पर्यावरण और विकास को विरोधाभासी बताए जाने के तर्क को अनुचित ठहरा रहे हैं लेखक
चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ ने पिछले दिनों कहा कि उनके देश में अगले पांच साल के लिए वार्षिक संवृद्धि दर का लक्ष्य घटाकर सात प्रतिशत कर दिया गया है। हमें तीव्र आर्थिक संवृद्धि के लिए अपने पर्यावरण का बलिदान नहीं करना चाहिए। उन्होंने सरकार से सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि से ध्यान हटाकर संवृद्धि की गुणवत्ता और लाभ पर केंद्रित करने को कहा। वेन का बयान चीन और भारत की आर्थिक संवृद्धि का वैश्विक पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर पश्चिमी जगत की चिंताओं के मद्देनजर आया है। पिछले साल चीन की संवृद्धि दर 10.3 प्रतिशत थी, जो इस साल 9 प्रतिशत रह गई है। यद्यपि वह अपने देश के नागरिकों से मुखातिब थे, फिर भी उनका संदेश पश्चिम के आलोचकों पर लक्षित था। सतही तौर पर चीनी प्रधानमंत्री की टिप्पणी समझदारी और जिम्मेदारी से भरी प्रतीत होती है। ऐसा कौन होगा, जो प्रकृति के संरक्षण के खिलाफ हो? किंतु क्या प्रधानमंत्री वेन एक गरीब देश की संवृद्धि दर को कम करके सही कदम उठा रहे हैं? मेरे हिसाब से वह गलत कर रहे हैं। भारत और चीन तेजी से विकास करने के साथ-साथ पर्यावरण की भी रक्षा कर सकते हैं। एक कहावत है कि महिला या तो खूबसूरत हो सकती है या फिर वफादार, दोनों एक साथ नहीं हो सकती। यह कहावत उस मानव प्रवृत्ति को उजागर करती है जो दिमाग में कुछ खांचे बैठाती है और फिर उनमें लोगों को फिट कर दिया जाता है। लगता है वेन भी इसी प्रवृत्ति के जाल में फंस गए हैं और मानने लगे हैं कि या तो उच्च संवृद्धि दर हासिल की जा सकती है या फिर स्वच्छ पर्यावरण। अब पश्चिमी आलोचक भारत को लेकर भी सवाल उठाएंगे कि जब चीन अपनी संवृद्धि दर को कम करने के लिए कदम उठा सकता है तो भारत उच्च दर को लेकर इतना दीवाना क्यों है? वास्तव में, वेन के इस बयान के अगले ही दिन वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने भारत सरकार के वार्षिक बजट में 9 प्रतिशत सकल विकास दर हासिल करने का खाका पेश किया। यही नहीं, उन्होंने यह उम्मीद भी जताई कि यह दर और ऊपर जा सकती है। असलियत यह है कि उच्च संवृद्धि और पर्यावरण के संरक्षण को विरोधाभासी बताना ही गलत है। एक राष्ट्र एक साथ दोनों लक्ष्यों को उसी प्रकार हासिल कर सकता है जिस प्रकार एक महिला सुंदर होने के साथ-साथ वफादार भी हो सकती है। विकास का समझदारी भरा रास्ता यही है कि प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाए रखते हुए उस नील-हरित पट्टी को बचाया जाए, जिस पर जीवन निर्भर करता है। एक गरीब देश की आर्थिक संवृद्धि घटाना अनैतिक है। यह गरीबों को गरीब बनाए रखना है। पिछली दो सदियों का इतिहास हमें सिखाता है कि कि गरीब तभी मध्य वर्ग में पहुंच सकते हैं, जब उच्च आर्थिक संवृद्धि हो। संवृद्धि देश में रोजगार और संपदा पैदा करती है। सरकार धनी लोगों से कर वसूलती है और इसे शिक्षा व स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में खर्च करती है। रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य तक दायरा बढ़ने से गरीबों का विकास होने लगता है। असलियत यह है कि उच्च संवृद्धि के कारण ही पिछले 25 वर्षो में 35 करोड़ चीनी और 22.5 करोड़ भारतीय गरीबी के शिकंजे से बाहर निकल पाए हैं। एक समय था, जब मैं पर्यावरण आंदोलन का