Friday, April 22, 2011

ऐसे तो बेपानी हो जाएगा बिहार


वर्ष 1984 और वर्ष 2004 में सेटेलाइट से ली गई तस्वीरों को गौर से देखें तो बिहार में तालाबों और नहरों की संख्या में चिंतनीय कमी आई है। भारत में लाइफलाइन समझी जाने वाली गंगा नदी की स्थिति तो और भी खराब है। जहां एक ओर इसका प्रवाह क्षेत्र सिकुड़ता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर शहरीकरण के दौर में बड़ी मात्रा में अपशिष्ट पदार्थ प्रवाहित किए जाने से गंगा का पानी प्रदूषित हो चुका है..
वर्ष 1984 और वर्ष 2004 में सेटेलाइट से ली गई तस्वीरों को गौर से देखें तो बिहार में तालाबों और नहरों की संख्या में चिंतनीय कमी आई है। भारत में लाइफलाइन समझी जाने वाली गंगा नदी की स्थिति तो और भी खराब है। जहां एक ओर इसका प्रवाह क्षेत्र सिकुड़ता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर शहरीकरण के दौर में बड़ी मात्रा में अपशिष्ट पदार्थ प्रवाहित किए जाने से गंगा का पानी प्रदूषित हो चुका है..तो यह सुनने में अच्छा ही लगता है कि बिहार में अभी भी प्रति व्यक्ति वार्षिक जल उपलब्धता 1170 वर्ग मीटर है। यानी अभी भी पानी सूबे में सामान्य मात्रा में उपलब्ध है और इसे सरप्लस भी माना जा सकता है। परंतु यह भी उल्लेखनीय है कि वर्ष 2001 में जल की यह उपलब्धता 1950 वर्ग मीटर प्रति व्यक्ति थी और जल्दी ही जलदोहन के विकल्प नहीं तलाशे गए अथवा जल प्रबंधन नहीं किया गया तो निश्चित तौर पर वर्ष 2020 तक सूबे में जल उपलब्धता की सीमा खतरे के निशान को पार कर जाएगी। प्रकृति विज्ञान के अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विशेषज्ञ डॉक्टर अशोक कुमार घोष कहते हैं कि जनसंख्या विस्फोट के कारण आज हम अपनी धरती का करीब-करीब डेढ़ गुना दोहन कर रहे हैं और यदि हालात नहीं संभले तो आनेवाले वर्ष 2050 में हमें कम से कम सात पृथ्वी की आवश्यकता होगी। यानी हमें पृथ्वी में उपलब्ध संसाधनों का सात गुना दोहन करना पड़ेगा।

बिहार में जल उपलब्धता की वर्तमान स्थिति चिंताजनक है। इस चिंता के अनेक आयाम हैं। पहला यह कि सूबे में भूगर्भ जल के प्रति आश्रित रहने की प्रवृत्ति खतरनाक ढंग से बढ़ी है। पहले चापाकल और ट्यूबवेल केवल शहरों में ही सीमित थे। गांव के लोग कुएं के पानी से अपना काम चलाते थे। किसान आहर और पईन से अपने खेतों की सिंचाई करते थे। परंतु अब की स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है। गांवों में भी कुओं ने दम तोड़ दिया है और इनकी जगह सरकारी और निजी चापाकलों की बाढ़-सी आ गई है। अधिकतर चापाकल पृथ्वी के पहले स्तर से ही भूगर्भ जल निकालते हैं। इस कारण अनेक समस्याएं पैदा हो रही हैं। सबसे पहली समस्या यह है कि पानी में आर्सेनिक व फ्लोराइड की मात्रा और प्रभावित क्षेत्र की सीमा बढ़ने लगी है। इसका दूसरा परिणाम यह हो रहा है कि अत्यधिक जल दोहन से धरती की ऊपरी परत कमजोर पड़ती जा रही है और उसकी जगह वायु के दबाव के कारण भूकंप की स्थिति बनती जा रही है। डॉक्टर घोष कहते हैं कि इस विषम स्थिति से बचने के लिए सबसे पहली आवश्यकता यह है कि धरती के ऊपरी स्तर से जल का दोहन कम से कम किया जाए। इसके लिए गहरे चापाकल और नलकूप तात्कालिक विकल्प हो सकते हैं। 

