Wednesday, May 25, 2011

जिंदगी में जहर घोलता दूषित जल


देश की जिन नदियों में कभी पानी की निर्मल धारा बहती थी, आज वहां दुर्गध और सड़ांध के भभके उठते रहते हैं। इन नदियों का पानी प्रदूषण के खतरे की सभी सीमाएं पार कर चुका है। देश के बहुत से हिस्सों में जमीन के नीचे का पानी पीने लायक नहीं रह गया है। उसमें अनेक विषैले रसायन और स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक धातुएं मिल चुकी हैं। पंजाब के भटिंडा इलाके में विशेषज्ञों के एक संयुक्त अध्ययन में पाया गया है कि भटिंडा में भूजल और मिट्टी में विषैले रसायन घुले हैं। पिछले साल उत्तर प्रदेश और बिहार में गंगा के तटवर्ती इलाकों में भी भूजल के विषाक्त होने की पुष्टि हुई थी। तमाम दावों के बावजूद हर बस्ती तक साफ पानी की आपूर्ति का लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सका है। इसके कारण बहुत सारे लोग नलकूप, कुएं, नदियों, झरने आदि का पानी पीने को मजबूर हैं। देश के बीस राज्यों में बहने वाली 38 प्रमुख नदियों की सफाई पर पिछले दस सालों में लगभग 26 अरब रुपये खर्च किए गए, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। इन नदियों में यमुना, गंगा, गोमती, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, दामोदर, महानंदा, सतलुज जैसी बड़ी नदियां शामिल हैं। इनमें से एक-एक नदी की सफाई के लिए संबंधित राज्यों को सैकड़ों करोड़ रुपये दिए गए। न तो आवंटित रकम कम थी और न ही एक दशक का समय छोटा कहा जा सकता है। फिर भी इन नदियों का पानी स्वच्छ होने के बजाय कई जगह जहरीला हो गया। उनमें पाई जाने वाली मछलियां और अन्य जीव-जंतु भी मर गए। ये तथ्य इस बात का इशारा करते हैं कि पैसा जरूर पानी की तरह बहाया गया, पर वह निर्धारित मकसद में नहीं लगा। उसे कोई और डकार गया। यदि राजनेता और बड़े-बड़े अधिकारी योजनाओं की निगरानी भी नहीं कर सकते हैं तो उनके होने न होने का क्या मतलब हो सकता है? नदियों को प्रदूषण मुक्त बनाने की कई योजनाएं चल रही हैं, लेकिन दो हजार करोड़ रुपये खर्च करने के बाद भी गंगा मैली की मैली ही है। हरिद्वार से हुगली तक उसका पानी आचमन लायक भी नहीं रहा। दूसरी नदियों का हाल तो और भी बुरा है। यमुना के पुश्ते पर जो सब्जियां उगाई जाती हैं, वे दोहरे प्रदूषण की शिकार हैं। उनमें जैविक और रसायनिक प्रदूषण की मात्रा बहुत ज्यादा है। देश के 70 प्रतिशत शहरों में आज भी पेयजल की आपूर्ति नदियों से ही हो रही है, लेकिन 70 प्रतिशत बीमारियां भी प्रदूषित जल के कारण हो रही हैं, क्योंकि जमीन के भीतर की ऊपरी सतह का जल भी प्रदूषण की चपेट में है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस प्रदूषण को रोकने या खत्म करने के लिए भारी भरकम बजट वाली योजनाएं बनी हैं। इन योजनाओं पर अरबों रुपये भी खर्च भी किए जा चुके हैं, लेकिन सफाई के मामले में इसकी हालत ज्यों की त्यों है। यह देखकर अचरज होता है कि आखिर हमारा सरकारी तंत्र करता क्या है? हर काम उसके नियंत्रण में है, लेकिन वह किसी कार्यक्रम या