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Friday, April 22, 2011

ऐसे तो बेपानी हो जाएगा बिहार


वर्ष 1984 और वर्ष 2004 में सेटेलाइट से ली गई तस्वीरों को गौर से देखें तो बिहार में तालाबों और नहरों की संख्या में चिंतनीय कमी आई है। भारत में लाइफलाइन समझी जाने वाली गंगा नदी की स्थिति तो और भी खराब है। जहां एक ओर इसका प्रवाह क्षेत्र सिकुड़ता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर शहरीकरण के दौर में बड़ी मात्रा में अपशिष्ट पदार्थ प्रवाहित किए जाने से गंगा का पानी प्रदूषित हो चुका है..
वर्ष 1984 और वर्ष 2004 में सेटेलाइट से ली गई तस्वीरों को गौर से देखें तो बिहार में तालाबों और नहरों की संख्या में चिंतनीय कमी आई है। भारत में लाइफलाइन समझी जाने वाली गंगा नदी की स्थिति तो और भी खराब है। जहां एक ओर इसका प्रवाह क्षेत्र सिकुड़ता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर शहरीकरण के दौर में बड़ी मात्रा में अपशिष्ट पदार्थ प्रवाहित किए जाने से गंगा का पानी प्रदूषित हो चुका है..तो यह सुनने में अच्छा ही लगता है कि बिहार में अभी भी प्रति व्यक्ति वार्षिक जल उपलब्धता 1170 वर्ग मीटर है। यानी अभी भी पानी सूबे में सामान्य मात्रा में उपलब्ध है और इसे सरप्लस भी माना जा सकता है। परंतु यह भी उल्लेखनीय है कि वर्ष 2001 में जल की यह उपलब्धता 1950 वर्ग मीटर प्रति व्यक्ति थी और जल्दी ही जलदोहन के विकल्प नहीं तलाशे गए अथवा जल प्रबंधन नहीं किया गया तो निश्चित तौर पर वर्ष 2020 तक सूबे में जल उपलब्धता की सीमा खतरे के निशान को पार कर जाएगी। प्रकृति विज्ञान के अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विशेषज्ञ डॉक्टर अशोक कुमार घोष कहते हैं कि जनसंख्या विस्फोट के कारण आज हम अपनी धरती का करीब-करीब डेढ़ गुना दोहन कर रहे हैं और यदि हालात नहीं संभले तो आनेवाले वर्ष 2050 में हमें कम से कम सात पृथ्वी की आवश्यकता होगी। यानी हमें पृथ्वी में उपलब्ध संसाधनों का सात गुना दोहन करना पड़ेगा।

बिहार में जल उपलब्धता की वर्तमान स्थिति चिंताजनक है। इस चिंता के अनेक आयाम हैं। पहला यह कि सूबे में भूगर्भ जल के प्रति आश्रित रहने की प्रवृत्ति खतरनाक ढंग से बढ़ी है। पहले चापाकल और ट्यूबवेल केवल शहरों में ही सीमित थे। गांव के लोग कुएं के पानी से अपना काम चलाते थे। किसान आहर और पईन से अपने खेतों की सिंचाई करते थे। परंतु अब की स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है। गांवों में भी कुओं ने दम तोड़ दिया है और इनकी जगह सरकारी और निजी चापाकलों की बाढ़-सी आ गई है। अधिकतर चापाकल पृथ्वी के पहले स्तर से ही भूगर्भ जल निकालते हैं। इस कारण अनेक समस्याएं पैदा हो रही हैं। सबसे पहली समस्या यह है कि पानी में आर्सेनिक व फ्लोराइड की मात्रा और प्रभावित क्षेत्र की सीमा बढ़ने लगी है। इसका दूसरा परिणाम यह हो रहा है कि अत्यधिक जल दोहन से धरती की ऊपरी परत कमजोर पड़ती जा रही है और उसकी जगह वायु के दबाव के कारण भूकंप की स्थिति बनती जा रही है। डॉक्टर घोष कहते हैं कि इस विषम स्थिति से बचने के लिए सबसे पहली आवश्यकता यह है कि धरती के ऊपरी स्तर से जल का दोहन कम से कम किया जाए। इसके लिए गहरे चापाकल और नलकूप तात्कालिक विकल्प हो सकते हैं। 

