Saturday, March 26, 2011

हाशिए पर राष्ट्रहित


परमाणु रिएक्टरों के आयात में राष्ट्रीय हितों की अनदेखी होती देख रहे हैं ब्रह्मा चेलानी
चेर्नोबिल के बाद विश्व के सबसे भयावह परमाणु हादसे ने विदेशी रिएक्टरों के बल पर परमाणु शक्ति कार्यक्रम बढ़ाने की भारत की योजनाओं पर सवाल खड़े कर कर दिए हैं। भारत के परमाणु आयात के साथ दिक्कत यह है कि ये सुविचारित और सुनियोजित नीति के तहत नहीं किए जा रहे हैं, बल्कि इनके माध्यम से भारत-अमेरिकी परमाणु करार को फलीभूत करने के लिए आननफानन में अमेरिका, फ्रांस और रूस को उपकृत किया जा रहा है। उदाहरण के लिए, 10 सितंबर, 2008 को व्हाइट हाउस द्वारा परमाणु करार के अनुमोदन के लिए इसे अमेरिकी संसद में भेजने से मात्र दस मिनट पहले संसद को अंधेरे में रखते हुए भारत सरकार ने अमेरिका के विदेश विभाग के अंडर सेक्रेटरी विलियम ब‌र्न्स को एक पत्र फैक्स किया, जिसमें अमेरिका से कम से कम 10,000 मेगावाट के परमाणु उत्पादन क्षमता वाले रिएक्टर खरीदने की गारंटी दी गई। जैसाकि विकिलीक्स खुलासे से स्पष्ट हो रहा है, परमाणु करार से अमेरिका को मोटा मुनाफा हो रहा है और इसके लिए भारत में समर्थन जुटाने के लिए और अपने अभीष्ट लक्ष्यों की पूर्ति के लिए वह तमाम हदों से गुजर गया है। नोट के बदले वोट मामले में विकिलीक्स के खुलासे से करार को अंजाम तक पहुंचाने में गंदा पैसा लगे होने की पुष्टि होती है। अब संदिग्ध निविदाओं को प्रभावित करने के लिए भारी रकम का लेन-देन हो रहा है। जिन्होंने राष्ट्रीय सम्मति या संसद में करार की पड़ताल के बिना ही करार पर हस्ताक्षर कर दिए अब वे ही रिएक्टरों के आयात में दीर्घकालीन सुरक्षा और इनकी प्रतिस्पर्धी लागत को ताक पर रख रहे हैं। इसका एक संकेत यह है कि बेहद गैरजिम्मेदाराना तरीके से बिना प्रतिस्पर्धी निविदा प्रक्रिया के चारो विदेशी कंपनियों को एक-एक परमाणु पार्क आरक्षित कर दिया गया है। सुरक्षा संबंधी सबसे बड़ी चूक यह है कि भारत ऐसे रिएक्टर आयात करने को वचनबद्ध है, जिनका किसी भी देश में परीक्षण तक नहीं हुआ है। इनमें एरेवा कंपनी के 1630 मेगावाट के यूरोपियन प्रेसराइज्ड रिएक्टर (ईपीआर) और जनरल इलेक्टि्रक-हिटाची के 1520 मेगावाट के इकोनोमिक सिंपलीफाइड बायलिंग वाटर रिएक्टर (ईएसबीडब्ल्यूआर) रिएक्टर शामिल हैं। इन रिएक्टरों को अभी तक यूएस डिजाइन सर्टिफिकेट नहीं मिला है। बिना परीक्षण वाले रिएक्टरों का आयात बेहद जोखिम भरा है। 1960 में जीई ने भारत को बॉयलिंग वाटर रिएक्टर (बीडब्ल्यूआर) के प्रोटोटाइप बेचे थे। बाद में इसी डिजाइन पर आधारित छह रिएक्टर उसने फुकुशिमा संयंत्र को बेचे थे, जिनमें अब परमाणु विकिरण हो रहा है। फुकुशिमा परमाणु संकट के बाद ही भारत के परमाणु प्रमुख ने अब जाकर स्वीकार किया है कि एरेवा के ईपीआर डिजाइन को भूकंप और सुनामी सुरक्षा मापदंडों पर परखना जरूरी है। यह तब क्यों नहीं किया गया, जब भारत ईपीआर प्रोटोटाइप खरीदने का वचन दे रहा था? आयातित ईंधन पर निर्भरता वाले रिएक्टरों के बूते ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करने के प्रयास, वह भी पारदर्शिता, खुली निविदा और जनता के प्रति जवाबदेही को ताक पर रखकर, पैसे की बर्बादी के सिवा कुछ नहीं है। इस बात की पूरी संभावना है कि इस पूरी कवायद में