योजना के क्रियान्वयन के लिए जिम्मेदार नहीं है। कैग की रिपोर्ट में इस तथ्य का खासतौर से उल्लेख किया गया है कि जल प्रदूषण और बर्बादी को रोकने के लिए 1974 में जो कानून बनाया गया था, उसे लागू करने के लिए शायद ही कुछ किया गया हो। हरियाणा में छह सौ से ज्यादा ऐसी औद्योगिक इकाइयां काम कर रही हैं, जो बिना किसी अनुमति के नदियों और जल स्रोतों को प्रदूषित कर रही हैं। हिमाचल प्रदेश में 58 नगर पालिकाएं मल-मूत्र नदियों में बहा रही हैं। कर्नाटक, महाराष्ट्र, उड़ीसा, बिहार, उत्तर प्रदेश आदि प्रदेशों में भी कमोबेश यही हाल है। इन प्रदेशों में गुजरने वाली नदियां बड़े शहरों और बड़े-बड़े कारखानों के लिए गटर का काम कर रही हैं, जो इनका सारा कचरा और रसायन अपने भीतर समेट लेती हैं। लेकिन हमारे पेयजल का स्रोत भी यही नदियां हैं और उनका ही जल भूमिगत जल स्रोतों में भी मिलता है। इन नदियों या भूमिगत स्रोतों से जो जल पीने के लिए दिया जा रहा है, दरअसल वह पीने योग्य नहीं रह गया है। सरकार और उसका तंत्र यदि अपनी जनता को पीने योग्य जल भी उपलब्ध नहीं करा सकते तो उनका होना न होना बराबर है। कानून के साथ हम जो छल करते हैं, उसका नतीजा पूरे समाज और उसकी भावी पीढि़यों को भी भोगना पड़ेगा। यमुना को प्रदूषण से बचाने के लिए सुप्रीमकोर्ट को भी बार-बार हस्तक्षेप करना पड़ा, लेकिन फिर भी स्थिति में कोई आशाजनक सुधार नहीं हुआ है। गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, सिंधु और कावेरी सहित कई दूसरी नदियां भी बुरी तरह प्रदूषित हो चुकी हैं। देश की 13 प्रमुख नदियों का अस्तित्व खतरे में है। इनके पानी के बंटवारे के नाम पर समय- समय पर राज्यों के झगड़े भी होते रहते हैं, क्योंकि इनके पानी से ही शहरों और औद्योगिक क्षेत्रों की जरूरतें पूरी की जाती हैं। कई नदियों में तो पानी इतना कम हो जाता है कि गर्मियों में वे सिर्फ शहरी और कारखानों के कचरे का नाला बनकर ही रह जाती है। देश की 13 प्रमुख नदियों के तटीय क्षेत्र के कस्बों में चर्म रोग पनप रहे हैं। इनमें पाई जाने वाली लाखों मछलियां मर चुकी हैं। कुल मिलाकर हमारी नदियों के कचरे और नगरों के गंदे पानी से बीमारी मौतवाहक बनती जा रही है। अभी तक इसकी साफ-सफाई की ओर खास ध्यान नहीं दिया गया है। नगरों की जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ यह समस्या गंभीर होती जा रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, भारत में प्रतिवर्ष पांच करोड़ व्यक्ति प्रदूषित जल को पीने के कारण बीमार होते हैं। इनमें से 20 लाख व्यक्ति हर वर्ष मर जाते हैं। इन बीमारियों के इलाज के लिए 500 करोड़ रुपये सालाना खर्च होते हैं। शहरों की आबादी का मुख्य जल स्रोत हमारी नदियां ही हैं, पर आज देश की नदियों का जल कुंओं से ज्यादा खराब है। उसमें भारी प्रदूषण है। कल-कारखानों के कचरे के पानी में मिल जाने के कारण पानी में क्लोरीन डालकर उसे साफ करने का तरीका अब बेकार ही नहीं, घातक हो गया है। एक तो क्लोरीन अमीबा पेचिस के जीवाणु को नष्ट नहीं कर