बिहार में आर्सेनिक प्रभावित जिलों की संख्या में इधर लगातार वृद्धि होती जा रही है। मसलन, वर्ष 2002 में केवल एक भोजपुर जिले में आर्सेनिक की मात्रा सामान्य स्तर से अधिक पाई गई थी, जबकि वर्ष 2004 में पटना भी आर्सेनिक के शिकंजे में आ गया। वर्ष 2005 में वैशाली और भागलपुर जिले भी आर्सेनिक प्रभावित हो गए। वर्ष 2007 में किए गए जल परीक्षण में पाया गया कि भोजपुर, वैशाली, पटना और भागलपुर के अलावा सारण, बेगूसराय, खगड़िया आदि जिलों के पानी में आर्सेनिक की मात्रा खतरे की सीमा को पार कर गई। पिछले वर्ष यानी वर्ष 2010 में बिहार में आर्सेनिक प्रभावित जिलों की संख्या बढ़कर 22 हो गई है। यह एक गंभीर मामला है। गंभीर इसलिए कि आर्सेनिक की वजह से आम लोगों के स्वास्थ्य पर अत्यंत ही प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। आर्सेनिक प्रभावित जिलों में दूषित पानी पीने के कारण लोग असमय ही काल के गाल में समाए जा रहे हैं। जबकि सूबे के 16 जिले ऐसे हैं जहां आर्सेनिक की मात्रा सामान्य से अधिक है। आर्सेनिक की वजह से जो रोग होते हैं, उनमें डर्मेटोलॉजिकल रेसपायरेटरी, कार्डियोवास्कुलर, हेपेटिक और कैंसर आदि शामिल हैं। 

हालांकि समस्या केवल आर्सेनिक से ही नहीं जुड़ी है। बिहार के गया, औरंगाबाद, जमुई, बांका, नवादा, कैमूर और रोहतास आदि जिलों में फ्लोराइड की मात्रा खतरनाक स्थिति में पहुंच चुकी है। सामान्य मात्रा से अधिक फ्लोराइड भी अनेक प्रकार के रोगों को जन्म देता है। डॉक्टर घोष बताते हैं कि बिहार में पानी की एक नहीं, अनेक समस्याएं हैं। सबसे बड़ी समस्या नदियों की है। सबसे दुखद बात यही है कि आबादी बढ़ने के साथ प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में तेजी आई है और अत्यधिक दोहन से पर्यावरण संतुलन बिगड़ गया है। पिछले एक दशक में बारिश में भी कमी आई है। इसके अलावा जो सबसे बड़ी समस्या है कि हम जितना पानी भूगर्भ से निकालते हैं, उतना पानी धरती को वापस नहीं दे पाते हैं। नतीजतन, भूगर्भ जल स्तर में लगातार कमी आती जा रही है। वर्ष 1984 और वर्ष 2004 में सेटेलाइट से ली गई तस्वीरों को गौर से देखें तो बिहार में तालाबों और नहरों की संख्या में चिंतनीय कमी आई है। भारत में लाइफलाइन समझी जाने वाली गंगा नदी की स्थिति तो और भी खराब है। जहां एक ओर इसका प्रवाह क्षेत्र सिकुड़ता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर शहरीकरण के दौर में बड़ी मात्रा में अपशिष्ट पदार्थ प्रवाहित किए जाने से गंगा का पानी प्रदूषित हो चुका है। वर्तमान में केवल गंगोत्री, जहां से गंगा निकलती है, का पानी ही पीने योग्य रह गया है। वरना जैसे-जैसे गंगा बंगाल की खाड़ी की ओर आगे बढ़ती है, वह प्रदूषित होती चली जाती है। जहां तक पानी की उपलब्धता की बात है तो अभी यह कहा जा सकता है कि बिहार में पानी सरप्लस है, लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि घाघरा-गंडक और गंडक-कोसी क्षेत्र में पानी की उपलब्धता में क्रमश: 43.4 और 37.8 प्रतिशत की कमी आई है। हालांकि बाढ़ आने के कारण कोसी क्षेत्र में पानी की उपलब्धता में 7.65 प्रतिशत की वृद्धि भी हुई है। बिहार में जल संकट की समस्याओं के निराकरण के सवाल पर डॉक्टर घोष कहते हैं कि इन सभी समस्याओं का एक ही इलाज है और वह इलाज है कुशल जल प्रबंधन। बरसात के पानी को समुचित तरीके से भंडारित किया जाए, ताकि बरसात का पानी बर्बाद न हो। इसके अलावा भूगर्भ जल पर आश्रित रहने की प्रवृत्ति का त्याग करनाभी आवश्यक होगा।