भ्रष्टाचारियों को घूस में मोटी रकम मिलेगी। कॉरपोरेट परमाणु लॉबी के उदय के साथ विक्रेता और क्रेता के बीच की रेखा धूमिल हो गई है। अब क्रेता और विक्रेता के बीच अनैतिक संबंध बन गए हैं। यह इस बात से रेखांकित होता है कि भारत दस अरब डालर (करीब 45,000 करोड़ रुपये) से अधिक के रिएक्टर आयात के सौदे बिना किसी खुली निविदा के कर चुका है। इन पर अंकुश लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के दखल की जरूरत है, अन्यथा 2 जी स्पेक्ट्रम सरीखा घोटाला सामने आ सकता है। मामले को और बिगाड़ने के लिए नियामक और संचालक के बीच की रेखा भी धुंधली हो गई है। यहां तक कि परमाणु सैन्य कार्यक्रम की गोपनीयता भी विशुद्ध व्यावसायिक क्षेत्र-परमाणु शक्ति के हवाले कर दी गई है। सिद्धांत रूप में, राष्ट्रीय नियामक एटॉमिक एनर्जी रेग्युलेटरी बोर्ड स्वतंत्र रूप से कार्य करने में असमर्थ हो गया है, क्योंकि यह डिपार्टमेंट ऑफ एटॉमिक एनर्जी के अधीन कर दिया गया है। परमाणु कार्यक्रम के विस्तार से पहले भारत को एक मजबूत और स्वतंत्र परमाणु नियामक की स्थापना करनी बेहद जरूरी है। लाइट वाटर रिएक्टर (एलडब्ल्यूआर) रिएक्टरों की स्थापना से भारत की परमाणु शक्ति जटिल और विविधतापूर्ण हो जाएगी। इससे अलग-अलग प्रौद्योगिकियों को संभालना बेहद जोखिमभरा और कठिन हो जाएगा। छह फुकुशिमा डाइची रिएक्टरों में सिलसिलेवार धमाकों की घटनाएं भी चिंताजनक हैं। ये रिएक्टर एक-दूसरे के इतने करीब थे कि एक में दुर्घटना का असर दूसरे पर पड़ रहा था। यह भारत के प्रत्येक परमाणु पार्क में छह या इससे अधिक रिएक्टरों के निर्माण पर गंभीर सवाल खड़े करता है। फुकुशिमा में इस्तेमालशुदा ईंधन की छड़ों में रेडियोएक्टिव यूरेनियम मौजूद था। ये छडं़े रिएक्टर कोर से भी अधिक विकिरण फैला रही हैं। इससे तारापुर के परमाणु केंद्र की ओर ध्यान जाता है, जहां पिछले चार दशक से इस्तेमाल हो चुके ईंधन का ढेर जमा हो रहा है। अमेरिका ने इसे वापस लेने और भारत को इसका पुन‌र्प्रसंस्करण करने की अनुमति देने से इनकार कर दिया है। इस्तेमाल किया गया ईंधन भारत की सघन आबादी के लिए गंभीर खतरा बन सकता है। इस्तेमाल किए गए ईंधन की छड़ें और अवशेष एक खाड़ी में पानी के अंदर रखे हुए हैं, किंतु इस तरह के तात्कालिक उपायों का खोखलापन जापान के फुकुशिमा ने उजागर कर दिया है। परमाणु क्षतिपूर्ति विधेयक ने विदेशी आपूर्तिकर्ताओं की जवाबदेही को भारतीय करदाताओं के कंधे पर डाल दिया है। विदेशी कंपनियों को बाजारू दर पर बिजली उत्पादन की बाध्यता से भी मुक्त कर दिया गया है। इन रिएक्टरों से उत्पन्न महंगी बिजली को अनुदान भी भारतीय करदाताओं के पैसे से दिया जाएगा। भारत को अरबों डॉलर के परमाणु रिएक्टरों के आयात से पहले समग्र परमाणु ऊर्जा नीति की रूपरेखा तैयार कर लेनी चाहिए, जिसमें सुरक्षा उपायों पर विशेष जोर होना चाहिए। आखिरकार मनमोहन सिंह हमें देसी परमाणु क्षमताओं के दोहन के बजाय आयातित परमाणु तकनीक का गुलाम बनाना चाहते हैं। थोरियम ईंधन में भारत आत्मनिर्भर है। इस सस्ती तकनीक पर परमाणु ऊर्जा का उत्पादन करने के बजाय भारत महंगी विदेशी प्रौद्योगिकी का गुलाम बनना चाहता है। (लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)

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