सकती। दूसरे यह औद्योगिक कचरे में मौजूद कार्बनिक रसायनों के साथ मिलकर क्लोरोमफार्म सहित छह कैंसरजनक तत्व पैदा करती है। इसलिए यदि नदियों में औद्योगिक कल-कारखानों और शहरों की आबादी का गंदा पानी नदियों में डालने की परंपरा बंद नहीं हुई तो देशवासियों का जीवन अगले तीस-चालीस वर्षो के भीतर ही घनघोर संकट में पड़ जाएगा। वास्तव में विदेशों से इतना अधिक कर्ज लेने के बाद भी भारत अपने नागरिकों को पीने का साफ पानी भी उपलब्ध नहीं करा सका है। इस समस्या से बचने का एक ही रास्ता है कि नागरिक उठ खड़े हों और जल स्रोतों को गंदा करने वाले कल-कारखानों के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दें। पर्यावरण की सुरक्षा आज इस देश की सबसे बड़ी समस्या है। अब आज और कल के मनुष्य का अस्तित्व इसी पर निर्भर है। संतोष की बात है कि इस संदर्भ में अदालतें महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं, लेकिन यह जनता का भी काम है कि वह अपनी नदियों को साफ-सुथरा रखे।


फिर भी मैली रहेगी गंगा


लेखक राजनीतिक इच्छाशक्ति और जनभागीदारी के अभाव को गंगा कार्य योजना की विफलता का प्रमुख कारण बता रहे हैं...
केंद्र सरकार ने गंगा की सफाई के लिए फिर सैकड़ों करोड़ रुपये जारी कर दिए हैं। 1986 से गंगा कार्य योजना के नाम पर अरबों की राशि फूंकी जा चुकी है, लेकिन गंगा साफ होने के बजाए और मैली हो गई है। विश्व में केवल गंगा नदी में पाया जाने वाला रेडियो आइसोटोप रेडन नामक तत्व अब विलुप्त होता जा रहा है। इसके कारण ही गंगाजल में कीड़े नहीं पड़ते। गंगा में कोलिफॉर्म बैक्टीरिया की दर 500 से अधिक नहीं होनी चाहिए, वह अब हजारों में पहुंच चुकी है। गंगा के बहाव क्षेत्र में खेतों में पैदावार की दर में 30 से 60 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की जा रही है। गंगा कार्य योजना सरकार की नाकामी और जनता की लापरवाही का अद्भुत नमूना है। इस योजना की शुरुआत ही राजनीतिक हित साधने के लिए की गई थी। 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने संतो-महंतों को खुश करने के लिए गंगा कार्य योजना इसलिए शुरू की ताकि राम मंदिर के खुदबुदाते हिंदू जनाक्रोश का फायदा भाजपा न उठा ले जाए। इस योजना को लागू करते समय न तो पर्याप्त होमवर्क किया गया और न ही आगे चलकर इसकी नाकामियों से सबक लिया गया। 1986 में वाराणसी में गंगा को साफ रखने के लिए तीन सीवेज शोधक संयंत्र लगाए गए, ताकि सीवर का मल-जल गंगा में न मिले। लेकिन ये संयंत्र जल्द ही सफेद हाथी बन गए। ये विदेशों से आयात किए गए थे और भारतीय भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप नहीं थे। वाराणसी का दानापुर संयंत्र तो कभी शुरू ही नहीं हुआ। 