ग्लोबल वार्मिग के प्रभाव से दुनिया भर के देशों की जलवायु और मौसम में परिवर्तन हो रहा है। कई देशों में प्राकृतिक आपदाओं की भयावहता और उनका सिलसिला बढ़ा है। अमेरिका में तूफान, यूरोप में बर्फबारी और जापान में आई सुनामी इसके उदाहरण हैं। दुनिया भर के देशों का मौसम ला-नीना के प्रभाव से बदल रहा है, लेकिन इसका कहर उन देशों को भी झेलना पड़ रहा है, जो इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं। एशियाई देशों पर ग्लोबल वार्मिग का खतरा गहराता जा रहा है। औसत तापमान में वृद्धि और बेमौसम बरसात ने पर्यावरणविदों में चिंता पैदा कर दी है, क्योंकि इससे खेती की उपज पर प्रभाव पड़ रहा है। इसके साथ ही अधिक बरसात से समुद्र का स्तर बढ़ रहा है, जिससे तट के क्षरण के कारण जमीन कम हो रही है। भारत, बांग्लादेश और नेपाल के वन पर्यावरण बदलाव की सर्वाधिक मार झेलने वाले स्थान बन गए हैं और यहां का स्थानीय समुदाय इन बदलावों का शिकार हो रहा है। समुद्र स्तर बढ़ने के कारण भारत के मैंग्रोव जंगलों वाले कई निर्जन टापू डूब गए हैं। विशेषज्ञों ने भविष्यवाणी की है कि मैंग्रोव वनों के दक्षिण-पश्चिम भाग के एक दर्जन से ज्यादा टापू 2015 तक अपनी जमीन का औसतन 65 प्रतिशत हिस्सा खो देंगे। इससे भी बुरी बात है कि नदी के मुहानों पर खारेपन की बदलती प्रवृत्ति के कारण अच्छी मछलियों की गिनती अत्यधिक घट गई है, जिससे मछुआरा समुदाय खतरे में फंस गया है। उड़ीसा के तटीय क्षेत्रों पर नेशनल सेंटर फॉर एग्रीकल्चरल इकोनॉमिक्स एंड पालिसी रिसर्च द्वारा किए गए शोध में पर्यावरण के कारण होने वाली प्राकृतिक विभीषिका का एक और आयाम सामने आया है। इससे पता चला है कि समुद्र तटीय पट्टी के केंद्रपाड़ा और अन्य जिलों में सूखे की तीव्रता बढ़ गई है। स्थिति की विडंबना यह है कि ग्लोबल वार्मिग बढ़ाने में कोई योगदान न करने वाले लोगों पर इसका सर्वाधिक बुरा प्रभाव पड़ रहा है। जहां भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 1.31 टन है, जबकि अमेरिका में 19.18 टन तथा कनाडा में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 17.27 टन। लेकिन ग्लोबल वॉर्मिग का कहर सारी दुनिया को भोगना पड़ रहा है। भारत के सुंदरवन के मछुआरे, लकड़हारे और शहद इकट्ठा करने वाले ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कोई भूमिका नहीं निभाते, पर उन्हें अपने घर छोड़कर आजीविका के लिए शहरों में पलायन करना पड़ता है, क्योंकि विकसित देश ग्लोबल वॉर्मिग बढ़ाने में सर्वाधिक योगदान करते हैं। विश्व बंैक के एक अधिकारी के अनुसार, ज्यादा चिंता का कारण यह है कि पर्यावरण बदलाव के कारण आने वाले सूखे और बाढ़ों का दुनिया भर में व्यापक प्रभाव है और इसका कृषि पर प्रभाव पड़ेगा। इससे पैदावार में कमी आएगा और खाद्य पदार्थो की मुद्रास्फीति बढ़ेगी। जहां अधिकांश देश खाद्य मुद्रास्फीति का मुकाबला कर रहे हैं। भारत पर इसका खतरा सबसे अधिक है, क्योंकि मध्य आय और निम्न आय वर्ग समूहों के लोग अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा भोजन पर खर्च करते हैं। इससे देश की आर्थिक स्थिति पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है। वैज्ञानिकों के अनुसार, आपदा की इन घटनाओं की संख्या और गंभीरता दोनों में बढ़ोतरी हो रही है तथा जलवायु परिवर्तन के मद्देनजर मौसम की वजह से आपदा की घटनाएं बढ़ेंगी और इसका दायरा भी