किसी भी देश के आर्थिक विकास में जीवनदायी जल की महत्ता अंतर्निहित है। हालांकि विकास दर सूचकांक नापे जाते वक्त पानी के महत्व को दरकिनार रखते हुए किसी भी देश की औद्योगिक प्रगति को औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक (आईआईपी) से नापा जाता है। इनकी पराश्रित सहभागिता आर्थिक विकास की वृद्धि दर दर्शाती है। यदि हमें देश की औसत विकास दर 6 प्रतिशत तक बनाए रखनी है तो एक अध्ययन के अनुसार 2031 तक मौजूदा स्तर से चार गुना अधिक पानी की जरूरत होगी, तभी सकल घरेलू उत्पाद बढ़कर 2031 तक चार ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच सकेगा। सवाल उठता है कि बीस साल बाद इतना पानी आएगा कहां से ? क्योंकि लगातार गिरते भू-जल स्तर और सूखते जल स्रेतों के कारण जलाभाव की समस्या अभी से मुहं बाये खड़ी है। अमेरिका के दक्षिण और मध्य क्षेत्र मामलों के सहायक विदेश मंत्री रॉबर्ट ब्लैक ने पिछले दिनों प्रथम तिब्बत पर्यावरण फोरम की बैठक में बोलते हुए कहा कि 2025 तक दुनिया के दो तिहाई देशों में पानी की किल्लत भयावह किल्लत हो जाएगी। लेकिन भारत समेत एशियाई देशों में तो यह समस्या 2020 में ही विकराल रूप में सामने आ जाएगी जो भारतीय अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित करेगी। तिब्बत के पठार पर मौजूद हिमालयी ग्लेशियर समूचे एशिया में 1.5 अरब से अधिक लोगों को मीठा जल मुहैया कराते हैं लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण ब्लैक कार्बन जैसे प्रदूषत तत्वों ने हिमालय के कई ग्लेशियरों पर जमी बर्फ की मात्रा घटा दी है जिसके कारण इनमें से कई इस सदी के अंत तक अपना वजूद खो देंगे। इन ग्लेशियरों से गंगा और ब्रrापुत्र समेत नौ नदियों में जलापूर्ति होती है। यही नदियां भारत, पाकिस्तान, अफगनिस्तान और बांग्लादेश के निवासियों को पीने व सिंचाई हेतु बड़ी मात्रा में जल मुहैया कराती हैं। ब्लैक के इस बयान से जाहिर होता है कि भारत में पानी एक दशक बाद ही अर्थव्यवस्था को चौपट करने का प्रमुख कारण बन सकता है। वैसे पानी भारत ही नहीं पूरी दुनिया में एक समस्या के रूप में उभर चुका है। भूमंडलीकरण और उदारवादी आर्थिक व्यवस्था के दौर में बड़ी चतुराई से विकासशील देशों के पानी पर अधिकार की मुहिम अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों ने पूर्व से ही चलाई हुई है। भारत में भी पानी के व्यापार का खेल यूरोपीय संघ के दबाव में शुरू हो चुका है। पानी को ‘मुद्रा’ में तब्दील करने की दृष्टि से ही इसे वि व्यापार संगठन के दायरे में लाया गया ताकि पूंजीपति देशों की आर्थिक व्यवस्था विकासशील देशों के पानी का असीमित दोहन कर फलती- फूलती रहे। अमेरिकी वर्चस्व के चलते इराक में मीठे पेयजल की आपूर्ति करने वाली दो नदियों यूपरेट्स और टाइग्रिस पर तुर्की नाजायज अधिकार जमा रहा है। दूसरी तरफ कनाडा इसलिए परेशान है क्योंकि अमेरिका ने एक षडयंत्र के तहत वहां के समृद्ध तालाबों पर नियंतण्रकी मुहिम चलाई हुई है। यह कुचक्र इस बात की सनद है कि पानी को लेकर संघर्ष की पृष्ठभूमि रची जा रही है और इसी पृष्ठभूमि में तीसरे वियुद्ध की नींव अंतर्निहित है। भारत वि स्तर पर जल का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। वह दुनिया के जल का 13 फीसद उपयोग करता है। भारत के बाद चीन 12 फीसद और अमेरिका 9 फसद जल का उपयोग करता है। पानी के उपभोग की बड़ी मात्रा के कारण ही भू-जल स्रेत, नदियां और तालाब संकटग्रस्त हैं। वैज्ञानिक तकनीकों ने भू-जल दोहन को आसान बनाने के साथ खतरे में डालने का काम भी किया। लिहाजा नलकूप क्रांति के शुरुआती दौर 1985 में जहां