1995-96 में कैग ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि बिहार सरकार ने गंगा कार्य योजना के करोड़ों रुपये बिना खर्च किए वापस कर दिए। यह सरकारी उदासीनता का एक बड़ा उदाहरण है। हरिद्वार में गंगा की सफाई के दौरान अधिकारियों ने हर की पैड़ी में गंगा नहर की सफाई कर डाली। बाद में जांच में इन अधिकारियों की खूब खिंचाई की गई और सरकार से पूछा गया कि ऐसा स्टॉफ इस कार्य योजना में क्यों नियोजित किया गया, जिसे गंगा नदी और गंगा नहर का अंतर ही मालूम नहीं है। पर्यावरणविद् प्रो. वीरभद्र मिश्र के अनुसार गंगा कार्य योजना सरकारी योजनाओं की नाकामी का एक रोल मॉडल है। गंगा कार्य योजना शुरू से ही सरकार द्वारा प्रायोजित है। जनभागीदारी इसमें शून्य रही है। पर्यावरणविद् एमसी मेहता के अनुसार यही इसकी असफलता का कारण भी है। जनता को खुद अपनी जिम्मेदारियों का अहसास नहीं है। उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल के उद्योगों से 134 करोड़ लीटर औद्योगिक अवशिष्ट प्रति वर्ष गंगाजल में मिलता है। घरेलू गंदे पानी का आंकड़ा 26 करोड़ लीटर है। कीटनाशक, उर्वरक, अधजले शवों के आंकड़े संख्यातीत है। गंगा किनारे लगने वाले कुंभ मेले या अन्य धार्मिक मेले पतित पावनी गंगा में पाप के साथ इतनी गंदगी धो देते हैं कि गंगा का स्वरूप विकृत हो चला है। अधजले शवों को खाने के लिए एक बार इलाहाबाद और वाराणसी में कछुए छोड़े गए, लेकिन लोग कछुओं को ही मारकर खा गए। गंगा में ऑक्सीजन की घटती मात्रा के कारण उसमें मछलियों का अकाल पड़ता जा रहा है। इसीलिए गंगा की जो बस्तियां आबाद हुई थीं, वे अब उजड़ती जा रही हैं। पर्यावरणविद् जेएल कुशवाहा के अनुसार अब गंगा का जल केवल कल्पना में ही शुद्ध हो सकता है। गंगा केवल एक नदी भर नहीं है। गंगा के विलुप्त होते ही भारत के न जाने कितने तीर्थ, कितने ऋषि, कितना साहित्य अपने प्राण खो देंगे। नेहरूजी ने अपनी पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया में लिखा है कि किसी को भारतीय इतिहास का प्रवाह देखना हो तो वह गंगा का प्रवाह देखे। गंगाजल जीवन और मृत्यु का प्रथम साक्षी है। गीता में कृष्ण कहते है कि मैं वृक्षों में पीपल हूं और नदियों में गंगा। हमारे देश में और देश के बाहर गंगा से प्राचीन, उससे विशाल, उससे लंबी नदियां हैं, लेकिन गंगा की तरह प्राणवान कोई नहीं है। अंग्रेजी साहित्य में जॉर्डन नदी को इसीलिए ईसाई धर्म की गंगा कहा गया है, क्योंकि जान बपतिस्मा उसके जल से लोगों को धर्म में दीक्षित करते थे। तुगलक जैसा मुस्लिम बादशाह केवल गंगाजल से स्नान करता था। सूफी साहित्य में सूफी फकीरों द्वारा गंगाजल को मंत्राभिसिक्त कर अपने मुरीदों में बांटने के प्रमाण हैं। इकबाल ने अपने तराने सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा में गंगा को हिंदुस्तान की आबरू कहा है। प्राची में सविता के उगते ही साधु-संत गंगाजल में खड़े होकर अ‌र्घ्य देते हैं। गंगोत्री से खाड़ी तक भगीरथी के प्रवाह के किनारे न जाने कितने लोग ध्यानमग्न और समाधिस्थ मिल जाएंगे। खापों और पंचायतों में आज भी गंगाजल शपथ का साक्षी है। गंगा की सफाई किसी नदी की सफाई नहीं है। यह भारत के अंत:करण का शुद्धि अभियान है। यह दुखद है इसमें जनभागीदारी दरकिनार है, केवल सरकार ही सरकार है, इसीलिए सब गुड़गोबर है। गंगा कार्य योजना के 26 वर्ष पूरे हुए, अरबों रुपये स्वाहा हुए, इसमें अभी कुछ अंक और जुड़ेंगे, जुड़ते जाएंगे, लेकिन गंगा का प्रदूषण नहीं रुकेगा। बस इसमें गंगा विलाप के कुछ अध्याय और जुड़ते जाएंगे। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

