Wednesday, May 25, 2011

फिर भी मैली रहेगी गंगा


लेखक राजनीतिक इच्छाशक्ति और जनभागीदारी के अभाव को गंगा कार्य योजना की विफलता का प्रमुख कारण बता रहे हैं...
केंद्र सरकार ने गंगा की सफाई के लिए फिर सैकड़ों करोड़ रुपये जारी कर दिए हैं। 1986 से गंगा कार्य योजना के नाम पर अरबों की राशि फूंकी जा चुकी है, लेकिन गंगा साफ होने के बजाए और मैली हो गई है। विश्व में केवल गंगा नदी में पाया जाने वाला रेडियो आइसोटोप रेडन नामक तत्व अब विलुप्त होता जा रहा है। इसके कारण ही गंगाजल में कीड़े नहीं पड़ते। गंगा में कोलिफॉर्म बैक्टीरिया की दर 500 से अधिक नहीं होनी चाहिए, वह अब हजारों में पहुंच चुकी है। गंगा के बहाव क्षेत्र में खेतों में पैदावार की दर में 30 से 60 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की जा रही है। गंगा कार्य योजना सरकार की नाकामी और जनता की लापरवाही का अद्भुत नमूना है। इस योजना की शुरुआत ही राजनीतिक हित साधने के लिए की गई थी। 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने संतो-महंतों को खुश करने के लिए गंगा कार्य योजना इसलिए शुरू की ताकि राम मंदिर के खुदबुदाते हिंदू जनाक्रोश का फायदा भाजपा न उठा ले जाए। इस योजना को लागू करते समय न तो पर्याप्त होमवर्क किया गया और न ही आगे चलकर इसकी नाकामियों से सबक लिया गया। 1986 में वाराणसी में गंगा को साफ रखने के लिए तीन सीवेज शोधक संयंत्र लगाए गए, ताकि सीवर का मल-जल गंगा में न मिले। लेकिन ये संयंत्र जल्द ही सफेद हाथी बन गए। ये विदेशों से आयात किए गए थे और भारतीय भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप नहीं थे। वाराणसी का दानापुर संयंत्र तो कभी शुरू ही नहीं हुआ। 1995-96 में कैग ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि बिहार सरकार ने गंगा कार्य योजना के करोड़ों रुपये बिना खर्च किए वापस कर दिए। यह सरकारी उदासीनता का एक बड़ा उदाहरण है। हरिद्वार में गंगा की सफाई के दौरान अधिकारियों ने हर की पैड़ी में गंगा नहर की सफाई कर डाली। बाद में जांच में इन अधिकारियों की खूब खिंचाई की गई और सरकार से पूछा गया कि ऐसा स्टॉफ इस कार्य योजना में क्यों नियोजित किया गया, जिसे गंगा नदी और गंगा नहर का अंतर ही मालूम नहीं है। पर्यावरणविद् प्रो. वीरभद्र मिश्र के अनुसार गंगा कार्य योजना सरकारी योजनाओं की नाकामी का एक रोल मॉडल है। गंगा कार्य योजना शुरू से ही सरकार द्वारा प्रायोजित है। जनभागीदारी इसमें शून्य रही है। पर्यावरणविद् एमसी मेहता के अनुसार यही इसकी असफलता का कारण भी है। जनता को खुद अपनी जिम्मेदारियों का अहसास नहीं है। उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल के उद्योगों से 134 करोड़ लीटर औद्योगिक अवशिष्ट प्रति वर्ष गंगाजल में मिलता है। घरेलू गंदे पानी का आंकड़ा 26 करोड़ लीटर है। कीटनाशक, उर्वरक, अधजले शवों के आंकड़े संख्यातीत है। गंगा किनारे लगने वाले कुंभ मेले या अन्य धार्मिक मेले पतित पावनी गंगा में पाप के साथ इतनी गंदगी धो देते हैं कि गंगा का स्वरूप विकृत हो चला है। अधजले शवों को खाने के लिए एक बार इलाहाबाद और वाराणसी में कछुए छोड़े गए, लेकिन लोग कछुओं को ही मारकर खा गए। गंगा में ऑक्सीजन की घटती मात्रा के कारण उसमें मछलियों का अकाल पड़ता जा रहा है। इसीलिए गंगा की जो बस्तियां आबाद हुई थीं, वे अब उजड़ती जा रही हैं। पर्यावरणविद् जेएल कुशवाहा के अनुसार अब गंगा का जल केवल कल्पना में ही शुद्ध हो सकता है। गंगा केवल एक नदी भर नहीं है। गंगा के विलुप्त होते ही भारत के न जाने कितने तीर्थ, कितने ऋषि, कितना साहित्य अपने प्राण खो देंगे। नेहरूजी ने अपनी पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया में लिखा है कि किसी को भारतीय इतिहास का प्रवाह देखना हो तो वह गंगा का प्रवाह देखे। गंगाजल जीवन और मृत्यु का प्रथम साक्षी है। गीता में कृष्ण कहते है कि मैं वृक्षों में पीपल हूं और नदियों में गंगा। हमारे देश में और देश के बाहर गंगा से प्राचीन, उससे विशाल, उससे लंबी नदियां हैं, लेकिन गंगा की तरह प्राणवान कोई नहीं है। अंग्रेजी साहित्य में जॉर्डन नदी को इसीलिए ईसाई धर्म की गंगा कहा गया है, क्योंकि जान बपतिस्मा उसके जल से लोगों को धर्म में दीक्षित करते थे। तुगलक जैसा मुस्लिम बादशाह केवल गंगाजल से स्नान करता था। सूफी साहित्य में सूफी फकीरों द्वारा गंगाजल को मंत्राभिसिक्त कर अपने मुरीदों में बांटने के प्रमाण हैं। इकबाल ने अपने तराने सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा में गंगा को हिंदुस्तान की आबरू कहा है। प्राची में सविता के उगते ही साधु-संत गंगाजल में खड़े होकर अ‌र्घ्य देते हैं। गंगोत्री से खाड़ी तक भगीरथी के प्रवाह के किनारे न जाने कितने लोग ध्यानमग्न और समाधिस्थ मिल जाएंगे। खापों और पंचायतों में आज भी गंगाजल शपथ का साक्षी है। गंगा की सफाई किसी नदी की सफाई नहीं है। यह भारत के अंत:करण का शुद्धि अभियान है। यह दुखद है इसमें जनभागीदारी दरकिनार है, केवल सरकार ही सरकार है, इसीलिए सब गुड़गोबर है। गंगा कार्य योजना के 26 वर्ष पूरे हुए, अरबों रुपये स्वाहा हुए, इसमें अभी कुछ अंक और जुड़ेंगे, जुड़ते जाएंगे, लेकिन गंगा का प्रदूषण नहीं रुकेगा। बस इसमें गंगा विलाप के कुछ अध्याय और जुड़ते जाएंगे। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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