एक शपथ इस धरती के लिए


इस धरती पर जन्म लेना ही मनुष्य का सौभाग्य है। इस मां रूपी धरती के श्रंृगार को हम मनुष्य ही उजाड़ कर उसे बंजर बना रहे हैं। धरती मां के गहने माने जाने वाले हरे-भरे पेड़ पौधों को हमने उजाड़ दिया और इस पर मौजूद जल स्त्रोतों को हमने इस तरह दुहा है कि वे भी जल विहीन हो चले हैं। इसके गर्भ में इतने परीक्षण हम कर चुके हैं कि इसकी कोख अब बंजर हो चुकी है, लेकिन अब भी हम इसके दोहन और शोषण से थके नहीं हैं। अब भी हम यह नहीं सोच पा रहे हैं कि जब धरती ही नहीं रहेगी तो क्या हम किसी नए ग्रह की खोज करके वहां रहने चले जाएंगे! हम क्यों रोते है कि अब मौसम बदल चुका है और वैश्विक तापमान निरंतर बढ़ता चला जा रहा है। आखिर इसके लिए कौन दोषी है? जब हम ही इसके लिए जिम्मेवार हैं तो फिर रोना किस बात का? हमारी पैसे की हवस ने, धरती जो कभी सोना उगला करती थी, केमिकल डाल-डाल कर बंजर बना दिया। फसल अच्छी लेने के लिए उसको बांझ बना दिया। इन कृत्रिम साधनों से जो उसका दोहन हो रहा है उससे हमने गुणवत्ता खो दी है। वैश्विक गर्मी या ग्लोबल वार्मिग दशकों से मानव जाति के लिए चिंता का सबब बने हुए हैं। पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है जिस कारण पर्यावरण का संतुलन भी बिगड़ रहा है। क्या हम विनाश की तरफ बढ़ रहे हैं या विनाश की शुरुआत हो चुकी है? क्या अभी भी हमारे पास चेतने और अपनी पृथ्वी तथा खुद अपने आपको बचाने का समय बचा है? जापान में आए विनाशकारी भूकंप और सुनामी से क्या हम कुछ सबक लेने को तैयार हैं। अन्यथा हम ऐसे ही धरती का अंधाधुंध दोहन करते रहेंगे। 22 अप्रैल, 1970 से धरती को बचाने की मुहिम अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन द्वारा पृथ्वी दिवस के रूप में शुरू हो चुकी है, लेकिन वर्तमान में यह सिर्फ सेमीनार आयोजनों तक ही सीमित है। वास्तविकता यही है कि पर्यावरण संरक्षण हमारे राजनीतिक एजेंडे में शामिल ही नहीं है। पृथ्वी दिवस एक ऐसा दिन है जो सभी राष्ट्रों की सीमाओं को पार करता है, फिर भी सभी भौगोलिक सीमाओं को अपने आप में समाए हुए है। सभी पहाड़, महासागर और समय की सीमाएं इसमें शामिल हैं। यह पूरी दुनिया के लोगों को एक मिशन के द्वारा बांधने में मददगार की भूमिका निभाता है। यह दिवस प्राकृतिक संतुलन को समर्पित है। पिछले कई वर्षो से दुनिया भर के ताकतवर देशों के कद्दावर नेता हर साल पर्यावरण संबंधित सम्मेलनों में भाग लेते आ रहे हैं, लेकिन आज तक कोई ठोस लक्ष्य तय नहीं किया जा सका है। पूरे विश्व में कार्बन उत्सर्जन की दर लगातार बढ़ रही है। वास्तविकता तो यह है कि पिछले 18 वर्षो में जैविक ईधन के जलने की वजह से कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन 40 प्रतिशत तक बढ़ा है और पृथ्वी का तापमान 0.8 डिग्री सेल्शियस बढ़ चुका है। अगर इस स्थिति में कोई सुधार नहीं आता तो सन 2030 तक पृथ्वी के वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा 90 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी। 