Friday, June 10, 2011

कोयले की किल्लत


पर्यावरण मंत्रालय की अड़ंगेबाजी पर लेखक की टिप्पणी
सरकार की तमन्ना आर्थिक विकास दर को सरपट दौड़ाने की है, लेकिन मंत्रालयों के एजेंडे और नीतियों के मकड़जाल के चलते उसकी इच्छा पूरी होने का नाम नहीं ले रही है। इसका ज्वलंत उदाहरण है बिजली उत्पादन में कमी। दरअसल बिजली क्षेत्र के अंधियारे को दूर करने के लिए ज्यादा कोयला चाहिए, लेकिन पर्यावरण मंत्रालय की नो गो एरिया नीति के चलते सैकड़ों कोयला ब्लॉकों में उत्पादन नहीं हो पा रहा है। हालांकि इस विवाद को सुलझाने के लिए वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता में मंत्रियों का उच्चाधिकार प्राप्त समूह (ईजीओएम) गठित किया गया, लेकिन उससे भी बात नहीं बनी। अब इस मुद्दे को 16 जून को कोयले की उपलब्धता बढ़ाने पर प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में होने वाली बैठक में उठाया जाएगा। कोयला मंत्रालय के मुताबिक नो गो क्षेत्र में पड़ने वाले 203 कोयला ब्लॉकों को मंजूरी नहीं मिलने से करीब 66 करोड़ टन सालाना कोयला उत्पादन के लक्ष्य में बाधा आ रही है। सूत्रों के अनुसार इन ब्लॉकों से कोयला उत्पादन की इजाजत मिलने पर देश में कोयले की कमी नहीं रहेगी। कोयला मंत्रालय का कहना है कि जहां कहीं भी उत्पादन कार्य किया गया, उन सभी जगहों पर नए वन विकसित करने में कोई कमी नहीं छोड़ी गई। लेकिन पर्यावरण मंत्रालय अपने निर्णय पर टस से मस नहीं हो रहा है। 2010-11 में देश में मांग के मुकाबले 8.3 करोड़ टन कोयले की कमी थी जिसके चालू वित्तीय वर्ष में 13.7 करोड़ टन और 2013-14 तक 20 करोड़ टन होने की उम्मीद है। केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण के मुताबिक 2009-10 के दौरान कोयले की कमी से 14.5 अरब यूनिट बिजली का उत्पादन नहीं किया जा सका। कोयले की भारी किल्लत के कारण ऊर्जा मंत्रालय ने बिजली उत्पादन क्षमता में चालू वित्त वर्ष के लिए मात्र 7,675 मेगावाट के विस्तार की योजना बनाई है। इस प्रकार 11वीं योजना के लिए निर्धारित संशोधित लक्ष्य (62,000 मेगावाट) को भी हासिल करना मुश्किल है। ऐसे में 12वीं पंचवर्षीय योजना में एक लाख मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य दूर की कौड़ी ही साबित होगा। इस प्रकार मांग और आपूर्ति के बीच की खाई और बढ़ेगी। पिछले एक दशक में बिजली क्षेत्र में सुधार की तेज रफ्तार के बावजूद देश जरूरत के मुताबिक नई क्षमता नहीं जोड़ पाया तो इसका कारण कोयला उत्पादन में बाधा और मंत्रालयों में आपसी तालमेल की कमी ही है। इसी का नतीजा है कि देश के गांवों में ही नहीं शहरों में भी लोगों को छह-छह घंटे की कटौती से जूझना पड़ रहा है। भारत में कोयला उत्पादन संबंधी परियोजनाओं को पर्यावरणीय मंजूरी मिलने में हो रही देरी और घरेलू आपूर्ति में आ रही परेशानियों को देखते हुए बिजली क्षेत्र की कंपनियां विदेशों में कोयला भंडारों में हिस्सेदारी खरीद रही हैं और आयात भी खूब कर रही हैं। यही कारण है कि कोयले के आयात में सालाना 10 फीसदी से अधिक की बढ़ोतरी हो रही है। कोयले की किल्लत को देखते हुए कोयला मंत्रालय नई कोयला वितरण नीति ला रहा है जिसके तहत विभिन्न परियोजनाओं के लिए कोयला आपूर्ति की स्थायी व्यवस्था की जिम्मेदारी से कोल इंडिया लिमिटेड को मुक्त कर दिया जाएगा। एक ओर ताप आधारित बिजली उत्पादन में गैस और डीजल की हिस्सेदारी नहीं बढ़ पा रही है तो दूसरी ओर कोयले के इस्तेमाल में बढ़ोतरी के साथ कार्बन उत्सर्जन का स्तर भी बढ़ता जा रहा है। भारत जहां कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए सुपर क्रिटिकल और अल्ट्रा क्रिटिकल पॉवर परियोजनाएं विकसित करने पर जोर दे रहा है वहीं चीन और अमेरिका स्वच्छ कोल तकनीक यानी बिना कार्बन के कोयला विकसित करने की ओर बढ़ रहे हैं। देर से ही सही हाल में सरकार ने स्वच्छ ऊर्जा तकनीक लागू करने का खाका तैयार करने के लिए एक कार्यदल गठित किया है। कार्यदल की सिफारिशें जून 2012 तक आ जाएंगी जिन्हें 2013 तक लागू किया जाएगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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