Saturday, June 4, 2011

गंगा की अविरल धारा का सवाल


राष्ट्रीय नदी जीवनदायिनी गंगा को बचाने के लिए आखिरकार हमारी सरकार संजीदा हुई है।। आर्थिक मामलों की कैबिनेट कमेटी ने हाल ही में गंगा की सफाई के लिए सात हजार करोड़ रुपये की एक महत्वाकांक्षी परियोजना पर सर्वसम्मति से अपनी मुहर लगा दी है। तीव्र औद्योगीकरण, शहरीकरण और प्रदूषण से अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही गंगा को बचाने के लिए अब तक की यह सबसे बड़ी परियोजना होगी। हालांकि गंगा को साफ करने की पिछली परियोजनाओं की कामयाबी और नाकामयाबियों से सबक लेते हुए इस परियोजना को बनाया गया है। इसके तहत पर्यावरणीय नियमों का कड़ाई से पालन करना, नगर निगम के गंदे पानी के नालों, औद्योगिक प्रदूषण, कचरे और नदी के आस-पास के इलाकों का बेहतर और कारगर प्रबंधन शामिल है। कुल मिलाकर इस परियोजना का मकसद गंगा नदी का संरक्षण करना और पर्यावरणीय सुरक्षा को व्यापक योजना व प्रबंधन द्वारा बिगड़ने से बचाना है। गंगा की सफाई में आने वाली कुल लागत में से केंद्र 5,100 करोड़ रुपये खर्च का वहन करेगा, वहीं जिन पांच राज्यों से गंगा निकलती है, वहां की सरकारें 1900 करोड़ रुपये का खर्च उठाएंगी। 5100 करोड़ रुपये की जो भारी भरकम राशि केंद्र सरकार को खर्च करना है, उसमें से 4,600 करोड़ रुपये उसे विश्व बैंक से हासिल होंगे। बहरहाल, आठ साल की समय सीमा में पूरी होने वाली इस महत्वाकांक्षी परियोजना में ऐसे कई प्रावधान किए गए हैं कि यदि इन पर ईमानदारी से अमल किया गया तो गंगा नदी की पूरी तस्वीर बदल जाएगी। इस योजना के तहत गंगा सफाई अभियान को आगे बढ़ाने के लिए विशेष संस्थानों की स्थापना की जाएगी। इसके साथ ही स्थानीय संस्थाओं को भी मजबूती प्रदान की जाएगी, ताकि वे गंगा की सफाई में लंबे समय तक अपनी भूमिका निभा सकें। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की जिम्मेदारी नदियों में प्रदूषण रोकना है, उसे पहले से और भी ज्यादा मजबूत बनाया जाएगा। इसमें भी सबसे बड़ी बात कि जो शहर गंगा के किनारे बसे हुए हैं, उन शहरों में निकासी व्यवस्था सुधारी जाएगी। औद्योगिक प्रदूषण को दूर करने के लिए विशेष नीति बनाई जाएगी। कहने को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कल-करखानों से निकलने वाले अपशिष्ट के लिए कड़े कायदे-कानून बना रखे हैं, लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद आज भी गंगा में इनका प्रवाह रुक नहीं पा रहा है। अकेले कानपुर में रोजाना 400 चमड़ा शोधक फैक्टि्रयों का तीन करोड़ लीटर अपशिष्ट गंगा में जाकर मिलता है। इसमें बड़े पैमाने पर क्रोमियम और जहरीले रासायनिक पदार्थ होते हैं। कमोबेश यही हाल बनारस का है। जहां हर दिन तकरीबन 19 करोड़ लीटर गंदा पानी बगैर शुद्धिकरण के खुली नालियों के जरिए गंगा में मिलता है। हालांकि देश में गंगा सफाई योजना को 25 साल से ज्यादा हो गए हैं और इसकी सफाई पर अभी तक अरबों रुपये भी बहाए जा चुके हैं, लेकिन रिहाइशी कॉलोनियों और कारखानों से निकलने वाले गंदे पानी को इसमें मिलने से रोकना मुमकिन नहीं हो पाया है। औद्योगिक इकाइयां जहां मुनाफे के चक्कर में कचरे के निस्तारण और परिशोधन के प्रति बिल्कुल भी संवेदनशील नहीं होतीं, वहीं राज्य सरकारें और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड भी कल-करखानों की मनमानियों के प्रति अपनी आंखें मूंदे रहती हैं। और तो और, न्यायपालिका के कठोर रुख के बाद भी राज्य सरकारें दोषी लोगों पर कोई कार्रवाई नहीं करतीं। गंगा को साफ करने के लिए साल 1986 में शुरू हुई कार्ययोजना उसी वक्त