1950 के बाद से हिमालय के करीब 2000 ग्लेशियर पिघल चुके हैं और अनुमान है कि यही दर कायम रही तो 2035 तक सभी ग्लेशियर पिघल जाएंगे। सन 1870 के बाद से पृथ्वी की जल सतह 1.7 मिलीमीटर की दर से बढ़ रही है और अब तक 20 सेमी जितनी बढ़ चुकी है। इस दर से एक दिन मॉरीशस जैसे कई और देश और इसके निकटवर्ती तटीय शहर डूब जाएंगे। आर्कटिक समुद्र में बर्फ पिघलने से समुद्र के तट पर भूकंप आने से सुनामी का खतरा बढ़ जाएगा। पर्यावरण विनास का सवाल जब तक तापमान में बढ़ोतरी से मानवता के भविष्य पर आने वाले खतरों तक सीमित रहा तब तक विकासशील देशों का इसकी ओर उतना ध्यान नहीं गया, लेकिन अब जबकि जलवायु चक्र का खतरा खाद्यान्न उत्पादन में गिरावट के रूप में दिख रहा है तो पूरी दुनिया सशंकित हो उठी है। स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि किसान यह तय नहीं कर पा रहे है कि वह कब अपने फसलों की बुवाई करें और कब इन फसलों को काटें। यदि तापमान में बढ़ोतरी इसी तरह जारी रही तो खाद्य उत्पादन 40 प्रतिशत तक घट जाएगा। इससे पूरे विश्व में खाद्यान्नों की भारी कमी हो जाएगी। वैश्विक ताप के लिए जिम्मेदार कार्बन गैस को बढ़ाने में सबसे अधिक योगदान है क्रूड ऑयल यानी कच्चे तेल का और इसके बाद स्थान आता है कोयले का। कार्बन गैस का उत्सर्जन बढ़ाने के लिए जिम्मेदार कारकों में क्रूड ऑयल का हिस्सा 33.5 प्रतिशत है। इसमें से 19.2 प्रतिशत हिस्सा वाहनों को जाता है और इसके बाद 27.4 प्रतिशत हिस्सा कोयले का है। कोयला और क्रूड ऑयल का उत्पादन तथा उपयोग लगातार बढ़ रहा है और कार्बन गैस को बढ़ाने के लिए इनकी हिस्सेदारी 60 प्रतिशत तक है। भारत सरकार पहले ही कह चुकी है कि वह आगामी वर्षो में कार्बन उत्सर्जन में 25 प्रतिशत तक की कमी लाने का प्रयास करेगी। यह एक बहुत बड़ा कदम होगा जिसे हासिल करना फिलहाल काफी मुश्किल दिख रहा है, लेकिन अगर हम सभी सामूहिक जिम्मेदारी से पृथ्वी को बचाने का संकल्प अपने मन में कर लें तो यह अवश्य संभव हो सकेगा। इसके अलावा हमें अपनी दिनचर्या में पर्यावरण संरक्षण को भी शामिल करना होगा। हमारी पृथ्वी की वर्तमान में जो हालत है अगर हम अभी भी अपनी बेहोशी से नहीं जागे तो समय हमें माफ नहीं करेगा। ज्वालामुखी, भूकंप, सुनामी, और भूस्खलन आदि तो इस पृथ्वी पीड़ा के प्रतीक हैं जो इस पृथ्वी को नेस्तानाबूद कर सकते हैं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं).

