Wednesday, March 30, 2011

दहाड़ है तो जीवन


बाघ प्राचीन काल से ही अपने देश की आन, बान और शान रहे हैं। सिंधु घाटी सभ्यता में भी राजकीय चिह्नों पर बाघ का चेहरा उकेरा जाता था तो सम्राट अशोक के प्रसिद्ध स्तूपों के शीर्ष भी बाघ की आकृति से शोभायमान होते थे। आधुनिक भारत में भी इसे राष्ट्रीय पशु की मान्यता मिली हुई है। लेकिन प्रतीकों और चिह्नों के बल पर इतिहास के कोरे महिमामंडन से ही वर्तमान को नहीं संवारा जा सकता। पिछले लम्बे अरसे से लगातार खबरें आ रही थीं कि देश के जंगलों से बाघ गायब होते जा रहे हैं। जंगलों की धुंआधार कटाई और शिकारियों के घातों के बीच गुम होती जा रही थी बाघ की दहाड़। पूरा देश चिंता में डूबने लगा था कि आने वाली पीढ़ियों के आगे क्या हमारे बाघ भी लुप्त डायनासोरों की पंक्ति में ही खड़े दिखेंगे! ऐसे निराशाजनक माहौल में यह खबर यकीनन उत्साह बढ़ाने वाली है कि देश में बाघों की संख्या बढ़ी है और सुंदरवन के अरण्यों में आज भी अनूठे रॉयल बंगाल टाइगरों की दहाड़ें गूंज रही हैं। देश भर में बाघों का हाल जानने के लिए चलाए गए एक वर्ष के कठिन अभियान के दौरान उन जंगलों को भी टटोला गया जहां नक्सलियों के आतंक के कारण पहले जानकारी नहीं मिल पाती थी। यह पहला मौका था जब पदचिह्नों के आधार पर गणना की पारम्परिक पद्धति के साथ ही कैमरे की आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल भी किया गया। बाघों को लेकर देश में जागी सम्वेदना और गम्भीरता का सुंदर सम्मिशण्रथा इस अभियान में। लेकिन, इस खोजबीन में कई चिंताजनक बातें भी दिखी हैं जिनकी अनदेखी इस राष्ट्रीय पहल को बेअसर बना सकती है। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि बाघों की संख्या में भले इजाफा दिखा हो, उनके रिहायशी इलाकों में जबर्दस्त कटौती हुई है। विकास और प्रकृति की जंग के साथ ही बढ़ती आबादी का रेला जंगलों के विनाश पर उतारू है और इसकी कीमत आखिरकार बाघ जैसे जीवों को ही तो चुकानी पड़ेगी! कभी बाघों के आवास के रूप में मशहूर मध्य प्रदेश के जंगलों से उनका गायब होना पेशानी पर चिंता की लकीरों को और गहरा देता है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश की चिंता है कि सत्तर फीसद बाघ ही संरक्षित अभयारण्यों में पनाह पा रहे हैं। बाकी तीस फीसद आबादी उन जंगलों में देखी जा रही है, जहां उनकी सुरक्षा को लेकर हमारे पास कोई नीति या योजना नहीं है। ऐसे में बाघों की यह विशाल आबादी शिकारियों के रहमोकरम पर है जो खतरनाक है। बाघों का सबसे बड़ा महत्त्व इस बात में है कि ये प्रकृति और पर्यावरण का प्रतिनिधित्व करते हैं। विकास की भूख में जब हम जंगलों का नाश करते हैं तो पहला शिकार बाघ जैसे प्राणी ही होते हैं। लेकिन इनके साथ ही उस पर्यावरण का खात्मा भी हो जाता है जो जीवन को आधार देता है। मतलब, इंसान अपने अस्तित्व के खात्मे की तैयारी भी इस विनाश के साथ कर रहा होता है। तब गर्म होती पृथ्वी का कहर टूटता है और हमें उफ करने का वक्त भी नहीं मिल पाता। इसलिए जब हम बाघों को बचाते हैं, तब वास्तविकता में खुद को बचा रहे होते हैं।

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