देश भर के भू-जल भंडारों में मामूली स्तर पर कमी आना शुरू हुई थी, वहीं अंधाधुंध दोहन के चलते ये दो तिहाई से ज्यादा खाली हो गए हैं। नतीजतन 20 साल पहले 15 प्रतिशत भू-जल भंडार समस्याग्रस्त थे और आज ये हालात 70 प्रतिशत तक पहुंच गए हैं। ऐसे ही कारणों के चलते देश में पानी की कमी प्रतिवर्ष 104 बिलियन क्यूबिक मीटर तक पहुंच गई है। जल सूचकांक एक मनुष्य की सामान्य दैनिक जीवनचर्या के लिए प्रति व्यक्ति एक चौथाई रह गया है। यदि किसी देश में जीवनदायी जल की उपलब्धता 1700 क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष कम होती चली जाए तो इसे आसन्न संकट माना जाता है। इसके विपरीत विडंबना यह है कि देश में पेयजल के स्थान पर शराब व अन्य नशीले पेयों की खपत के लिए हमारे देश के ही कई प्रांतों में वातावरण निर्मित किया जा रहा है। शराब की दुकानों के साथ अहाते होना अनिवार्य कर दिए गए हैं ताकि ग्राहक को जगह न तलाशनी न पड़े। मध्यप्रदेश सरकार ने तो अर्थव्यवस्था सुचारू रखने के लिए शराब ठेके के लिए आहाता अनिवार्य शर्त कर दी है। इस तरह देश-दुनिया की अर्थव्यवस्था चलाने में पानी का योगदान 20 हजार प्रति डॉलर प्रति हेक्टेयर की दर से सर्वाधिक है। लेकिन दुनिया लगातार पानी की अन्यायपूर्ण आपूर्ति की ओर बढ़ रही है। एक तरफ देश-दुनिया की समृद्ध आबादी पाश्चात्य शौचालयों, बॉथ टबों और पंचतारा तरणतालों में रोजाना हजारों गैलन पानी बेवजह बहा रही है, वहीं दूसरी तरफ बहुसंख्यक आबादी तमाम जद्दोजहद के बाद 10 गैलन पानी, यानी करीब 38 लीटर पानी भी बमुश्किल जुटा पाती है। पानी के इस अन्यायपूर्ण दोहन के सिलसिले में किसान नेता देवीलाल ने तल्ख टिप्पणी की थी कि नगरों में रहने वाले अमीर शौचालय में एक बार फ्लश चलाकर इतना पानी बहा देते हैं जितना किसी किसान के परिवार को पूरे दिन के लिए नहीं मिल पाता है। इस असमान दोहन के कारण ही भारत, चीन, अमेरिका जैसे देश पानी की समस्या से ग्रस्त हैं। इन देशों में पानी की मात्रा 160 अरब क्यूबिक मीटर प्रतिवर्ष की दर से घट रही है। अनुमान है कि 2031 तक वि की दो तिहाई आबादी यानी साढ़े पांच अरब लोग गंभीर जल संकट से जूझ रहे होंगे। जल वितरण की इस असमानता के चलते ही भारत में हर साल पांच लाख बच्चे पानी की कमी से पैदा होने वाली बीमारियों से मर जाते हैं। करीब 23 करोड़ लोगों की जल के लिए जद्दोजहद उनकी दिनचर्या में तब्दील हो गया है। और 30 करोड़ से ज्यादा आबादी के लिए निस्तार हेतु पर्याप्त जल की सुविधाएं नहीं हैं। बहरहाल भारत में सामाजिक, आर्थिक और स्वास्थ्य के स्तर पर पेयजल सबसे भयावह चुनौती बनने जा रही है। ध्यान रखने की जरूरत है कि प्राकृतिक संसाधनों का बेलगाम दोहन जारी रहा तो भविष्य में भारत की आर्थिक विकास दर की औसत गति क्या होगी? और आम आदमी का औसत स्वास्थ्य किस हाल में होगा? मौजूदा हालात में हम भले आर्थिक विकास दर औद्योगिक और प्रौद्योगिक पैमानों से नापते हों, लेकिन ध्यान देने की जरूरत है कि इस विकास का आधार भी आखिरकार प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित है। जल, जमीन और खनिजों के बिना आधुनिक विकास संभव नहीं है। यह भी तय है कि विज्ञान के आधुनिक प्रयोग प्राकृतिक संपदा को रूपांतरित कर उसे मानव समुदायों के लिए सहज सुलभ तो बना सकते हैं लेकिन प्रकृति के किसी तत्व का स्वतंत्र रूप से निर्माण नहीं कर सकते। इनका निर्माण तो निरंतर परिवर्तनशील जलवायु पर निर्भर है। इसलिए जल के उपयोग के लिए यथाशीघ्र कारगर जल नीति अस्तित्व में नहीं आई तो देश का आर्थिक विकास प्रभावित होना तय है।
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