व्यवस्था में सुपरबग


ब्रिटिश पत्रिका लासेंट में छपे शोध पत्र में दिल्ली के पानी में सुपरबग बैक्टीरिया होने का दावा किया है। इस पत्रिका ने पिछले साल भी ऐसा ही दावा किया था। सुपरबग ऐसे बैक्टीरिया होते हैं जिन पर किसी भी एंटीबॉयोटिक दवा का असर नहीं होता। हालांकि पिछले दिनों सरकार ने इस रिपोर्ट को खारिज कर दिया था, परंतु अब खुलासा हुआ है कि दिल्ली सरकार द्वारा नल के पानी के 50 नमूनों में से दो में तथा तालाब व गड्ढों के 171 नमूनों में से 51 में सुपरबग जीवाणु मिले हैं। खास बात यह है कि इन नमूनों में कुल 11 प्रकार के बैक्टीरिया पाए गए हैं। कार्डिफ यूनिवर्सिटी के टिमोथी वॉल्स और डॉ. मार्क टॉलेमन ने दिल्ली के पेयजल के नमूनों की जांच की थी। शोधकर्ताओं ने दावा किया कि दिल्ली के चार फीसदी पेयजल और तीस फीसदी गंदे पानी में बैक्टीरिया के एनडीएम-1 जीन पाए गए हैं। ये वही जीन हैं जो व्यापक तौर पर प्रयोग किए जाने वाले एंटीबॉयोटिक्स का प्रतिरोध करते हैं। इन तथ्यों के अलावा उस सैंपल में पेचिस और हैजे के जीवाणु भी पाए गए हैं। इस मुद्दे पर इतनी खतरनाक रिपोर्ट आने के बावजूद सरकार द्वारा पेयजल की शुद्धता के लिए कदम न उठाए जाना आश्चर्यजनक है। दिल्ली में दूषित पेयजल की आपूर्ति तथा भूजल के पीने योग्य न रह जाने की घोषणा सरकार खुद करती रही है। दिल्ली के पानी में आर्सेनिक के साथ-साथ अनेक नुकसानदायक रसायनों की मौजूदगी की खबरें पिछले दिनों आती रही हैं। यमुना के जल के प्रदूषित होने की खबरें तो किसी से छिपी नहीं हैं। शायद यही कारण है कि सार्वजनिक नलों तथा गंदे पानी के नमूनों में खतरनाक जीवाणुओं का पाया जाना अब सरकार के लिए कोई खास बात नहीं रह गई है। सुपरबग संबंधी यह रिपोर्ट भारत में सवालों के घेरे में है। कुछ विशेषज्ञ इस रिपोर्ट को भारत के खिलाफ दुष्प्रचार मान रहे हैं। सच यह है कि चिकित्सा पर्यटन के क्षेत्र में भारत की पूरे विश्व में धाक है। विदेशों की कई एजेंसियां विकासशील देशों में ऐसी शोध रिपोर्ट को प्रचारित-प्रसारित करके अपने व्यावसायिक हितों की पूर्ति करना चाहती हैं। ऐसी विदेशी एजेंसियों ने ही पहले आयोडीन व एचआइवी वायरस का हौव्वा खड़ा किया और अब एनडीएम 1 (नई दिल्ली मेटैलो-बीटा-लैक्टामेज) सुपरबग के नाम पर चिकित्सा पर्यटकों को दिल्ली आने से रोकने की साजिश की जा रही है। सस्ते इलाज के कारण हर वर्ष 10 लाख से भी अधिक व्यक्ति भारत में चिकित्सा कराने आते हैं। इसीलिए भारत में चिकित्सा पर्यटन का कारोबार 31 करोड़ डॉलर तक पहुंच गया है। सीआइआइ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 2012 तक चिकित्सा पर्यटन का कारोबार दो अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा। यही कारण है कि चिकित्सा पर्यटन के क्षेत्र में भारत के बढ़ते कदमों से पश्चिमी मुल्क परेशान हैं। पश्चिम के देशों को भय है कि यदि भारत ने इस क्षेत्र में और प्रगति की तो चिकित्सा का बड़ा कारोबार उनके हाथ से छिन जाएगा। बेंगलूर के नारायण हार्ट इंस्टीट्यूट के चिकित्सकों के अनुसार लासेंट के इस अध्ययन की प्रायोजक वे विदेशी कंपनियां हैं, जो सुपरबग जीवाणु के लिए एंटीबॉयोटिक्स तैयार करना चाहती हैं। उन्होंने कहा है कि आखिर ऐसा शोध करने की भारत में ही आवश्यकता क्यों पड़ी? इस संदर्भ में पश्चिम के वैज्ञानिकों का स्पष्ट मत है कि एनडीएम-1 नामक जीन भारत के अलावा पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी पाया जाता है। इसके साथ-साथ इस जीन की पहुंच अब ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया और हॉलेंड तक हो चुकी है। रिपोर्ट पर उठने वाले इन सवालों के बावजूद इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आज नागरिकों को जो पेयजल उपलब्ध कराया जा रहा है वह दूषित है। शुद्ध पेयजल की आपूर्ति कराने में सरकार की विफलता के कारण ही आज मानवीय संस्कृति के अपरिहार्य तत्व से बाहर निकलकर जल एक व्यावसायिक उत्पाद का हिस्सा बन रहा है। एनडीएम-1 के रूप में सुपरबग की मौजूदगी जल के प्रति हमारी संक्रमित सोच और लापरवाही का ही दुष्परिणाम है। यदि हम पेयजल का प्रदूषण नहीं रोक सकते तो फिर धरती को बचाने का भरोसा कैसे दिला सकते हैं? सरकारें जिस प्रकार से घाटे व मुनाफे के आधार पर कार्य कर रही हैं उससे भविष्य में ऐसे ज्वलंत मुद्दों पर प्रभावी कार्ययोजना बनाने एवं उस पर अमल कराने के लिए नागरिक समाज को आगे आना होगा। ध्यान रहे सरकारों के कानों को तभी धमक सुनाई देती है जब समाज के ज्वलंत मुद्दों पर जनांदोलन का डंका बजता है। शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने के मामले में सरकारों की हीलाहवाली तथा म्यूनिसिपल संस्थाओं की लापरवाही ने ही प्राकृतिक जल को इस दुर्दशा में पहुंचाया है। सुपरबग जैसे जीवनरक्षक मुद्दे पर भी सिविल सोसाइटी को एक बहस छेड़नी होगी। तभी जल के मुद्दों पर सरकारों की नींद टूटेगी और पेयजल व्यापारिक कॉमोडिटी से बाहर निकल सकेगा। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं).