Tuesday, May 17, 2011

हिमालय के 75 फीसदी ग्लेशियर पिघल रहे



भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के अनुसार हिमालय के 75 फीसदी ग्लेशियर पिघल रहे हैं। अगर यही रफ्तार रही तो बर्फ से ढंकी यह पर्वत श्रंखला आने वाले कुछ सालों में बर्फ विहीन हो जाएगी। इसरो ने सीसोर्ससैट-1 उपग्रह से प्राप्त हिमालय के ताजा चित्रों के आधार पर कहा है कि हमेशा हिम से ढंका रहने वाला हिमालय अब बर्फ हीन होता जा रहा है। उसके मुताबिक बीते पंद्रह सालों में 3.75 किलोमीटर की बर्फ पिघल चुकी है। सन 1989 से लेकर वर्ष 2004 के सैटेलाइट चित्रों के आधार पर यह आकंलन किया गया है। इस हिसाब से इस हिम श्रृंखला की 75 फीसदी बर्फ पिघलती जा रही है। एक प्रमुख अंग्रेजी दैनिक के अनुसार स्पेस अप्लीकेशन सेंटर के अहमदाबाद कार्यालय में तैनात जीयो एंड प्लानेटरी साइंस ग्रुप (एमपीएसजी) के ग्रुप डायरेक्टर डॉ. अजय ने बताया कि यह एक बेचैन कर देनेवाली स्थिति है चूंकि आप देख सकते हैं कि 75 फीसदी ग्लेशियर पिघलकर नदी और झरने का रूप ले चुके हैं। सिर्फ आठ फीसदी ग्लेशियर दृढ और 17 फीसदी ग्लेशियर ही स्थिर हैं। डॉ. अजय का कहना है कि अभी भी कई ग्लेशियर बहुत ही अच्छी हालत में हैं। और यह ग्लेशियर कभी भी गायब नहीं होंगे। उन्होंने कहा कि इन ग्लेशियरों के खत्म होते जाने की वजह सिर्फ ग्लोबल वार्मिग नहीं है। हालांकि यह प्रोजेक्ट हिमालय के ग्लेशियर तेजी से गायब होने के मिथ को धता बताने के लिए शुरू किया गया था लेकिन इसके नतीजे वाकई काफी परेशान करने वाले हैं। इसरो के इस अभियान को विज्ञान, पर्यावरण और वन मंत्रालय ने मंजूरी दी थी। ताकि संयुक्त राष्ट्र की अंतरराष्ट्रीय रपट का मुंहतोड़ जवाब दिया जा सके। उल्लेखनीय है कि पिछले साल ही संयुक्त राष्ट्र की एक पर्यावरण रिपोर्ट में भी हिमालय के ग्लेशियर गायब होने की बात कही गई थी। इसरो के साथ मिलकर पचास विशेषज्ञों और 14 संगठनों ने 2190 ग्लेशियरों का अध्ययन किया। यह ग्लेशियर सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों के मुहाने पर स्थित हैं। इसके अलावा यह इनमें से कई ग्लेशियर चीन, नेपाल, भूटान और पाकिस्तान में भी हैं। उल्लेखनीय है कि आईपीसीसी ने भी 2007 में अपनी रिपोर्ट में कहा था कि 2035 तक हिमालय के सभी ग्लेशियर ग्लोबल वार्मिग के चलते खत्म हो जाएंगे।
हर साल सिकुड़ रहे आइसलैंड के ग्लेशियर : पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार आने वाले 200 सालों में ग्लोबल वार्मिग के चलते आइसलैंड के सभी ग्लेशियर खत्म हो जाएंगे। आइसलैंड के तीन सबसे बड़े ग्लेशियर होफ्जुकुल, लौंगोकुल और वैटनोजोकुल खतरे में हैं। यह समुद्र तल से 1400 मीटर की ऊंचाई पर हैं




Wednesday, May 11, 2011

रेत में लोटती हरियाली


