Saturday, May 7, 2011

हरित अदालतें और पर्यावरणीय चिंता


 हमारे देश में पर्यावरण विनाश के कारण मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर से संबधित मामलों में लगातार इजाफा हो रहा हैं। उद्योगों से निकलने वाली क्लोरो-फ्लोरो कॉर्बन गैसें, जीएम बीज, कीटनाशक दवाएं व आधुनिक विकास से उपजे संकट जैव विविधता को खत्म करते हुए पर्यावरण संकट को बढ़ावा दे रहे हैं। इन मुद्दों से जुड़े मामलों को निपटाने के लिए अब देश में हरित न्यायालय खोलने की तैयारी शुरू हो गई है। इसके लिए अलग से कायदे-कानूनों के तहत मुकादमों को निपटाने और दंड तय करने के प्रावधान बनाए जाएंगे। अभी ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में हरित न्यायालय वजूद में हैं। इस नजरिए से दुनिया में भारत अब तीसरा ऐसा देश होगा, जहां हरित न्यायाधिकरण गठित होंगे। इन न्यायालयों के परिणाम पर्यावरण और मूल रूप से दोषियों के विरुद्ध दंडात्मक कार्रवाई करने में कितने सक्षम साबित होंगे, फिलहाल कुछ कहा नहीं जा सकता। अब पर्यावरण हानियां व्यक्तिगत न रहकर देसी-विदेशी बड़ी कंपनियों के हित साधन के रूप में देखने में आ रही हैं, जो देश के कायदे-कानूनों की परवाह नहीं करतीं। दूसरी तरफ कानूनों में ऐसे पेच डाले जा रहे हैं कि नुकसान की भरपाई के लिए अपीलकर्ता को सोचने को मजबूर होना पड़े। ऐसे में इन न्यायालयों की कोई निर्विवाद व कारगर भूमिका सामने आएगी, ऐसा फिलहाल लगता नहीं है। हरित न्यायालय की चार खंडपीठ देश के अलग-अलग हिस्सों में होंगी। इन्हें वन एवं पर्यावरण मंत्रालय स्थापित करेगा। इन अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्तियों को लेकर उठे सवाल पर मद्रास उच्च न्यायालय ने स्थगन दे दिया था, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने रोक हटाकर इन अदालतों को खोले जाने का मार्ग प्रशस्त करते हुए फौरान न्यायाधिकरणों को वजूद में लाने की हिदायत दी है। फिलहाल पर्यावरण से जुड़े पांच हजार से भी ज्यादा मामले विभिन्न अदालतों में लंबित हैं। निचली अदालत से प्रकरण का निराकरण होने पर इसकी अपील उच्च न्यायाल्य में ही की जा सकेगी, लेकिन अब इस दायरे में आने वाले सभी मामले हरित न्यायालयों को स्थानांतरित हो जाएंगे और नए मामलों की अर्जियां भी इन्हीं अदालतों में सुनवाई के लिए पेश होंगी। यह स्थिति उन लोगों के लिए कठिन हो जाएगी, जो पर्यावरण संबंधी मुद्दों को पर्यावरण संरक्षण और जनहित की दृष्टि को सामने रखकर लड़ रहे हैं। क्योंकि फिलहाल सिर्फ चार हरित अदालतों का गठन देश भर के लिए होना है। ऐसे में उन लोगों को तो सुविधा रहेगी, जिन राज्यों में यह खंडपीठ अस्तित्व में आएंगी। लेकिन दूसरे राज्य के लोगों को अपनी अर्जी इतनी दूर जाकर लगाना मुश्किल होगा। यह एक व्यावहारिक पहलू है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इस समस्या का हल भी तब तक निकलने वाला नहीं है, जब तक खंडपीठों की स्थापना हरेक राज्य में न हो जाए। इन अदालतों में मामला दायर करते वक्त फरियादी या समूह को होने वाली संभावित पर्यावरणीय हानि की एक प्रतिशत धन राशि शुल्क के रूप में अदालत में जमा करनी होगी। तभी हर्जाने की अपील मंजूर होगी। इस बाबत यदि यूनियन कारबाइड से हर्जाना प्राप्त करने का मामला हरित न्यायाधिकरण में दायर किया जाए तो लड़ाई लड़ रहे संगठन को दस करोड़ रुपये बतौर शुल्क जमा करने होंगे। इस तरह की विसंगति या जटिलिता किसी अन्य कानून में नहीं हैं। जाहिर है शुल्क की यह शर्त बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों