Friday, April 22, 2011

एक शपथ इस धरती के लिए


इस धरती पर जन्म लेना ही मनुष्य का सौभाग्य है। इस मां रूपी धरती के श्रंृगार को हम मनुष्य ही उजाड़ कर उसे बंजर बना रहे हैं। धरती मां के गहने माने जाने वाले हरे-भरे पेड़ पौधों को हमने उजाड़ दिया और इस पर मौजूद जल स्त्रोतों को हमने इस तरह दुहा है कि वे भी जल विहीन हो चले हैं। इसके गर्भ में इतने परीक्षण हम कर चुके हैं कि इसकी कोख अब बंजर हो चुकी है, लेकिन अब भी हम इसके दोहन और शोषण से थके नहीं हैं। अब भी हम यह नहीं सोच पा रहे हैं कि जब धरती ही नहीं रहेगी तो क्या हम किसी नए ग्रह की खोज करके वहां रहने चले जाएंगे! हम क्यों रोते है कि अब मौसम बदल चुका है और वैश्विक तापमान निरंतर बढ़ता चला जा रहा है। आखिर इसके लिए कौन दोषी है? जब हम ही इसके लिए जिम्मेवार हैं तो फिर रोना किस बात का? हमारी पैसे की हवस ने, धरती जो कभी सोना उगला करती थी, केमिकल डाल-डाल कर बंजर बना दिया। फसल अच्छी लेने के लिए उसको बांझ बना दिया। इन कृत्रिम साधनों से जो उसका दोहन हो रहा है उससे हमने गुणवत्ता खो दी है। वैश्विक गर्मी या ग्लोबल वार्मिग दशकों से मानव जाति के लिए चिंता का सबब बने हुए हैं। पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है जिस कारण पर्यावरण का संतुलन भी बिगड़ रहा है। क्या हम विनाश की तरफ बढ़ रहे हैं या विनाश की शुरुआत हो चुकी है? क्या अभी भी हमारे पास चेतने और अपनी पृथ्वी तथा खुद अपने आपको बचाने का समय बचा है? जापान में आए विनाशकारी भूकंप और सुनामी से क्या हम कुछ सबक लेने को तैयार हैं। अन्यथा हम ऐसे ही धरती का अंधाधुंध दोहन करते रहेंगे। 22 अप्रैल, 1970 से धरती को बचाने की मुहिम अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन द्वारा पृथ्वी दिवस के रूप में शुरू हो चुकी है, लेकिन वर्तमान में यह सिर्फ सेमीनार आयोजनों तक ही सीमित है। वास्तविकता यही है कि पर्यावरण संरक्षण हमारे राजनीतिक एजेंडे में शामिल ही नहीं है। पृथ्वी दिवस एक ऐसा दिन है जो सभी राष्ट्रों की सीमाओं को पार करता है, फिर भी सभी भौगोलिक सीमाओं को अपने आप में समाए हुए है। सभी पहाड़, महासागर और समय की सीमाएं इसमें शामिल हैं। यह पूरी दुनिया के लोगों को एक मिशन के द्वारा बांधने में मददगार की भूमिका निभाता है। यह दिवस प्राकृतिक संतुलन को समर्पित है। पिछले कई वर्षो से दुनिया भर के ताकतवर देशों के कद्दावर नेता हर साल पर्यावरण संबंधित सम्मेलनों में भाग लेते आ रहे हैं, लेकिन आज तक कोई ठोस लक्ष्य तय नहीं किया जा सका है। पूरे विश्व में कार्बन उत्सर्जन की दर लगातार बढ़ रही है। वास्तविकता तो यह है कि पिछले 18 वर्षो में जैविक ईधन के जलने की वजह से कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन 40 प्रतिशत तक बढ़ा है और पृथ्वी का तापमान 0.8 डिग्री सेल्शियस बढ़ चुका है। अगर इस स्थिति में कोई सुधार नहीं आता तो सन 2030 तक पृथ्वी के वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा 90 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी। 1950 के बाद से हिमालय के करीब 2000 ग्लेशियर पिघल चुके हैं और अनुमान है कि यही दर कायम रही तो 2035 तक सभी ग्लेशियर पिघल जाएंगे। सन 1870 के बाद से पृथ्वी की जल सतह 1.7 मिलीमीटर की दर से बढ़ रही है और अब तक 20 सेमी जितनी बढ़ चुकी है। इस दर से एक दिन मॉरीशस जैसे कई और देश और इसके निकटवर्ती तटीय शहर डूब जाएंगे। आर्कटिक समुद्र में बर्फ पिघलने से समुद्र के तट पर भूकंप आने से सुनामी का खतरा बढ़ जाएगा। पर्यावरण विनास का सवाल जब तक तापमान में बढ़ोतरी से मानवता के भविष्य पर आने वाले खतरों तक सीमित रहा तब तक विकासशील देशों का इसकी ओर उतना ध्यान नहीं गया, लेकिन अब जबकि जलवायु चक्र का खतरा खाद्यान्न उत्पादन में गिरावट के रूप में दिख रहा है तो पूरी दुनिया सशंकित हो उठी है। स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि किसान यह तय नहीं कर पा रहे है कि वह कब अपने फसलों की बुवाई करें और कब इन फसलों को काटें। यदि तापमान में बढ़ोतरी इसी तरह जारी रही तो खाद्य उत्पादन 40 प्रतिशत तक घट जाएगा। इससे पूरे विश्व में खाद्यान्नों की भारी कमी हो जाएगी। वैश्विक ताप के लिए जिम्मेदार कार्बन गैस को बढ़ाने में सबसे अधिक योगदान है क्रूड ऑयल यानी कच्चे तेल का और इसके बाद स्थान आता है कोयले का। कार्बन गैस का उत्सर्जन बढ़ाने के लिए जिम्मेदार कारकों में क्रूड ऑयल का हिस्सा 33.5 प्रतिशत है। इसमें से 19.2 प्रतिशत हिस्सा वाहनों को जाता है और इसके बाद 27.4 प्रतिशत हिस्सा कोयले का है। कोयला और क्रूड ऑयल का उत्पादन तथा उपयोग लगातार बढ़ रहा है और कार्बन गैस को बढ़ाने के लिए इनकी हिस्सेदारी 60 प्रतिशत तक है। भारत सरकार पहले ही कह चुकी है कि वह आगामी वर्षो में कार्बन उत्सर्जन में 25 प्रतिशत तक की कमी लाने का प्रयास करेगी। यह एक बहुत बड़ा कदम होगा जिसे हासिल करना फिलहाल काफी मुश्किल दिख रहा है, लेकिन अगर हम सभी सामूहिक जिम्मेदारी से पृथ्वी को बचाने का संकल्प अपने मन में कर लें तो यह अवश्य संभव हो सकेगा। इसके अलावा हमें अपनी दिनचर्या में पर्यावरण संरक्षण को भी शामिल करना होगा। हमारी पृथ्वी की वर्तमान में जो हालत है अगर हम अभी भी अपनी बेहोशी से नहीं जागे तो समय हमें माफ नहीं करेगा। ज्वालामुखी, भूकंप, सुनामी, और भूस्खलन आदि तो इस पृथ्वी पीड़ा के प्रतीक हैं जो इस पृथ्वी को नेस्तानाबूद कर सकते हैं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं).

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