प्रबल समर्थक था, किंतु मैं आज के पर्यावरण एक्टिविस्टों को लेकर नाखुश हूं। यह देखकर मुझे बड़ी तकलीफ होती है कि आज पर्यावरण एक्टिविस्टों के कारण बहुत सी परियोजनाएं अटकी पड़ी हैं। वे भारत में लगने वाले लगभग प्रत्येक बिजलीघर और प्रमुख औद्योगिक परियोजना का विरोध कर रहे हैं। कोई भी परियोजना में विलंब या फिर रद होने के नुकसान का जायजा नहीं ले रहा है। इसका असल खामियाजा गरीब को उठाना पड़ रहा है। इसकी असली कीमत भूख से तड़पते उन बच्चों को चुकानी पड़ रही है जिनका भविष्य बिजलीघर या कारखाना स्थापित न होने के कारण अंधकारमय है। पर्यावरण आंदोलन एक विज्ञान विरोधी, संवृद्धि विरोधी अभियान बनकर रह गया है। मैं यह सोचकर ही कांप उठता हूं कि अगर पर्यावरणविद् पिछली सदी के छठे दशक में इतने ही असरदार होते तो ये भारत की हरित क्रांति का कत्ल कर चुके होते। हरित क्रांति ने गेहूं की पैदावार में छह गुना और चावल की पैदावार में तीन गुना बढ़ोतरी की है। कृषि के क्षेत्र में इस कायाकल्प ने पचास करोड़ अतिरिक्त भारतीयों का पेट भरा है। पर्यावरण एक्टिविस्टों ने हरित क्रांति की शुरुआत में इसका हलका विरोध किया था, लेकिन सरकार ने इन पर ध्यान नहीं दिया। इस बीच पिछले कुछ दशकों में भारत के नौकरशाहों और राजनेताओं ने पर्यावरण आंदोलन को एक फायदेमंद व्यापार में बदल दिया। 2009 में मनमोहन सिंह ने शिकायत की थी कि पर्यावरण की अनुमति लाइसेंस राज और भ्रष्टाचार का नया रूप बन गया है। जब संप्रग 2 सरकार ने साफसुथरी छवि वाले आधुनिक विचारधारा के जयराम रमेश को 2009 में पर्यावरण मंत्री बनाया तो इस फैसले से मैं काफी खुश हुआ, किंतु मेरी खुशी जल्द ही दुख में बदल गई, क्योंकि जयराम रमेश भी पर्यावरण एक्टिविस्ट में बदल गए और नियामगिरि, लवासा व पास्को जैसी बड़ी परियोजनाओं की फाइल फिर से खोल बैठे। उनकी मनमानी दुनिया भर में मुद्दा बनी और इससे भारत के प्रति निवेशकों का मन खट्टा हो गया। रिजर्व बैंक के अनुसार 2010-11 के पूर्वार्ध में भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में 36 प्रतिशत कमी आई है। इसका प्रमुख कारण खनन, एकीकृत टाउनशिप परियोजनाओं और बंदरगाहों के संबंध में पर्यावरण नीतियों का अड़ंगा है। वास्तव में, हम चाहते हैं कि पर्यावरण मंत्रालय सुनिश्चित करे कि औद्योगिक परियोजनाएं सर्वश्रेष्ठ पर्यावरण मानक स्थापित करें, किंतु इसके लिए पारदर्शी नियम और पारदर्शी संस्थान बनाएं जाएं, न कि मंत्री अपनी मनमानी चलाते हुए उलटे-सीधे फैसले लें। हम सभी को प्रकृति को लेकर संवेदनशील होना चाहिए, खासतौर पर तब जब दुनिया भर में तेजी से वनों का कटाव हो रहा है और इसके कारण ग्लोबल वार्मिग बढ़ रही है, किंतु साथ ही हमें पंथिक कट्टरपंथियों और पर्यावरण आंदोलन की बेतुकी प्रकृति के बारे में भी सचेत होना चाहिए, जो प्रकृति के संरक्षण के नाम पर मानव विकास के अवसरों की बलि चढ़ा रहे हैं। पर्यावरणविदों को पुरानी जीवनपद्धति से मोह होता है। वे यह स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं कि जनसंख्या वृद्धि से विनाश का उनका सिद्धांत गलत सिद्ध हो चुका है। जाहिर है, हमें प्रकृति का संरक्षण तो करना है, किंतु अगर दोनों में से एक को चुनना हो तो मैं प्रकृति पर मानव जाति को प्राथमिकता देना चाहूंगा। इसके विपरीत सोच पाखंड के साथ-साथ अनैतिक भी है। (लेखक प्रख्यात स्तंभकार )
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