Wednesday, May 25, 2011

जिंदगी में जहर घोलता दूषित जल


देश की जिन नदियों में कभी पानी की निर्मल धारा बहती थी, आज वहां दुर्गध और सड़ांध के भभके उठते रहते हैं। इन नदियों का पानी प्रदूषण के खतरे की सभी सीमाएं पार कर चुका है। देश के बहुत से हिस्सों में जमीन के नीचे का पानी पीने लायक नहीं रह गया है। उसमें अनेक विषैले रसायन और स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक धातुएं मिल चुकी हैं। पंजाब के भटिंडा इलाके में विशेषज्ञों के एक संयुक्त अध्ययन में पाया गया है कि भटिंडा में भूजल और मिट्टी में विषैले रसायन घुले हैं। पिछले साल उत्तर प्रदेश और बिहार में गंगा के तटवर्ती इलाकों में भी भूजल के विषाक्त होने की पुष्टि हुई थी। तमाम दावों के बावजूद हर बस्ती तक साफ पानी की आपूर्ति का लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सका है। इसके कारण बहुत सारे लोग नलकूप, कुएं, नदियों, झरने आदि का पानी पीने को मजबूर हैं। देश के बीस राज्यों में बहने वाली 38 प्रमुख नदियों की सफाई पर पिछले दस सालों में लगभग 26 अरब रुपये खर्च किए गए, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। इन नदियों में यमुना, गंगा, गोमती, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, दामोदर, महानंदा, सतलुज जैसी बड़ी नदियां शामिल हैं। इनमें से एक-एक नदी की सफाई के लिए संबंधित राज्यों को सैकड़ों करोड़ रुपये दिए गए। न तो आवंटित रकम कम थी और न ही एक दशक का समय छोटा कहा जा सकता है। फिर भी इन नदियों का पानी स्वच्छ होने के बजाय कई जगह जहरीला हो गया। उनमें पाई जाने वाली मछलियां और अन्य जीव-जंतु भी मर गए। ये तथ्य इस बात का इशारा करते हैं कि पैसा जरूर पानी की तरह बहाया गया, पर वह निर्धारित मकसद में नहीं लगा। उसे कोई और डकार गया। यदि राजनेता और बड़े-बड़े अधिकारी योजनाओं की निगरानी भी नहीं कर सकते हैं तो उनके होने न होने का क्या मतलब हो सकता है? नदियों को प्रदूषण मुक्त बनाने की कई योजनाएं चल रही हैं, लेकिन दो हजार करोड़ रुपये खर्च करने के बाद भी गंगा मैली की मैली ही है। हरिद्वार से हुगली तक उसका पानी आचमन लायक भी नहीं रहा। दूसरी नदियों का हाल तो और भी बुरा है। यमुना के पुश्ते पर जो सब्जियां उगाई जाती हैं, वे दोहरे प्रदूषण की शिकार हैं। उनमें जैविक और रसायनिक प्रदूषण की मात्रा बहुत ज्यादा है। देश के 70 प्रतिशत शहरों में आज भी पेयजल की आपूर्ति नदियों से ही हो रही है, लेकिन 70 प्रतिशत बीमारियां भी प्रदूषित जल के कारण हो रही हैं, क्योंकि जमीन के भीतर की ऊपरी सतह का जल भी प्रदूषण की चपेट में है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस प्रदूषण को रोकने या खत्म करने के लिए भारी भरकम बजट वाली योजनाएं बनी हैं। इन योजनाओं पर अरबों रुपये भी खर्च भी किए जा चुके हैं, लेकिन सफाई के मामले में इसकी हालत ज्यों की त्यों है। यह देखकर अचरज होता है कि आखिर हमारा सरकारी तंत्र करता क्या है? हर काम उसके नियंत्रण में है, लेकिन वह किसी कार्यक्रम या योजना के क्रियान्वयन के लिए जिम्मेदार नहीं है। कैग की रिपोर्ट में इस तथ्य का खासतौर से उल्लेख किया गया है कि जल प्रदूषण और बर्बादी को रोकने के लिए 1974 में जो कानून बनाया गया था, उसे लागू करने के लिए शायद ही कुछ किया गया हो। हरियाणा में छह सौ से ज्यादा ऐसी औद्योगिक इकाइयां काम कर रही हैं, जो बिना किसी अनुमति के नदियों और जल स्रोतों को प्रदूषित कर रही हैं। हिमाचल प्रदेश में 58 नगर पालिकाएं मल-मूत्र नदियों में बहा रही हैं। कर्नाटक, महाराष्ट्र, उड़ीसा, बिहार, उत्तर