Tuesday, June 14, 2011

जरूरतें सीमित करने का वक्त


यह साल त्रासदियों के साथ शुरू हुआ। जापान के फुकुशिमा परमाणु प्लांट में एक के बाद एक कई विस्फोट हुए और लीबिया जैसे अरब मुल्कों में तनाव की स्थिति बनी है। हालांकि दोनों के परिपेक्ष्य अलग-अलग हैं लेकिन दोनों में एक बात सार्वभौमिक है और वह है ऊर्जा का मसला। एक जगह परमाणु ऊर्जा उत्पादन को धक्का लगा है तो दूसरी तरफ तेल से ऊर्जा उत्पादन को हथियाने को लेकर लड़ाई जारी है। लेकिन तो यह अंदाजा लगाना आसान है कि जापान में परमाणु त्रासदी से पर्यावरण को कितना नुकसान पहुंचा और अमेरिकी बम लीबिया के पर्यावरण को कितना नुकसान पहुंचा रहे हैं। बस आकलन भर है कि टोक्यो के पानी में आयोडीन की मात्रा मानक स्तर से 131 ऊपर तक पहुंच गई है। दूसरे मुल्क इस त्रासदी की तुलना चेर्नोबिल हादसे से कर रहे हैं। हां, इससेइतना डर जरूर हुआ है कि सभी देश अपने यहां परमाणु प्लांट की सुरक्षा को लेकर बैठकें कर रहे हैं। हाल ही में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी देश में परमाणु सुरक्षा का जायजा लिया। अमेरिका और चीन ने अपने परमाणु ऊर्जा विकास कार्यक्रमों में कमी की है। उधर, पश्चिमी एशिया और उत्तरी अफ्रीका ने तेल के दाम 105 अमेरिकी डॉलर से ज्यादा कर दिए हैं। 15 फरवरी से 5 जून तक देखें तो, तेल की कीमत में 24 फीसद का इजाफा हुआ है। ऐसे में तेल उत्पादक देशों- मसलन लीबिया और यमन में अशांति को इससे बिना जोड़े नहीं देखा जा सकता है। दरअसल अमेरिका चाहता है कि इन मुल्कों का नियंतण्रउनके हाथों में जाए और तेल के दाम वह निर्धारित करे। भले ही इसके लिए पर्यावरण से समझौता क्यों ना करना पड़े। पर्यावरण के मायने को हमारा मुल्क भी सही तरीके से नहीं समझ रहा है। हर बीतते दिन के साथ भारत में जंगलों को बचाने की कवायद घटती जा रही है। इसी वजह से भारत में जंगली भूमि पर खतरा काफी बढ़ा है। जंगलों में रहने वाले लोगों को इस मामले में दोष देना ठीक नहीं होगा। सारा दोष हमारी औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया का है। आप पहाड़ी इलाकों में जाएं, वहां विकास के नाम पर जंगलों-पहाड़ों की कटाई जोरों पर है। तो असल चिंता उन डेवलपरों से है जिन्हें जमीन, खनिज, पानी और दूसरे प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करना है। आर्थिक सर्वे पर नजर डालने से पता चलता है कि देश की प्राकृतिक पूंजी से जंगल कैसे गायब हो रहे हैं। सर्वे में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि जंगलों से आर्थिक विकास को कितना फायदा
होता है। लेकिन जंगलों के रहने से पानी, जल संरक्षण, फल-फूल उत्पादन, लकड़ी उत्पादन की प्रचुरता पर तनिक भी र्चचा नहीं हो रही है। चारागाह और दुग्ध उत्पादन की भूमिका को तो छोड़ ही दीजिए। जबकि हम सब जानते हैं कि जंगल के योगदान को तीन क्षेत्रों- खेती, वन्य उत्पादन, मत्स्य उत्पादन में परिभाषित किया जा सकता है। इन तीनों क्षेत्रों में लगातार गिरावट दर्ज की गई है। 2005-06 में इन क्षेत्रों में सालाना विकास दर 5.2 फीसद रही। लेकिन साल 2009-10 में विकास दर नकारात्मक रही। इसकी जगह खनन और जमीन अधिग्रहण को बढ़ावा मिला है। साल 2009-10 में खनन और जमीन अधिग्रहण में विकास दर 8.7 फीसद दर्ज की गई। इससे इतर साल 2005-06 में विकास दर 1.3 फीसद दर्ज की गई थी। वास्तव में देश की आर्थिक तरक्की के नाम पर जंगलों का सफाया किया जा रहा है। वन सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक देश में वन्य भूमि की बढ़ोतरी हुई है लेकिन इसका एक पक्ष और है कि 2005 से 2009 के बीच जंगलों की अंधाधुंध कटाई हुई है। अब इसमें कुछेक फीसद की बढ़ोतरी से हालात नहीं बदलेंगे। अब पर्यावरण संतुलन के लिए जंगलों को बचाने के लिए तीन उपाय करने होंगे। सबसे पहले तो हमें जंगलों का आर्थिक महत्व समझते हुए इन्हें प्राकृतिक संपदा के तौर पर ज्यादा से विकसित करना होगा। दूसरा, हमें पेड़ों को खड़ा रखने के लिए आर्थिक और मानव संसाधन जुटाने होंगे और तीसरा और सबसे अहम बची हुई वन्य भूमि की उत्पादन क्षमता बढ़ानी होगी। कमोबेश इस तरह की कोशिश दुनिया भर के मुल्कों को करनी होगी। साल 2011 में दुनिया और खासकर भारत के लिए यही दो अहम चुनौतियां हैं-पहला हम कैसे पर्यावरण को बचाते हुए ऊर्जा के स्रेतों को तलाशें और दूसरा पेड़ों के संरक्षण के लिए कारगर कदम उठाए जाएं। भारत को ऊर्जा विकल्प के क्षेत्र में काफी काम की जरूरत है क्योंकि हमारे यहां पहले से ही ऊर्जा कम है और जब हम परमाणु ऊर्जा की बात करते हैं तो इसके दुष्परिणाम के लिए भी तैयार रहना होगा। हालांकि इसमें भी दो राय नहीं है कि ऊर्जा विकल्प सीमित हैं। तेल और गैस का हम काफी दोहन कर चुके हैं। कोयला प्राप्ति के चक्कर में भी पेड़ों की अंधाधुंध कटाई हो चुकी है। इसलिए बेहतर होगा कि हम अपनी जरूरतों को सीमित करें। पर्यावरण दिवस के मौके पर एक अरब से ज्यादा आबादी वाले मुल्क को इस बारे में गहनता से विचार करना होगा। भारत सरकार को भी इस मामले में प्रतिबद्धता दिखानी होगी। अगर हम अगला चेर्नोबिल हादसा होते नहीं देखना चाहते हैं और जंगलरहित भूमि से बचना चाहते हैं तो हमें इस पर्यावरण दिवस के मौके पर स्वस्थ वातावरण का संकल्प लेना होगा. (लेखिका जानी-मानी पर्यावरणविद् हैं)

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