Friday, February 11, 2011

पास्को का लोहा


स्थानीय आबादी की बेहतरी सुनिश्चित करना जरूरी है


केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा मिली हरी झंडी के बावजूद यह दावे के साथ नहीं कह सकते कि पास्को परियोजना पर काम आगे बढ़ ही जाएगा। उड़ीसा के जिस इलाके में इस परियोजना पर काम होना है, वह पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम और सिंगूर से ज्यादा दूर नहीं है। उन दोनों जगहों पर आंदोलनकारी सफल रहे थे और उनकी सफलता की छाया पास्को परियोजना पर भी पड़ रही है। पास्को प्रतिरोध संग्राम समिति का कहना है कि हम इस परियोजना के लिए जमीन का अधिग्रहण नहीं होने देंगे। दरअसल इस परियोजना के लिए चार हजार एकड़ जमीन की जरूरत है। इनमें से तीन हजार एकड़ तो सरकारी वनभूमि ही है। शेष एक हजार एकड़ में से भी 567 एकड़ सरकारी जमीन है। बाकी जमीन का अधिग्रहण होना है। और स्थानीय लोग इसी अधिग्रहण का विरोध कर रहे हैं।
संग्राम समिति की इस धमकी को महज गीदड़ भभकी नहीं समझना चाहिए, क्योंकि पश्चिम बंगाल की तरह ही उड़ीसा के आदिवासी बहुल इलाके में भी माओवादियों का दबदबा है। पर सवाल यह है कि औद्योगिक परियोजनाओं का ऐसा विरोध हमारे देश को कहां ले जाएगा? एक समय था, जब लोग अपने इलाके में औद्योगिकीकरण के लिए दबाव बनाते थे। आज लोग औद्योगिक परियोजनाओं को अपने यहां से हटाने के लिए आंदोलनरत हैं।
उड़ीसा देश के सबसे पिछड़े राज्यों में से एक है। वहां खनिज संपदाएं हैं, जिनके खनन से स्थानीय विकास और रोजगार की संभावनाएं जुड़ी हैं। मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने जब कोरिया की पास्को कंपनी के साथ लोहा और इस्पात उत्पादन के लिए करार किया था, तब उनका इरादा स्थानीय आबादी को विकसित करने का ही था। उस करार को छह साल होने को हैं, लेकिन काम आगे बढ़ ही नहीं पा रहा। इसका एक कारण तो यह है कि न तो पास्को ने और न ही उड़ीसा सरकार ने इसके लिए कोई राजनीतिक माहौल बनाने की कोशिश की है। सरकारी समितियों और उनकी सिफारिशों पर लोगों को कोई भरोसा नहीं रहा। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा पास्को की इस परियोजना के लिए रखी गई 60 शर्तें भले ही कंपनी को नागवार गुजर रही हों, लेकिन आंदोलकारियों को इन शर्तों पर भरोसा नहीं है।
इस्पात बनाने वाली दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी कंपनी पास्को चीन में भी इसका उत्पादन कर रही है। चीन के बाद भारत में उसकी दिलचस्पी इसलिए बढ़ी, क्योंकि यहां इस्पात की बिक्री के लिए एक बड़ा बाजार तो है ही, उत्पादन के लिए पर्याप्त मात्रा में लौह अयस्क भी है। इसके अलावा यहां श्रमशक्ति भी सस्ती है। यही कारण है कि भारत में स्टील का उत्पादन किसी भी कंपनी को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्द्धी बनाने में सफल हो जाता है। टाटा स्टील ने दुनिया भर में अपना झंडा इसीलिए बुलंद कर रखा है, क्योंकि उसे भारत की श्रमशक्ति और प्राकृतिक संसाधनों की ताकत मिली हुई है। पास्को भी इसी कारण आकर्षित हुआ है।
भारत तेज गति से विकास करने वाला देश है। जाहिर है, विकास के लिए इसे ज्यादा लोहा चाहिए और विकास क्रम के उत्तरोत्तर इसका लोहा उपभोग बढ़ता जाएगा। ऐसे में हमें पास्को जैसी परियोजनाओं की जरूरत है। हम अपनी इस्पात जरूरतों के लिए आयात पर निर्भर रहने का जोखिम नहीं उठा सकते। विकास के साथ-साथ ऊर्जा की भी खपत बढ़ती है। हमारे पास कच्चे तेल का पर्याप्त भंडार नहीं है, ऐसे में हमें इसका भारी मात्रा में आयात करना पड़ता है। इस कारण हम पर भारी आर्थिक दबाव तो पड़ता ही है, विश्व बाजार में इसकी कीमत बढ़ाने में भी हम भूमिका अदा करते हैं। तेल के साथ हम लोहे के आयात पर भी निर्भर होने लगें, तो विकास की हमारी रफ्तार रुक जाएगी।
ऐसे में पास्को जैसी परियोजना की जरूरत तो है, लेकिन इसका विरोध भी हो रहा है। जिस इलाके को विकास की ज्यादा जरूरत है, वहीं विकास के खिलाफ चलने वाला आंदोलन देश की एक विरोधाभासी तसवीर खड़ा करता है। पर इस विरोधाभास के लिए कौन जिम्मेदार है? यह आंदोलन न तो ऐसा पहला आंदोलन है और न ही आखिरी। इस तरह के आंदोलन कहीं भी हो सकते हैं।
इसलिए पास्को को एक ऐसी मॉडल परियोजना का रूप दिया जाना चाहिए, जो आनेवाली अन्य परियोजनाओं के लिए भी उदाहरण का काम करे। मॉडल तैयार करते हुए हम पूर्वी भारत में ही हुए औद्योगिक निवेश का स्थानीय लोगों पर पड़े प्रभाव के अनुभवों को ध्यान में रख सकते हैं। हमें यह सोचना चाहिए कि झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और आंध्र प्रदेश के जिन इलाकों में भारी पैमाने पर औद्योगिक निवेश हुए, वहां के लोग बदहाली का जीवन क्यों जी रहे हैं। क्षेत्र के विकास से क्षेत्रीय लोगों का विकास क्यों नहीं हो पाता? आज पास्को के विरोधी खून खराबे की धमकी दे रहे हैं, तो उसका कारण यही है कि वे लोग अपने क्षेत्र के विकास में अपना विकास नहीं, विनाश देखते हैं।
एशियन ड्रामा के लेखक गुन्नार मिर्डल के मुताबिक, भारत में औद्योगिक विकास का पैटर्न ऐसा रहा है कि स्थानीय लोग विकास के स्प्रेड इफेक्ट से ज्यादा बैकवाश इफेक्ट का शिकार हो जाते हैं। लेकिन इस विरोध को जोर-जबर्दस्ती दबाने के बजाय जरूरी है कि स्थानीय आबादी का विकास सचमुच सुनिश्चित हो। लिहाजा सिर्फ मुआवजा देने या तकनीकी खानापूर्ति करने से काम नहीं चलेगा। राज्य और केंद्र सरकारों को चाहिए कि वे पास्को परियोजना और उसके आसपास के इलाके के विकास का एक ब्लूप्रिंट तैयार करें और लोगों को आश्वस्त करें कि स्टील उद्योग उनके बेहतर भविष्य की सौगात लेकर आएगा। तभी स्थानीय लोगों के विरोध को शांत किया जा सकता है।


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