Monday, April 25, 2011

वनों में परिवेश की जगह नहीं, कहीं लुप्त न हो जाएं देशी हाथी


एशियाई मूल के देसी हाथियों के लिए जंगलों में अब उतनी जगह नहीं बची कि उनको भरपूर प्राकृतिक परिवेश मिल सके। अगर आगे भी यही हाल रहा तो एशियाई मूल के हाथी बहुत कम हो जाएंगे। जीव विशेषज्ञ कहते हैं कि अभी से सजग न हुए तो इन हाथियों का हाल भी बाघों की तरह हो जाएगा। एशियाई मूल के हाथियों की संख्या बढ़ाने के लिए फरवरी 1992 में केंद्र सरकार ने प्रोजेक्ट एलीफैंट मैक्सीमाज तैयार किया था जिसके आधार पर सभी राष्ट्रीय उद्यानों को दिशा निर्देश जारी किए गए थे। सभी राज्य सरकारों को इसके लिए बजट उपलब्ध कराया गया था। अगर दुधवा नेशनल पार्क की बात करें तो यहां एक दर्जन हाथी हैं, जो पालतू हैं। नेपाल के वर्दिया नेशनल पार्क से हाथियों के दो झुंड दुधवा या खीरी और बहराइच के जंगलों के अलावा पीलीभीत के जंगलों में आते हैं। झुंड अलग-अलग 13 और 7 की संख्या में आते हैं। नेपाल से इनके आने का रूट मोहाना नदी व कतर्निया घाट है। हाथी एक बार में चालीस किमी तक मूवमेंट करते हैं। इस दौरान वनों के कटान के कारण इनके भोजन के लिए पर्याप्त प्राकृतिक परिवेश नहीं मिल पाता जिससे यह फसलों को उखाड़ लेते हैं। भोजन कम होने और गर्भाधान की अवधि काफी लंबी होने के कारण इनकी संख्या में पर्याप्त वृद्धि नहीं हो पा रही है। दरअसल पूरे देश में एशियाई मूल के लगभग 21000 हाथी हैं। इनके लिए 90 हजार वर्ग किलोमीटर का प्राकृतिक परिवेश चाहिए जो घटकर 62 हजार वर्ग किमी तक ही रह गया है। इसके अलावा एक और कारण दांतों के लिए हाथियों की तस्करी का भी है। अभी पिछले साल जिम कार्बेट पार्क में ही हाथी मारे गए थे जिसके शिकारी तमिलनाडु से आए थे। दुधवा नेशनल पार्क के उप निदेशक संजय पाठक कहते हैं कि दुधवा में तो हाथियों के लिए प्राकृतिक परिवेश है। नेपाल से जो हाथी यहां आते हैं उनके रूट पर ऐसे परिवेश की कमी हो रही है। दुर्लभ वन्य प्राणी परियोजना के अधिकारी मुकेश राजयादा यह मानते हैं कि प्रोजेक्ट एलीफैंट मैक्सीमाज पर और भी काम करने की जरूरत है, नहीं तो संकट गहरा सकता है। वन्य जीव विशेषज्ञ डॉ. वीपी सिंह कहते हैं कि अभी से न चेते तो हाथियों की भी बाघों जैसी हालत होने में देरी न लगेगी।


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