आर्थिक मामलों की केबिनेट कमेटी ने हाल में गंगा की सफाई के लिए सात हजार करोड़ की महत्वाकांक्षी परियोजना पर मुहर लगा दी है। तीव्र औद्योगिकरण, शहरीकरण और प्रदूषण से अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही गंगा को बचाने के लिए अब तक की यह सबसे बड़ी परियोजना होगी। गंगा को साफ करने की पिछली परियोजनाओं की कामयाबी और नाकामयाबियों से सबक लेते हुए इस परियोजना को बनाया गया है जिसके तहत पर्यावरणीय नियमों का कड़ाई से पालन करना, नगर निगम के गंदे पानी के नालों, औद्योगिक प्रदूषण, कचरे और नदी के आस-पास के इलाकों का बेहतर और कारगर प्रबंधन शामिल है। परियोजना का मकसद गंगा-संरक्षण के साथ ही नदी घाटी जुड़ाव द्वारा पर्यावरणीय प्रवाह व्यापक बनाए रखना है। गंगा को साफ करने के नाम पर खर्च होने वाली कुल राशि में 5100 करोड़ रुपये जहां केंद्र वहन करेगा, वहीं जिन पांच राज्यों में गंगा प्रवाहित होती है, यानी उाराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल सरकारें शेष 1900 करोड़ रुपये का खर्च उठाएंगी। 5100 करोड़ की जो भारी-भरकम राशि केन्द्र को खर्च करनी है, उसमें से 4600 करोड़ रुपए उसे विश्व बैंक से हासिल होंगे। आठ साल की समय सीमा में पूरी होने वाली इस महत्वाकांक्षी परियोजना में ऐसे कई प्रावधान हैं कि यदि इन पर ईमानदारी से अमल हुआ तो गंगा की तस्वीर बदलते देर न लगेगी। केन्द्रीय प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड, जिसकी जिम्मेदारी नदियों में प्रदूषण रोकना है, को पहले से ज्यादा मजबूत बनाया जाएगा। जो शहर गंगा के किनारे बसे हुए हैं, उनमें निकासी व्यवस्था सुधारी जाएगी। औद्योगिक प्रदूषण दूर करने के लिए विशेष नीति बनाई जाएगी। कहने को केन्द्रीय प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड ने कल- करखानों से निकलने वाले कचरे के लिए कड़े कायदे- कानून बना रखे हैं लेकिन आज भी गंगा में इनका प्रवाह रुक नहीं पा रहा है। अकेले कानपुर में रोजाना 400 चमड़ा शोधक फैक्टरियों का तीन करोड़ लीटर गंदा गंगा में मिलता है, जिसमें बड़े पैमाने पर क्रोमियम और रासायनिक बाय प्रोडक्ट होते हैं। यही हाल बनारस का है, जहां हर दिन तकरीबन 19 करोड़ लीटर गंदा पानी खुली नालियों के जरिए गंगा में मिलता है। गंगा सफाई योजना को 25 साल से ज्यादा हो गये हैं और इसकी सफाई पर अरबों बहाये जा चुके हैं लेकिन रिहाइशी कॉलोनियों और कारखानों के गंदे पानी को इसमें मिलने से रोकना मुमकिन नहीं हो पाया है। औद्योगिक इकाइयां जहां मुनाफे के चक्कर में कचरे के निस्तारण और परिशोधन के प्रति लापरवाह हैं वहीं जिम्मेदार राज्य सरकारें और केन्द्रीय प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड कल-करखानों की मनमानियों के जानिब आंखें मूंदें रहते हैं। न्यायपालिका के कठोर रुख के बाद भी सरकारें दोषियों पर कार्रवाई नहीं करतीं। गंगा को साफ करने के लिए 1986 में शुरू हुई कार्य योजना उसी वक्त परवान चढ़ गई होती, यदि इस पर गंभीरता से अमल होता। पांच सौ करोड़ रुपए की लागत से शुरू हुई इस योजना में बीते 15 सालों के दौरान तकरीबन नौ सौ करोड़ खर्च हो गये हैं लेकिन गंगा और प्रदूषित होती जा रही है। भ्रष्टाचार, प्रशासनिक उदासीनता और धार्मिक कर्मकांड मुल्क की सबसे बड़ी नदी को स्वच्छ बनाने की दिशा में लगातार रुकावट बने हुए हैं। गंगा में जहरीला पानी गिराने वाले कारखानों के खिलाफ कठोर कदम नहीं उठाए जाने का ही नतीजा है कि जीवनदायिनी गंगा का पानी कहीं-कहीं बहुत जहरीला हो गया है। आस- पास के इलाकों का भूजल तक इससे प्रदूषित हो रहा है और लोग असाध्य बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। कहा जाता है कि गंगाजल वर्षो खराब नहीं होता क्योंकि इसमें निहित खास वैक्टीरिया इसे प्राकृतिक रूप से शुद्ध रखते हैं। लेकिन अब गंगाजल के बैक्टीरिया खुद को नहीं बचा पा रहे हैं। जिस बनारस में कभी गंगा का जलस्तर 197 फुट हुआ करता था, वहां कई जगहों पर यह महज 33 फुट के करीब रह गया है। गंगा में गाद आज बड़ी समस्या है। गंगा को बांधों ने भी खूब नुकसान पहुंचाया है। ब्रिटिश काल में 1916 में महामना मदनमोहन मालवीय के नेतृत्व में समझौता हुआ था कि गंगा का प्रवाह कभी नहीं रोका जाएगा। संविधान की धारा 363 की भावना भी कमोबेश यही कहती है लेकिन टिहरी में बांध बना गंगा का प्रवाह रोका गया। यही नहीं, उत्तराखंड की मौजूदा सरकार गंगा पर और भी बांध बनाना चाहती है। मुख्यमंत्री निशंक राज्य की नदियों से 10 हजार मेगावाट बिजली पैदा करना चाहते हैं जबकि, बड़े-बड़े दावों के साथ बनाया गया टिहरी बांध आज भी अपने लक्ष्य से एक चौथाई बिजली नहीं बना पा रहा है। उल्टे टिहरी बांध की वजह से गंगा का प्रवाह गड़बड़ा गया है। बांध के आसपास के सौ से भी ज्यादा गांव आज गंभीर जल संकट से जूझ रहे हैं। वही ग्रामीण अपना घरबार छोड़कर मैदानी क्षेत्र में पलायन कर रहे हैं, जिनके कथित हितों के निमित्त यह बनाया गया था। बहरहाल, गंगा-संरक्षण की तमाम चुनौतियों के बावजूद उम्मीदें बाकी हैं। लेकिन इसके लिए सरकारी कोशिशों के अलावा व्यक्तिगत प्रयास भी जरूरी हैं। गंगा की सफाई के लिए भारी-भरकम रकम खर्च करने से ज्यादा जरूरी है, जन-जागरूकता। गंगा से लेते वक्त भूलते रहे हैं कि जिस दिन उसने देना बंद कर दिया, या वह देने लायक नहीं रहेगी, उस दिन हमारा और हमारी आने भावी पीढ़ी का क्या होगा?
Tuesday, May 3, 2011
गंगा को बचाने की नई मुहिम
आर्थिक मामलों की केबिनेट कमेटी ने हाल में गंगा की सफाई के लिए सात हजार करोड़ की महत्वाकांक्षी परियोजना पर मुहर लगा दी है। तीव्र औद्योगिकरण, शहरीकरण और प्रदूषण से अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही गंगा को बचाने के लिए अब तक की यह सबसे बड़ी परियोजना होगी। गंगा को साफ करने की पिछली परियोजनाओं की कामयाबी और नाकामयाबियों से सबक लेते हुए इस परियोजना को बनाया गया है जिसके तहत पर्यावरणीय नियमों का कड़ाई से पालन करना, नगर निगम के गंदे पानी के नालों, औद्योगिक प्रदूषण, कचरे और नदी के आस-पास के इलाकों का बेहतर और कारगर प्रबंधन शामिल है। परियोजना का मकसद गंगा-संरक्षण के साथ ही नदी घाटी जुड़ाव द्वारा पर्यावरणीय प्रवाह व्यापक बनाए रखना है। गंगा को साफ करने के नाम पर खर्च होने वाली कुल राशि में 5100 करोड़ रुपये जहां केंद्र वहन करेगा, वहीं जिन पांच राज्यों में गंगा प्रवाहित होती है, यानी उाराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल सरकारें शेष 1900 करोड़ रुपये का खर्च उठाएंगी। 5100 करोड़ की जो भारी-भरकम राशि केन्द्र को खर्च करनी है, उसमें से 4600 करोड़ रुपए उसे विश्व बैंक से हासिल होंगे। आठ साल की समय सीमा में पूरी होने वाली इस महत्वाकांक्षी परियोजना में ऐसे कई प्रावधान हैं कि यदि इन पर ईमानदारी से अमल हुआ तो गंगा की तस्वीर बदलते देर न लगेगी। केन्द्रीय प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड, जिसकी जिम्मेदारी नदियों में प्रदूषण रोकना है, को पहले से ज्यादा मजबूत बनाया जाएगा। जो शहर गंगा के किनारे बसे हुए हैं, उनमें निकासी व्यवस्था सुधारी जाएगी। औद्योगिक प्रदूषण दूर करने के लिए विशेष नीति बनाई जाएगी। कहने को केन्द्रीय प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड ने कल- करखानों से निकलने वाले कचरे के लिए कड़े कायदे- कानून बना रखे हैं लेकिन आज भी गंगा में इनका प्रवाह रुक नहीं पा रहा है। अकेले कानपुर में रोजाना 400 चमड़ा शोधक फैक्टरियों का तीन करोड़ लीटर गंदा गंगा में मिलता है, जिसमें बड़े पैमाने पर क्रोमियम और रासायनिक बाय प्रोडक्ट होते हैं। यही हाल बनारस का है, जहां हर दिन तकरीबन 19 करोड़ लीटर गंदा पानी खुली नालियों के जरिए गंगा में मिलता है। गंगा सफाई योजना को 25 साल से ज्यादा हो गये हैं और इसकी सफाई पर अरबों बहाये जा चुके हैं लेकिन रिहाइशी कॉलोनियों और कारखानों के गंदे पानी को इसमें मिलने से रोकना मुमकिन नहीं हो पाया है। औद्योगिक इकाइयां जहां मुनाफे के चक्कर में कचरे के निस्तारण और परिशोधन के प्रति लापरवाह हैं वहीं जिम्मेदार राज्य सरकारें और केन्द्रीय प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड कल-करखानों की मनमानियों के जानिब आंखें मूंदें रहते हैं। न्यायपालिका के कठोर रुख के बाद भी सरकारें दोषियों पर कार्रवाई नहीं करतीं। गंगा को साफ करने के लिए 1986 में शुरू हुई कार्य योजना उसी वक्त परवान चढ़ गई होती, यदि इस पर गंभीरता से अमल होता। पांच सौ करोड़ रुपए की लागत से शुरू हुई इस योजना में बीते 15 सालों के दौरान तकरीबन नौ सौ करोड़ खर्च हो गये हैं लेकिन गंगा और प्रदूषित होती जा रही है। भ्रष्टाचार, प्रशासनिक उदासीनता और धार्मिक कर्मकांड मुल्क की सबसे बड़ी नदी को स्वच्छ बनाने की दिशा में लगातार रुकावट बने हुए हैं। गंगा में जहरीला पानी गिराने वाले कारखानों के खिलाफ कठोर कदम नहीं उठाए जाने का ही नतीजा है कि जीवनदायिनी गंगा का पानी कहीं-कहीं बहुत जहरीला हो गया है। आस- पास के इलाकों का भूजल तक इससे प्रदूषित हो रहा है और लोग असाध्य बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। कहा जाता है कि गंगाजल वर्षो खराब नहीं होता क्योंकि इसमें निहित खास वैक्टीरिया इसे प्राकृतिक रूप से शुद्ध रखते हैं। लेकिन अब गंगाजल के बैक्टीरिया खुद को नहीं बचा पा रहे हैं। जिस बनारस में कभी गंगा का जलस्तर 197 फुट हुआ करता था, वहां कई जगहों पर यह महज 33 फुट के करीब रह गया है। गंगा में गाद आज बड़ी समस्या है। गंगा को बांधों ने भी खूब नुकसान पहुंचाया है। ब्रिटिश काल में 1916 में महामना मदनमोहन मालवीय के नेतृत्व में समझौता हुआ था कि गंगा का प्रवाह कभी नहीं रोका जाएगा। संविधान की धारा 363 की भावना भी कमोबेश यही कहती है लेकिन टिहरी में बांध बना गंगा का प्रवाह रोका गया। यही नहीं, उत्तराखंड की मौजूदा सरकार गंगा पर और भी बांध बनाना चाहती है। मुख्यमंत्री निशंक राज्य की नदियों से 10 हजार मेगावाट बिजली पैदा करना चाहते हैं जबकि, बड़े-बड़े दावों के साथ बनाया गया टिहरी बांध आज भी अपने लक्ष्य से एक चौथाई बिजली नहीं बना पा रहा है। उल्टे टिहरी बांध की वजह से गंगा का प्रवाह गड़बड़ा गया है। बांध के आसपास के सौ से भी ज्यादा गांव आज गंभीर जल संकट से जूझ रहे हैं। वही ग्रामीण अपना घरबार छोड़कर मैदानी क्षेत्र में पलायन कर रहे हैं, जिनके कथित हितों के निमित्त यह बनाया गया था। बहरहाल, गंगा-संरक्षण की तमाम चुनौतियों के बावजूद उम्मीदें बाकी हैं। लेकिन इसके लिए सरकारी कोशिशों के अलावा व्यक्तिगत प्रयास भी जरूरी हैं। गंगा की सफाई के लिए भारी-भरकम रकम खर्च करने से ज्यादा जरूरी है, जन-जागरूकता। गंगा से लेते वक्त भूलते रहे हैं कि जिस दिन उसने देना बंद कर दिया, या वह देने लायक नहीं रहेगी, उस दिन हमारा और हमारी आने भावी पीढ़ी का क्या होगा?
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