देश में फिर बढ़ने लगी गिद्धों की आबादी


 प्रकृति के सफाईकर्मियों अर्थात गिद्धों के अस्तित्व पर छाए संकट के बादल धीरे-धीरे छंटने लगे हैं। बदलाव की यह बयार राजाजी नेशनल पार्क में साफ देखी जा सकती है। देशभर में मिलने वाली गिद्धों की नौ प्रजातियों में पांच की राजाजी में मौजूदगी है और वह भी ठीकठाक संख्या में। और तो और इस मर्तबा तो हिमालयी गिद्ध भी वहां अभी तक अच्छी-खासी तादाद में डेरा डाले हुए हैं। इसे पार्क में सुदृढ़ पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में देखा जा रहा है। देशभर में एक-डेढ़ दशक पहले गिद्ध दिखाई देना ही बंद हो गए थे और उत्तराखंड भी इससे अछूता नहीं था। चिंता का विषय बने इस मसले की पड़ताल हुई तो पता चला कि मवेशियों को दी जाने वाली डाइक्लोरोफिनैल नामक दवा, खेती में कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग और गड़बड़ाता पारिस्थितिकी तंत्र इसकी मुख्य वजह है। खैर, अब स्थितियां बदली हैं और गिद्धों की अच्छी खासी संख्या दिखाई पड़ने लगी है। देश में पाई जाने वाली गिद्धों की नौ प्रजातियों में से पांच का दीदार तो राजाजी पार्क में हो रहा है। हिमालयन गिद्ध तो अभी तक यहां मौजूद है। राजाजी नेशनल पार्क में गिद्धों की बढ़ती तादाद से वन्यजीव विशेषज्ञों और पार्क प्रशासन की खुशी का ठिकाना नहीं है। वन्यजीव विशेषज्ञ डा.रितेश जोशी के अनुसार, राजाजी पार्क में गिद्धों की अच्छी तादाद वहां पारिस्थितिकीय तंत्र की सेहत सुदृढ़ होने का संकेत देता है। उन्होंने कहा कि पार्क में कार्नीबोर व हर्बीबोर दोनों की संख्या ठीक है और गिद्धों को पर्याप्त भोजन मिल रहा है। पार्क के निदेशक एसएस रसाईली के मुताबिक पार्क प्रशासन की ओर से पारिस्थितिकी तंत्र को मजबूत बनाने का ही नतीजा है कि वहां गिद्धों की अच्छी संख्या देखने को मिल रही है। देश में गिद्धों की प्रजातियां : किंग वल्चर, लांग बिल्ड वल्चर, इंडियन व्हाइट बैक्ड, स्कैवेंजर, हिमालयन ग्रीफॉर्न, यूरेशियन, सिनेरियस, सिलेंडर बिल व लैमर गियर राजाजी पार्क में मौजूद प्रजातियां : किंग वल्चर, लांग बिल्ड वल्चर, इंडियन व्हाइट बैक्ड, स्कैवेंजर, हिमालयन ग्रीफॉर्न इन पर है ज्यादा संकट : बर्ड लाइफ इंटरनेशनल संस्था के मुताबिक किंग वल्चर, लांग बिल्ड वल्चर, इंडियन व्हाइट बैक्ड प्रजातियों को गंभीर रूप से संकटग्रस्त घोषित किया है। स्कैवेंजर नामक गिद्ध को संकटग्रस्त घोषित किया गया है|

पानी के प्रबंधन में छिपा है समाधान


जल के लिए जागे