बिहार में आर्सेनिक प्रभावित जिलों की संख्या में इधर लगातार वृद्धि होती जा रही है। मसलन, वर्ष 2002 में केवल एक भोजपुर जिले में आर्सेनिक की मात्रा सामान्य स्तर से अधिक पाई गई थी, जबकि वर्ष 2004 में पटना भी आर्सेनिक के शिकंजे में आ गया। वर्ष 2005 में वैशाली और भागलपुर जिले भी आर्सेनिक प्रभावित हो गए। वर्ष 2007 में किए गए जल परीक्षण में पाया गया कि भोजपुर, वैशाली, पटना और भागलपुर के अलावा सारण, बेगूसराय, खगड़िया आदि जिलों के पानी में आर्सेनिक की मात्रा खतरे की सीमा को पार कर गई। पिछले वर्ष यानी वर्ष 2010 में बिहार में आर्सेनिक प्रभावित जिलों की संख्या बढ़कर 22 हो गई है। यह एक गंभीर मामला है। गंभीर इसलिए कि आर्सेनिक की वजह से आम लोगों के स्वास्थ्य पर अत्यंत ही प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। आर्सेनिक प्रभावित जिलों में दूषित पानी पीने के कारण लोग असमय ही काल के गाल में समाए जा रहे हैं। जबकि सूबे के 16 जिले ऐसे हैं जहां आर्सेनिक की मात्रा सामान्य से अधिक है। आर्सेनिक की वजह से जो रोग होते हैं, उनमें डर्मेटोलॉजिकल रेसपायरेटरी, कार्डियोवास्कुलर, हेपेटिक और कैंसर आदि शामिल हैं। 

हालांकि समस्या केवल आर्सेनिक से ही नहीं जुड़ी है। बिहार के गया, औरंगाबाद, जमुई, बांका, नवादा, कैमूर और रोहतास आदि जिलों में फ्लोराइड की मात्रा खतरनाक स्थिति में पहुंच चुकी है। सामान्य मात्रा से अधिक फ्लोराइड भी अनेक प्रकार के रोगों को जन्म देता है। डॉक्टर घोष बताते हैं कि बिहार में पानी की एक नहीं, अनेक समस्याएं हैं। सबसे बड़ी समस्या नदियों की है। सबसे दुखद बात यही है कि आबादी बढ़ने के साथ प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में तेजी आई है और अत्यधिक दोहन से पर्यावरण संतुलन बिगड़ गया है। पिछले एक दशक में बारिश में भी कमी आई है। इसके अलावा जो सबसे बड़ी समस्या है कि हम जितना पानी भूगर्भ से निकालते हैं, उतना पानी धरती को वापस नहीं दे पाते हैं। नतीजतन, भूगर्भ जल स्तर में लगातार कमी आती जा रही है। वर्ष 1984 और वर्ष 2004 में सेटेलाइट से ली गई तस्वीरों को गौर से देखें तो बिहार में तालाबों और नहरों की संख्या में चिंतनीय कमी आई है। भारत में लाइफलाइन समझी जाने वाली गंगा नदी की स्थिति तो और भी खराब है। जहां एक ओर इसका प्रवाह क्षेत्र सिकुड़ता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर शहरीकरण के दौर में बड़ी मात्रा में अपशिष्ट पदार्थ प्रवाहित किए जाने से गंगा का पानी प्रदूषित हो चुका है। वर्तमान में केवल गंगोत्री, जहां से गंगा निकलती है, का पानी ही पीने योग्य रह गया है। वरना जैसे-जैसे गंगा बंगाल की खाड़ी की ओर आगे बढ़ती है, वह प्रदूषित होती चली जाती है। जहां तक पानी की उपलब्धता की बात है तो अभी यह कहा जा सकता है कि बिहार में पानी सरप्लस है, लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि घाघरा-गंडक और गंडक-कोसी क्षेत्र में पानी की उपलब्धता में क्रमश: 43.4 और 37.8 प्रतिशत की कमी आई है। हालांकि बाढ़ आने के कारण कोसी क्षेत्र में पानी की उपलब्धता में 7.65 प्रतिशत की वृद्धि भी हुई है। बिहार में जल संकट की समस्याओं के निराकरण के सवाल पर डॉक्टर घोष कहते हैं कि इन सभी समस्याओं का एक ही इलाज है और वह इलाज है कुशल जल प्रबंधन। बरसात के पानी को समुचित तरीके से भंडारित किया जाए, ताकि बरसात का पानी बर्बाद न हो। इसके अलावा भूगर्भ जल पर आश्रित रहने की प्रवृत्ति का त्याग करनाभी आवश्यक होगा।

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