Wednesday, May 11, 2011

रेत में लोटती हरियाली


सूखी भूमि को हरा-भरा करने का कार्य बहुत सार्थक है। बहुत जरूरी है, सब मानते हैं, फिर भी न जाने क्यों पौधरोपण व वनीकरण के अधिकांश कार्य उम्मीद के अनुकूल परिणाम नहीं दे पाते हैं। खर्च अधिक होने पर भी बहुत कम पेड़ ही बच पाते हैं। इस तरह के अनेक प्रतिकूल समाचारों के बीच यह खबर बहुत उत्साहवर्धक है कि राजस्थान में सूखे की अति प्रतिकूल स्थिति के दौर में भी एक लाख से अधिक पेड़ों को पनपाने का काम बहुत सफलता से किया गया है। उल्लेखनीय बात यही है कि यह सफलता घोर जल संकट के दौर में प्राप्त की गई। इतना ही नहीं, यह कार्य अपेक्षाकृत कम लागत पर किया गया व जो भी खर्च हुए उसका बड़ा हिस्सा गांववासियों को ही मजदूरी के रूप में मिल गया। अजमेर जिले का सिलोरा (किशनगढ़) ब्लाक की तीन पंचायतों टिकावड़ा, नलू व बारा सिंदरी में बबूल, खेजड़ी, शीशम, नीम आदि के एक लाख से अधिक पौधे बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों में गांववासियों ने पनपाए हैं। इसकी शुरुआत वर्ष 1987 के आसपास हुई जब केंद्र सरकार व राष्ट्रीय परती विकास बोर्ड ने विभिन्न संस्थाओं व व्यक्तियों को परती भूमि को हरा-भरा करने के कायरे के लिए आमंत्रित किया। जिले की एक प्रमुख संस्था बेयरफुट कॉलेज ने चार-पांच पंचायतों में यह कार्य आरंभ किया। बाद में कुछ अन्य संस्थाओं ने (विशेषकर नलू पंचायत) भी इसमें अपना योगदान दिया। गांववासियों की पूरी भागेदारी से कार्य करने की नीति को समर्पित इस संस्था ने विभिन्न पंचायतों में चरागाह विकास समितियों की स्थापना की। गांववासियों के सहयोग से कार्यक्रम व नियम बनाए गए। सभी समुदायों को समिति में स्थान दिया गया। महिलाओं की भागीदारी विशेष तौर पर प्राप्त की गई। सबसे बड़ी कठिनाई चूंकि पानी की कमी की थी। अत: यह कार्य प्राय: जल-संग्रहण व संरक्षण प्रयासों से आरम्भ किया गया। मेड़बंदी की गई। चेक डैम व एनीकट बनाए गए। कुएं खोदे गए। पाईप लाइनों से कुंए का पानी दूर-दूर तक पहुंचाया। मटकों में छेद कर उन्हें रोपे गए पौधों की जड़ों के पास रखा गया ताकि बूंद-बूंद पानी मिलता रहे। भुरभरी उपजाऊ मिट्टी लाकर पौधों के लिए खोदे गए गड्ढों में डाला गया। इन प्रयासों के बावजूद सूखे के कुछ वर्ष इतने कठिन थे कि कुछ पौधे सूख गए पर अधिकांश को बचाया जा सका। नलू पंचायत में इस प्रयास से जुड़ी रही वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता रतन बहन कहती हैं, ‘जब हम पौधे रोपते जाते थे तो लगता था जैसे एक-एक पौधा हमसे कह रहा था कि मुझे यहां लगाओ, मुझे पानी दो। उस समय तो बस ये पौधे ही हमारे जीवन का केन्द्र बन गए थे।
वे बताती हैं, ‘कई मुश्किलें आई और कुछ झगड़े भी हुए। दो गांवों की चरागाह सीमा को लेकर ही बड़ा विवाद आरंभ हो गया। पर किसी तरह इन झगड़ों और तनावों को सुलझाकर कार्य आगे बढ़ता रहा। टिकावड़ा पंचायत क्षेत्र की वनीकरण कार्यक्रम समन्वयक कलावती ने बताया, गांववासियों से इस बारे में निरंतर परामर्श चलता रहा कि धीरे-धीरे जो हरियाली लौट रही है, उसे पशुओं के चरने से कैसे बचाया जाए। इस बारे में बहुत मतभेद भी हो जाते थे पर किसी न किसी तरह ऐसा अनुशासन बनाया गया कि हरियाली खतरे में न पड़े।
टिकावड़ा व नलू पंचायत में तो यह प्रयास सफल रहा, पर तिलोनिया गांव में स्थिति बिगड़ गई। यहां पंचायत चुनाव से पहले बड़े संकीर्ण स्वार्थ के शक्तिशाली व्यक्तियों ने इशारा कर दिया कि जो चाहे लकड़ी काट सकता है। वर्षो की मेहनत से पनपाए गए पेड़ों को रातोंरात कई लोगों ने काट लिया। यहां ध्यान देने की बात है कि इस पंचायत में 50 वर्षो से एक ही परिवार का आधिपत्य चल रहा था। पिछले चुनाव में उसे हटाया जा सका पर वन-विनाश का तांडव इससे पहले ही हो चुका था। इससे पता चलता है कि बेहद निष्ठा से प्राप्त की गई सफलता को भी स्वार्थी संकीर्ण तत्वों से बचाना कितना जरूरी है, अन्यथा दस-बीस वर्षो की मेहनत दो- चार दिनों में नष्ट हो सकती है। फिलहाल टिकावड़ा, नलू व बारा सिंदरी पंचायतों में खड़े एक लाख से अधिक पेड़ बता रहे हैं कि बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों में सूखी बंजर धरती को हरा-भरा करने का कार्य सफलता से हो सकता है। यहां गांववासियों को चारा, ईधन, सब्जी की उपलब्धि बढ़ी है। उनके पशुपालन का आधार मजबूत हो गया है क्योंकि अधिक पशुओं के लिए चारा उपलब है। धरती की जल-ग्रहण क्षमता बढ़ गई है। इसके साथ अनेक वन्य जीवों व पक्षियों को जैसे नवजीवन मिल गया है। एक समय बंजर सूखी रही इस धरती पर जब हम घूम रहे थे तो पक्षियों के चहचहाने के बीच हमें नीलगाय के झुंड भी नजर आए। वह हरियाली उनके लिए भी उतना ही वरदान है जितना गांववासियों के लिए।


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