को ध्यान में रखकर नीति नियंताओं ने कुटिल चतुराई से गढ़ी है। वैसे भी मौजूदा दौर में केंद्र और राज्य सरकारें गरीब और लाचारों के हित पर सीधा कुठाराधात कर रही हैं। पॉंस्को स्पात कंपनी को हाल ही में पर्यावरण व वन मंत्रालय ने लौह अयस्क उत्खनन की मंजूरी दी है। यह मंजूरी 4 हजार गरीबों को उनकी रोजी-रोटी से वंचित करके दी गई है। खुद जयराम रमेश ने कुछ समय पहले पॉंस्को के औचित्य पर सवाल खड़ा करते हुए कहा था कि कंपनी ने प्रभावित आदिवासियों के हितों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं की है, लेकिन अब जयराम पॉंस्को के सुर में सुर मिलाते हुए पॉंस्को प्रतिरोध संग्राम समिति के सचिव शिशिर महापात्र के खिलाफ कानूनी करवाई करने की वकालत कर रहे हैं। कमोबेश ऐसा ही हश्र जैतापुर परमाणु बिजली परियोजना का विरोध करने वाले लोगों के साथ हो रहा है, जिसमें पर्यावरण हानि के चलते लोगों को बेघर और बेरोजगार कर देने के हालात साफ दिखाई दे रहे हैं। राज्य सरकार की शह पर पुलिस अंादोलनकारियों के दमन पर उतर आई है। उनकी गिरफ्तारी कर उन्हें झूठे मुकदमों में फंसाने का सिलसिला शुरू हो गया है। राज्य सरकार यह भी झूठा दावा कर रही है कि अधिग्रहण के लिए प्रस्तावित जमीन बंजर है, जबकि यह इलाका धान उत्पादक क्षेत्रों में गिना जाता है। यहां के अलफांसो आम की किस्म तो देश-विदेश में प्रसिद्ध है। आम बगीचों के माली इन्हीं आमों को बेचकर पूरे साल की रोजी-रोटी कमाते हैं। राज्य सरकार भी इस परमाणु परियोजना के सामने आने से पहले पूरे अमराई क्षेत्र को बागों का दर्जा दे चुकी है। ये लोग यदि अपने पर्यावरणीय नुकसान के मुआवजे की मांग रखने हरित अदालत जाएंगे तो शायद अदालत की फीस जमा करने लायक धनराशि भी नहीं जुटा पाएंगे, जबकि ये लाचार लोग न तो पर्यावरण बिगाड़ने वाले लोगों की कतार में शामिल हैं, न ही प्रदूषण फैलाने वालों में और न ही प्राकृतिक संपदा का अंधाधुंध दोहन कर उसका उपभोग करने वाले लोग हैं, जबकि आजीविका इनकी छीनी जा रही है। इनका स्वास्थ्य बिगाड़ने के भी भरपूर इतंजाम किए जा रहे हैं। जीएम बीजों और कीटनाशकों के फसलों पर छिड़काव से भी बड़ी मात्रा में इनसे जुड़े लोगों की आजीविका को हानि और खेतों को क्षति पहुंच रही है। दुनिया के पर्यावरणविदों और कृषि वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि जीएम बीजों से उत्पादित फसलों को आहार बनाने से मानव समुदायों में विकलागंता और कैंसर के लक्षण सामने आ रहे हैं। खेतों को बंजर बना देने वाले खरपतवार खेत व नदी नालों का वजूद खत्म करने पर उतारू हो गए हैं। बाजार में पहुंच बनाकर मोंसेंटो जीएम बीज कंपनी ने 28 देशों के खेतों को बेकाबू हो जाने वाले खरपतवारों में बदल दिया हैं। यही नहीं, जीएम बीज जैव विविधता को भी खत्म करने का करण बन रहे हैं। भारत की अनूठी, भौगोलिक और जलवायु की स्थिति के चलते हमारे यहां फलों की करीब 375 किस्में हैं। धान की 60 हजार किस्में, सब्जियों की लगभग 280 किस्में, कंदमूल की 80 किस्में और मेवों व फूल बीजों की ऐसी 60 किस्में हैं, जो स्वास्थ लाभ हेतु दवा के रूप में इस्तेमाल होते हैं। इन पर्यावरणीय हानियों के मुकदमे एक प्रतिशत फीस की शर्त के चलते एक तो हरित अदालतों में दायर होना ही मुश्किल है और यदि दायर हो भी जाते हैं तो अदालतें वास्तविक हानि का मुआवजा फरीक को दिला भी पाएंगी या नहीं, यह कहना फिलहाल जल्दबाजी होगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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