सूखी भूमि को हरा-भरा करने का कार्य बहुत सार्थक है। बहुत जरूरी है, सब मानते हैं, फिर भी न जाने क्यों पौधरोपण व वनीकरण के अधिकांश कार्य उम्मीद के अनुकूल परिणाम नहीं दे पाते हैं। खर्च अधिक होने पर भी बहुत कम पेड़ ही बच पाते हैं। इस तरह के अनेक प्रतिकूल समाचारों के बीच यह खबर बहुत उत्साहवर्धक है कि राजस्थान में सूखे की अति प्रतिकूल स्थिति के दौर में भी एक लाख से अधिक पेड़ों को पनपाने का काम बहुत सफलता से किया गया है। उल्लेखनीय बात यही है कि यह सफलता घोर जल संकट के दौर में प्राप्त की गई। इतना ही नहीं, यह कार्य अपेक्षाकृत कम लागत पर किया गया व जो भी खर्च हुए उसका बड़ा हिस्सा गांववासियों को ही मजदूरी के रूप में मिल गया। अजमेर जिले का सिलोरा (किशनगढ़) ब्लाक की तीन पंचायतों टिकावड़ा, नलू व बारा सिंदरी में बबूल, खेजड़ी, शीशम, नीम आदि के एक लाख से अधिक पौधे बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों में गांववासियों ने पनपाए हैं। इसकी शुरुआत वर्ष 1987 के आसपास हुई जब केंद्र सरकार व राष्ट्रीय परती विकास बोर्ड ने विभिन्न संस्थाओं व व्यक्तियों को परती भूमि को हरा-भरा करने के कायरे के लिए आमंत्रित किया। जिले की एक प्रमुख संस्था बेयरफुट कॉलेज ने चार-पांच पंचायतों में यह कार्य आरंभ किया। बाद में कुछ अन्य संस्थाओं ने (विशेषकर नलू पंचायत) भी इसमें अपना योगदान दिया। गांववासियों की पूरी भागेदारी से कार्य करने की नीति को समर्पित इस संस्था ने विभिन्न पंचायतों में चरागाह विकास समितियों की स्थापना की। गांववासियों के सहयोग से कार्यक्रम व नियम बनाए गए। सभी समुदायों को समिति में स्थान दिया गया। महिलाओं की भागीदारी विशेष तौर पर प्राप्त की गई। सबसे बड़ी कठिनाई चूंकि पानी की कमी की थी। अत: यह कार्य प्राय: जल-संग्रहण व संरक्षण प्रयासों से आरम्भ किया गया। मेड़बंदी की गई। चेक डैम व एनीकट बनाए गए। कुएं खोदे गए। पाईप लाइनों से कुंए का पानी दूर-दूर तक पहुंचाया। मटकों में छेद कर उन्हें रोपे गए पौधों की जड़ों के पास रखा गया ताकि बूंद-बूंद पानी मिलता रहे। भुरभरी उपजाऊ मिट्टी लाकर पौधों के लिए खोदे गए गड्ढों में डाला गया। इन प्रयासों के बावजूद सूखे के कुछ वर्ष इतने कठिन थे कि कुछ पौधे सूख गए पर अधिकांश को बचाया जा सका। नलू पंचायत में इस प्रयास से जुड़ी रही वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता रतन बहन कहती हैं, ‘जब हम पौधे रोपते जाते थे तो लगता था जैसे एक-एक पौधा हमसे कह रहा था कि मुझे यहां लगाओ, मुझे पानी दो। उस समय तो बस ये पौधे ही हमारे जीवन का केन्द्र बन गए थे।
वे बताती हैं, ‘कई मुश्किलें आई और कुछ झगड़े भी हुए। दो गांवों की चरागाह सीमा को लेकर ही बड़ा विवाद आरंभ हो गया। पर किसी तरह इन झगड़ों और तनावों को सुलझाकर कार्य आगे बढ़ता रहा। टिकावड़ा पंचायत क्षेत्र की वनीकरण कार्यक्रम समन्वयक कलावती ने बताया, गांववासियों से इस बारे में निरंतर परामर्श चलता रहा कि धीरे-धीरे जो हरियाली लौट रही है, उसे पशुओं के चरने से कैसे बचाया जाए। इस बारे में बहुत मतभेद भी हो जाते थे पर किसी न किसी तरह ऐसा अनुशासन बनाया गया कि हरियाली खतरे में न पड़े।