परवान चढ़ गई होती, यदि इस पर गंभीरता से अमल किया गया होता। पांच सौ करोड़ रुपये की लागत से शुरू हुई इस योजना में बीते 15 सालों के दौरान तकरीबन नौ सौ करोड़ रुपये खर्च हो गए, लेकिन गंगा साफ होने की बजाय और भी प्रदूषित होती जा रही है। भ्रष्टाचार, प्रशासनिक उदासीनता और कर्मकांड मुल्क की सबसे पवित्र और बड़ी नदी को स्वच्छ बनाने की दिशा में रुकावट बने हुए हैं। गंगा में जहरीला पानी गिराने वाले कारखानों के खिलाफ कठोर कदम नहीं उठाए जाने का ही नतीजा है कि आज जीवनदायिनी गंगा का पानी कहीं-कहीं इतना जहरीला हो गया है कि इस जहरीले पानी से न सिर्फ पशु-पक्षियों के लिए संकट पैदा हो गया है, बल्कि आसपास के इलाकों का भूजल भी प्रदूषित होने से बड़े पैमाने पर लोग असाध्य बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। सदियों से हमारे देश के निवासी यह मानते आए हैं कि गंगा नदी का पानी कभी खराब नहीं होता। गंदगी मिलने पर भी यह खुद इसे शुद्ध कर लेती है। वैज्ञानिक तथ्यों की कसौटी पर यह धारणा एक हद तक सही भी है, लेकिन अब गंगा में चौतरफा से इतनी गंदगी आकर मिल रही है कि उसे खुद साफ कर पाना उसकी क्षमता से कहीं बाहर की बात हो गई है। गंगा में प्रदूषण का आलम यह है कि बरसात के मौसम में कानपुर और बनारस जैसे शहरों में गंगा नदी के बीचों-बीच बालू के बड़े-बड़े टीले उभर आते हैं। जिस बनारस में कभी गंगा का जलस्तर 197 फीट हुआ करता था, वहां लगातार प्रदूषण के चलते आज कई जगहों पर जलस्तर महज 33 फुट के करीब ही रह गया है। गंगा की धारा को निर्मल व अविरल बनाने के लिए आज गाद एक बड़ी समस्या बनी हुई है। प्रदूषण के अलावा गंगा नदी को इस पर बने हुए बांधों ने भी खूब नुकसान पहुंचाया है। अंग्रेजी हुकूमत ने साल 1916 में महामना मदनमोहन मालवीय के नेतृत्व में गंगाभक्तों के साथ समझौता किया था कि गंगा का प्रवाह कभी नहीं रोका जाएगा। आजाद हिंदुस्तान के संविधान की धारा 363 की भावना भी कमोबेश यही कहती है। बावजूद इसके टिहरी बांध से गंगा का प्रवाह रोका गया। अकेले टिहरी बांध ने ही गंगा को काफी नुकसान पहुंचाया है। अब उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक राज्य की तरक्की के लिए आने वाले समय में गंगा पर और भी बांध बनाना चाहते हैं। वे राज्य की हिमालयी नदियों से 10 हजार मेगावाट बिजली पैदा करना चाहते हैं। हालांकि तमाम बड़े-बड़े दावों के साथ बनाया गया टिहरी बांध आज भी अपने दावे के मुताबिक एक चौथाई बिजली तक नहीं बना पा रहा है। इसके विपरीत टिहरी बांध की वजह से गंगा का प्रवाह जरूर गड़बड़ा गया। असमंजस यह है कि बांध से लगे इलाके के 100 से भी ज्यादा गांवों में जहां पहले इफरात में पानी होता था, आज वह जल संकट से जूझ रहे हैं। किसान खेती को छोड़कर उसी दिल्ली की तरफ पलायन कर रहे हैं, जिसकी सुविधा के लिए यह बांध बनाया गया था। बहरहाल, गंगा नदी के संरक्षण की तमाम चुनौतियों के बावजूद उम्मीदें अब भी बाकी हैं। हर 10 में से चार भारतीय की प्यास बुझाने वाली गंगा को अब भी बचाया जा सकता है, लेकिन इसे बचाने के लिए सरकारी कोशिशों के अलावा व्यक्तिगत प्रयास भी जरूरी है। गंगा की सफाई के लिए भारी भरकम रकम खर्च करने से ज्यादा जरूरी है, हमारा जागरूक होना। जब तक हम जागरूक नहीं होंगे, तब तक गंगा स्वच्छ नहीं होगी। गंगा से हमने हमेशा लिया ही है, उसे दिया कुछ नहीं। गंगा से लेते वक्त हम यह भूल गए कि जिस दिन उसने देना बंद कर दिया या वह देने लायक नहीं रही, उस दिन हमारा और हमारी आने वाली पीढ़ी का क्या हश्र होगा।

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