फैलेगा। जनसंख्या वृद्धि नगरीकरण, वैश्वीकरण, भूमि उपयोग की अकुशल योजनाएं, देश में आपदा पूर्व तैयारी, प्रबंधन संरचना की त्रुटियों के कारण जान-माल और आर्थिक समृद्धि पर खतरा बढ़-चढ़कर दिखाई दे रहा है। हर वर्ष आपदा के दौरान होने वाले नुकसान को कम करने के प्रयास सरकार और जनता दोनों की तरफ से होते हैं, लेकिन बार-बार आने वाली बाढ़, सूखा और आगजनी की घटनाएं, सिंचाई उपायों के संकट से आम आदमी पर जाोखिम बढ़ता जा रहा है, जबकि इनसे मुकाबला करने की ताकत घट रही है। जलवायु परिवर्तन को लेकर वैश्विक स्तर पर चल रहा वार्ताओं का दौर पटरी से उतरा प्रतीत हो रहा है। इसमें जो दांव पर लगा है, उसकी अहमियत को देखते हुए इसे सही दिशा में ले जाने की जरूरत है, लेकिन विकसित देश डरबन के लिए एजेंडा तय करने की दिशा में कानकुन समझौते के सीमित प्रावधानों को मान उसे कुछ कमजोर स्वरूप में अपनाना चाहते है, मगर कुछ शब्दाडंबरों के साथ जैसा कि वर्ष 2007 में बाली सम्मेलन में किया गया था। भारत सहित विकासशील देश चाहते हैं कि बाली कार्ययोजना से अलग मुद्दों पर जरूरी ध्यान दिया जाना चाहिए। आखिर में एक समझौते पर सहमति बनी, लेकिन अब देखने वाली बात यह होगी कि आगे की अहम वार्ताओं के दौर में यह कारगर साबित होगी या नहीं। विकसित देश क्योटो प्रोटोकाल को लेकर ग्रीनहाउस गैसों को अपनी कटौती के लक्ष्यों के दूसरे दौर की प्रतिबद्धता को टालकर जश्न मनाते नजर आ रहे हैं, जो अवधि 2013 में प्रारंभ होगी। इसके अतिरिक्त कई तकनीकी मुद्दों पर भी चिरपरिचित तर्को को पेश किया गया। जैसा कि नजर आ रहा है विकासशील देश जोर दे रहे हैं कि राजनीतिक प्रक्रिया को वरीयता दी जानी चाहिए। इस बात के भी संकेत मिले कि भीमकाय विकासशील देशों को भी उत्सर्जन कटौती मानकों पर खरा उतरना चाहिए। विकसित देशों के बीच तकनीकी प्रक्रिया की स्थापना पर कुछ बात आगे बढ़ी, जबकि ग्रीन फंडा के मामले में कानकुन में सहमति थी। यह भी स्पष्ट नहीं है कि वर्ष 2010-12 के लिए जो तेजी से वित्त मुहैया कराने हेतु 30 अरब डॉलर की साधारण-सी रकम या फिर 100 अरब डॉलर की राशि पर कोई सहमति बन पाएगी। कानकुन में जिस एक बात पर सबसे कम तवज्जो दी गई, वह यह कि किसी भी वैश्विक जलवायु परिवर्तन व्यवस्था में दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और सबसे बड़े प्रदूषक अमेरिका को इसमें शामिल करना। इस मामले में बातचीत कमजोर प्रक्ति्रया बन गई है, जिसमें जलवायु परिवर्तन से संबद्ध संयंुक्त राष्ट्र प्रारूप संधि यानी यूएनएफसीसीसी की प्रतिबद्धता से संबंधित बहुस्तरीय और अंतरराष्ट्रीय कानूनी स्वरूप अमेरिका को संदेह करने के लिए लगातार कमजोर हुआ है। अमेरिका एक महत्वाकांक्षी वैश्विक जलवायु परिवर्तन दौर को अपने असहयोग का डर दिखाकर और लगातार कमजोर कर फायदा उठाता रहा है, लेकिन क्या यह ऐसे संकेत हैं कि अब वह ध्यान देना चाहता है। किसी भी सूरत में वह एक कमजोर वैश्विक व्यवस्था का ही हिस्सा बनेगा, जो वैश्विक जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से आवश्यक रूप से नहीं निपट पाएगी। इस साल जलवायु परिवर्तन का असर अमेरिका पर भी पड़ा है। वहां भयंकर विनाशकारी तूफान आए हैं। इसलिए अब डरबन में होने वाली बैठक में यह देखना है कि क्या अमेरिका के रुख में कोई बदलाव आया है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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