टिकावड़ा व नलू पंचायत में तो यह प्रयास सफल रहा, पर तिलोनिया गांव में स्थिति बिगड़ गई। यहां पंचायत चुनाव से पहले बड़े संकीर्ण स्वार्थ के शक्तिशाली व्यक्तियों ने इशारा कर दिया कि जो चाहे लकड़ी काट सकता है। वर्षो की मेहनत से पनपाए गए पेड़ों को रातोंरात कई लोगों ने काट लिया। यहां ध्यान देने की बात है कि इस पंचायत में 50 वर्षो से एक ही परिवार का आधिपत्य चल रहा था। पिछले चुनाव में उसे हटाया जा सका पर वन-विनाश का तांडव इससे पहले ही हो चुका था। इससे पता चलता है कि बेहद निष्ठा से प्राप्त की गई सफलता को भी स्वार्थी संकीर्ण तत्वों से बचाना कितना जरूरी है, अन्यथा दस-बीस वर्षो की मेहनत दो- चार दिनों में नष्ट हो सकती है। फिलहाल टिकावड़ा, नलू व बारा सिंदरी पंचायतों में खड़े एक लाख से अधिक पेड़ बता रहे हैं कि बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों में सूखी बंजर धरती को हरा-भरा करने का कार्य सफलता से हो सकता है। यहां गांववासियों को चारा, ईधन, सब्जी की उपलब्धि बढ़ी है। उनके पशुपालन का आधार मजबूत हो गया है क्योंकि अधिक पशुओं के लिए चारा उपलब है। धरती की जल-ग्रहण क्षमता बढ़ गई है। इसके साथ अनेक वन्य जीवों व पक्षियों को जैसे नवजीवन मिल गया है। एक समय बंजर सूखी रही इस धरती पर जब हम घूम रहे थे तो पक्षियों के चहचहाने के बीच हमें नीलगाय के झुंड भी नजर आए। वह हरियाली उनके लिए भी उतना ही वरदान है जितना गांववासियों के लिए।


बजट नहीं इच्छाशक्ति चाहिए


गंगा और यमुना सदियों से हमारी आस्था का केंद्र रही हैं, पर आज इनका अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। पिछले 56 वर्षो में गंगा का पानी बीस फीसदी घटा है। यही हाल रहा तो अगले 50 सालों में गंगा नदी सूख जाएगी। यह निष्कर्ष विशेषज्ञों के एक दल ने निकाला है। हालांकि पिछले दिनों प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में कैबिनेट की एक समिति ने गंगा के पुनर्उद्धार के लिए सात हजार करोड़ रुपये की धनराशि मंजूर की, लेकिन असल सवाल अब भी बरकरार है कि क्या यह राशि वास्तव में गंगा की रंगत वापस ला पाएगी? दरअसल मोक्षदायिनी गंगा की 27 धाराओं में से अब तक 11 धाराएं विलुप्त हो चुकी हैं और 11 धाराओं में जलस्तर में तेजी से कमी आ रही है। पर्यावरण की दृष्टि से यह स्थिति भयावह है। इसका कारण गंगोत्री ग्लेशियर का तेजी से पिघलना बताया गया है। गंगा के यदि हम धार्मिक महत्व को छोड़ दें तो भी गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक इसके किनारे बसी हुई तीस करोड़ से अधिक आबादी और तमाम जीव-जंतुओं, वनस्पतियों के जीवन का मूल आधार गंगा ही हैं। गंगा के बिना गंगा की घाटी में जीवन संभव नहीं है। इसलिए इसकी रक्षा, इसे निर्मल बनाए रखने की चिंता और प्रयास जो नहीं करता है, वह अपने साथ ही आत्मघात कर रहा है। वेदों से लेकर वेदव्यास तक, वाल्मीकि से लेकर आधुनिक कवियों और साहित्यकारों ने इसका