प्रदेश आदि प्रदेशों में भी कमोबेश यही हाल है। इन प्रदेशों में गुजरने वाली नदियां बड़े शहरों और बड़े-बड़े कारखानों के लिए गटर का काम कर रही हैं, जो इनका सारा कचरा और रसायन अपने भीतर समेट लेती हैं। लेकिन हमारे पेयजल का स्रोत भी यही नदियां हैं और उनका ही जल भूमिगत जल स्रोतों में भी मिलता है। इन नदियों या भूमिगत स्रोतों से जो जल पीने के लिए दिया जा रहा है, दरअसल वह पीने योग्य नहीं रह गया है। सरकार और उसका तंत्र यदि अपनी जनता को पीने योग्य जल भी उपलब्ध नहीं करा सकते तो उनका होना न होना बराबर है। कानून के साथ हम जो छल करते हैं, उसका नतीजा पूरे समाज और उसकी भावी पीढि़यों को भी भोगना पड़ेगा। यमुना को प्रदूषण से बचाने के लिए सुप्रीमकोर्ट को भी बार-बार हस्तक्षेप करना पड़ा, लेकिन फिर भी स्थिति में कोई आशाजनक सुधार नहीं हुआ है। गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, सिंधु और कावेरी सहित कई दूसरी नदियां भी बुरी तरह प्रदूषित हो चुकी हैं। देश की 13 प्रमुख नदियों का अस्तित्व खतरे में है। इनके पानी के बंटवारे के नाम पर समय- समय पर राज्यों के झगड़े भी होते रहते हैं, क्योंकि इनके पानी से ही शहरों और औद्योगिक क्षेत्रों की जरूरतें पूरी की जाती हैं। कई नदियों में तो पानी इतना कम हो जाता है कि गर्मियों में वे सिर्फ शहरी और कारखानों के कचरे का नाला बनकर ही रह जाती है। देश की 13 प्रमुख नदियों के तटीय क्षेत्र के कस्बों में चर्म रोग पनप रहे हैं। इनमें पाई जाने वाली लाखों मछलियां मर चुकी हैं। कुल मिलाकर हमारी नदियों के कचरे और नगरों के गंदे पानी से बीमारी मौतवाहक बनती जा रही है। अभी तक इसकी साफ-सफाई की ओर खास ध्यान नहीं दिया गया है। नगरों की जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ यह समस्या गंभीर होती जा रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, भारत में प्रतिवर्ष पांच करोड़ व्यक्ति प्रदूषित जल को पीने के कारण बीमार होते हैं। इनमें से 20 लाख व्यक्ति हर वर्ष मर जाते हैं। इन बीमारियों के इलाज के लिए 500 करोड़ रुपये सालाना खर्च होते हैं। शहरों की आबादी का मुख्य जल स्रोत हमारी नदियां ही हैं, पर आज देश की नदियों का जल कुंओं से ज्यादा खराब है। उसमें भारी प्रदूषण है। कल-कारखानों के कचरे के पानी में मिल जाने के कारण पानी में क्लोरीन डालकर उसे साफ करने का तरीका अब बेकार ही नहीं, घातक हो गया है। एक तो क्लोरीन अमीबा पेचिस के जीवाणु को नष्ट नहीं कर सकती। दूसरे यह औद्योगिक कचरे में मौजूद कार्बनिक रसायनों के साथ मिलकर क्लोरोमफार्म सहित छह कैंसरजनक तत्व पैदा करती है। इसलिए यदि नदियों में औद्योगिक कल-कारखानों और शहरों की आबादी का गंदा पानी नदियों में डालने की परंपरा बंद नहीं हुई तो देशवासियों का जीवन अगले तीस-चालीस वर्षो के भीतर ही घनघोर संकट में पड़ जाएगा। वास्तव में विदेशों से इतना अधिक कर्ज लेने के बाद भी भारत अपने नागरिकों को पीने का साफ पानी भी उपलब्ध नहीं करा सका है। इस समस्या से बचने का एक ही रास्ता है कि नागरिक उठ खड़े हों और जल स्रोतों को गंदा करने वाले कल-कारखानों के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दें। पर्यावरण की सुरक्षा आज इस देश की सबसे बड़ी समस्या है। अब आज और कल के मनुष्य का अस्तित्व इसी पर निर्भर है। संतोष की बात है कि इस संदर्भ में अदालतें महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं, लेकिन यह जनता का भी काम है कि वह अपनी नदियों को साफ-सुथरा रखे।


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