Wednesday, April 6, 2011

प्रभावी अमल भी हो


प्लास्टिक थैलियों के कचरे से पूरी तरह मुक्त हो सकेगी दिल्ली! उम्मीदें जग रही हैं? राज्य सरकार ने अपनी भौगोलिक-वैधानिक सीमा में इस पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाये जाने का सोमवार को निर्णय लिया है। रोक पहले भी थी पर नियमों में लोच और किंतु-परंतु से प्लास्टिक थैलियों के इस्तेमाल के परिणामस्वरूप पैदा होने वाले अत्यंत घातक कचरे में कोई कमी आने के बजाय यह निरंतर बढ़ता गया है। इससे नाले-नालियों समेत समूचे सीवेज सिस्टम और पेयजल पण्राली के साथ राजधानी की जीवनदायिनी समझी जाने वाली पयस्विनी-यमुना के भी 'जाम' होने के बाद दिल्ली का पारिस्थितिकीय-पर्यावरण संतुलन व जलवायु बुरी तरह प्रभावित होने लगी है। इसका खतरनाक असर राष्ट्रीय राजधानी, खासकर इसके उपनगरीय क्षेत्रों में लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। अनेक स्तर से आवाजें उठने के बाद दिल्ली सरकार ने हालात की गंभीरता समझी और पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 की धारा-5 के अंतर्गत राजधानी में प्लास्टिक थैलियों के उत्पादन, बिक्री व भंडारण के अलावा इसके प्रयोग को भी पूर्णतया प्रतिबंधित करने का फैसला किया है। इस पाबंदी को कड़ाई से लागू कराने के लिए दिल्ली नगर निगम, एनडीएमसी और दिल्ली पुलिस को भी निर्देश दिये गये हैं। पहले प्लास्टिक थैलियों के उत्पादन से सम्बंधित मूल कानून 2008 में जो संशोधन किया गया था उसके तहत सिर्फ प्लास्टिक थैलियों की मोटाई दोगुना-40 माइक्रोन-कर दी गई थी। प्रतिबंध के लिए कुछ क्षेत्रों को ही चिह्नित किया गया था। इस 'लूपहोल्स' से इनका प्रचलन रोक पाना नामुमकिन था। ऐसा नहीं कि अब सरकार के निर्णय मात्र से प्लास्टिक थैलियों पर प्रतिबंध लग जाएगा। जब तक प्रयोग करने वाली जनता इसके दुष्प्रभाव नहीं समझेगी, निर्णय प्रभावी होने वाला नहीं। कुछ दिन तक यह कहीं रुक या कम हो सकता है। जनजागरूकता अभियान से भी अपेक्षित हद तक रोकथाम सम्भव नहीं है। हां, कानून का भय जरूर इसके मोह-पाश से लोगों को रोक सकता है जिसके लिए पुलिस को सम्यक तरीके से मुस्तैद करना होगा। प्लास्टिक थैलियों के उत्पादन-वितरण से बहुत लोगों को आजीविका मिली है। इसके कचरे से बड़ी संख्या में लोगों को 'रोटी' मिलती है। पर इस आधार पर समाज व पांिरस्थितिकी-पर्यावरण के लिए हवा में जहर घोलने की छूट किसी को नहीं दी जा सकती। प्लास्टिक की थैलियां कागज के जिस ठोंगे को बरतरब कर लोगों की सुविधा बन गई हैं, उस गृह उद्योग में भी हजारों लोगों को रोजगार मिला हुआ था। पहले लोग बाजार में खरीदारी के लिए झोले लेकर जाते थे। झोले नये-पुराने कपड़ों के बने होते थे जो 'इकोनॉमिक' भी थे। लेकिन समृद्धि तथा लोगों की सुविधापरस्ती ने उनको चलन से बाहर कर दिया। अब हर व्यक्ति तात्कालिक सहूलियत देखने लगा है। जरूरत इस प्रवृत्ति को खत्म करने की है। इसमें उपयोगशुदा कागज का पुनर्उपयोग काफी हद तक सहायक हो सकता है। यह काम सरकारी एजेंसियों और कानून के साथ आम लोगों को भी करना होगा। उम्मीद है पूरा देश दिल्ली की इस पहल का अनुसरण करेगा।

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