गुणगान किया है। इसका भौगोलिक, पौराणिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और साथ-साथ अध्यात्मिक महत्व है। भगीरथ की जिस गंगा में कभी निर्मल जल की धारा बहती थी, आज वहां सड़ांध और दुर्गध के भभके उठते रहते हैं। कानपुर में तो इस नदी ने एक तरह से नाले का रूप ले लिया है और वह अपने स्थान से भी खिसक रही है। अपनी नदियों को प्रदूषण से बचाना हमारा कर्तव्य है, लेकिन गंगा और यमुना जैसी पावन नदियों को भी प्रदूषण से मुक्त कराने की चिंता अब शायद किसी को नहीं है। इसीलिए इसके लिए अदालतों को बार-बार पहल करनी पड़ती है। हालांकि सरकार गंगा सफाई अभियान और इसके लिए बजट की घोषणा करती है, लेकिन जब तक योजनाओं और घोषणाओं को पूरी इच्छाशक्ति से लागू नहीं किया जाएगा और लोगों को जागरूक नहीं किया जाएगा, तब तक हम गंगा-यमुना जैसी अपनी जीवनदायी नदियों को नहीं बचा सकते हैं। गंगा कोई साधारण नदी नही है। यह इस धरती पर सतत प्रवाहमयी चैतन्य की धारा है। गंगा की उत्पत्ति के अनुसार, इसके कई नाम हैं। यह विष्णु के चरण से निकली हैं, इसलिए विष्णुपदी, भगीरथ की तपस्या से उतरी हैं, इसलिए भागीरथी। पृथ्वी पर उतरी हैं, इसलिए गंगा कहलाती हैं। वह इस पृथ्वी पर पत्नी तथा माता के रूप में प्रसिद्ध हैं। वह शांतनु की पत्नी और भीष्म की माता भी हैं। पुराणों में गंगा को लोकमाता कहा गया है। भारतीयों के हृदय में गंगा के प्रति इतनी श्रद्धा है कि वे सभी नदियों में गंगा का ही दर्शन करते हैं। वैज्ञानिक अनुसंधानों से भी यह सिद्ध हो गया है कि दुनिया की नदियों में गंगा ही सबसे पवित्रतम नदी है। इसके जल में कीटाणुओं के उन्मूलन की क्षमता सबसे अधिक है। शरीर के विभिन्न अंगों के रोग इसके पवित्र जल से दूर हो जाते हैं। अनुसंधानों से यह भी पता चला है कि गंगा के जल में हैजे के कीटाणु तीन चार-घंटे में स्वत: मर जाते हैं। वैश्वीकरण की नीतियों को लागू किए जाने के बाद से भारत दुनिया के विकसित देशों का कूड़ाघर बनता जा रहा है। एक तरफ बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपना कचरा यहां की नदियों में बहा रही हैं तो दूसरी तरफ भारत में विकसित देशों ने अपने औद्योगिक अपशिष्ट को बेचने की जो प्रक्ति्रया पिछले कई वर्षो से अपना रखी थी, उस पर भारत के उच्चतम न्यायालय ने जनहित में फैसला देते हुए 1997 में पूरी तरह रोक लगा दी थी, लेकिन इसके बावजूद पता नहीं किन अज्ञात संधियों और कूटनयिक समझौतों के तहत यह अत्यंत विषैला कचरा लगातार अलग-अलग माध्मयों से भारत में निरंतर आता रहा है। उच्चतम न्यायालय की रोक के बावजूद यह सिलसिला जारी है। भारी मात्रा में शीशे के अलावा परमाणु रिएक्टरों तथा परमाणु बमों में नियंत्रक तत्व के रूप में प्रयोग की जाने वाली कैडमियम धातु भी गंगाजल में बड़ी मात्रा में पाई जा रही है, लेकिन इसकी सफाई के लिए चलाई जा रही योजनाओं का अभी तक कोई नतीजा सामने नहीं आया है। इस चुनौती का मुकाबला किए बिना हमारा उद्धार गंगा नहीं कर सकती है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)