़ने का आह्वान किया है। कई जगह महापंचायतों में यमुना की सफाई के लिए निर्णायक संघर्ष छेड़ने का संकल्प लिया गया है। इन महापंचायतों में संत और किसान ही नहीं, समाज के सभी वर्गो के लोग शामिल हुए हैं। जाहिर है, यमुना-गंगा या किसी भी नदी का सूखना या गंदा होना किसी एक वर्ग की नहीं, बल्कि पूरे समाज और मानवता के लिए गंभीर चिंता का विषय है। इस बात को कहीं न कहीं हमारे समाज का हर वर्ग महसूस भी कर रहा है। अब संतों ने इसके लिए कमर कस ली है, तो इसे हलके ढंग से नहीं लिया जाना चाहिए। अगर भारत के इतिहास पर गौर करें तो हम पाते हैं कि यहां जनमानस पर संतों का बहुत व्यापक और गहरा असर रहा है। संतों का यह असर हमारी परंपरा का हिस्सा है। प्राचीन काल में ऋषियों-मुनियों का आम जनता से लेकर सम्राटों तक पर कैसा प्रभाव रहा है, इसका वर्णन हम पुराणों और साहित्यिक ग्रंथों में देख सकते हैं। सामाजिक परिवर्तन में इनकी भूमिका कितनी महत्वपूर्ण रही है, इसके जीवंत उदाहरण भगवान महावीर और भगवान बुद्ध हैं। मध्यकाल में कबीर, दादू, रैदास से लेकर सूर और तुलसी तक की भूमिका देखी जा सकती है। भारतीय समाज पर संतों का गहरा प्रभाव शायद इसीलिए है कि अन्य वर्गो की तुलना में इसके प्रति आम जनता का विश्वास अभी भी बहुत हद तक कायम है। व्यापक जनहित के प्रति इनके समर्पण पर लोग आम तौर पर संदेह नहीं करते, क्योंकि इनका अपना कोई प्रत्यक्ष स्वार्थ नहीं है। जाहिर है, जनता को जागरूक करने और नदियों के प्रति लोगों में व्याप्त रूढि़यों को वैज्ञानिक समझ में बदलने में ये प्रभावी भूमिका निभा सकते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकारी तंत्र की संवेदनहीनता हमारे प्राकृतिक संसाधनों की बर्बादी के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। इसके बावजूद खुद आम जनता भी अपनी जिम्मेदारी से पल्लू नहीं झाड़ सकती है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि वैज्ञानिकता के इस दौर में भी हमारे देश के पढ़-लिखे लोग भी रूढि़यों से बहुत ज्यादा बंधे हुए हैं। नदियों-नालों में पॉलीथिन सरकार नहीं फेंकती है, हम फेंकते हैं। दुनिया भर का कचरा और औद्योगिक रसायनों का उत्प्रवाह भी सरकार नहीं, उद्योगों द्वारा डाला जाता है और उद्योग चलाने वाले लोग भी आम जनता से अलग नहीं हैं। हम गंगा और यमुना की पूजा करके या उनमें डुबकी लगाकर अपने पाप धोने और पुण्यलाभ की कामना तो करते हैं, लेकिन उनमें पॉलीथिन और विभिन्न प्रकार की गंदगी डालने जैसा जघन्य अपराध करने में भी हिचकिचाते नहीं हैं। आखिर यह पुण्यलाभ का कौन सा तरीका है और क्या नदियों की गंदगी का यह एक महत्वपूर्ण कारण नहीं है? सच तो यह है कि यमुना या किसी भी नदी की सफाई के लिए सबसे उम्दा तरीका ही यह है कि इस निमित्त संघर्ष छेड़ने के साथ-साथ जनता को भी जागरूक किया जाए और सक्रिय प्रयास भी किए जाएं। इस मामले में पंजाब के संत बाबा बलबीर सिंह सींचेवाल एक जीवंत उदाहरण हैं। उन्होंने 165 किमी लंबी बेई नदी की सफाई के लिए स्वयं अभियान चलाया और आम जनता के सहयोग से काफी हद तक उन्होंने यह काम कर भी डाला। अभी भी वे इस काम में प्राणप्रण से लगे हुए हैं और उनके प्रयास की गंभीरता को देखते हुए आम जनता के अलावा सरकार के लोग भी उनसे खुद ब खुद जुड़ते जा रहे हैं। इस यात्रा पर निकले संतों को भी चाहिए कि सरकार पर दबाव बनाने के साथ-साथ यमुना की सफाई के लिए आम जनता को भी प्रेरित करें। चूंकि वे लोगों से सीधा संपर्क कर रहे हैं और दूसरे किसी भी वर्ग की तुलना में उनका असर समाज पर अधिक है, लिहाजा इसमें कोई दो राय नहीं है कि वे यह काम कर सकते हैं। (लेखक दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं)
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