क्या कानून बनाकर पॉलीथिन के प्रदूषण पर शिकंजा कसना संभव है। शायद नहीं। अगर ऐसा होता तो केंद्र और राज्य सरकार के तमाम कानून पॉलीथिन पर नकेल कस चुके होते। यह कमजोर सरकारी इच्छाशक्ति ही है जो बीते दस वर्षो के दरम्यान पॉलीथिन पर रोक के कानूनों का पालन नहीं करा पायीं। नतीजा गली-मुहल्लों या फिर नदी के किनारे फैले कचरे में हर तरफ पॉलीथिन ही पॉलीथिन नजर आती है। केंद्र ने पॉलीथिन पर नियंत्रण पर पहले ही कानून बना दिया था लेकिन राज्य सरकार 2000 में जगी। उप्र प्लास्टिक और अन्य जीव अनाशित कूड़ा कचरा नियंत्रण एक्ट बनाया गया। मंशा थी कूड़े के साथ मिली पॉलीथिन की पन्नियों से हो रहे भूमि प्रदूषण को रोका जाए। यही नहीं इस दौरान पॉलीथिन खाकर बड़ी संख्या में गायों के मरने की बात भी सामने आई। कानून बनाने का मकसद इस पर भी रोक लगाना था। कानून बने दस साल से ज्यादा बीत चुके हैं लेकिन जिम्मेदार नियंत्रक संस्थाएं उक्त कानून को जमीनी स्तर पर अभी तक लागू नहीं करा पायी हैं। प्रदूषण जब खतरनाक स्थिति में आने लगा तो इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पॉलीथिन के इस्तेमाल पर चिंता जाहिर की। बीते माह नगर विकास महकमे ने उक्त कानून में संशोधन किया। नदियों के दोनों ओर दो किमी क्षेत्र में पॉलीथिन के निस्तारण पर रोक लगाने का प्रावधान किया गया है। हकीकत यह है कि सूबे के किसी भी शहरी निकाय में पॉलीथिन के उपयोग व निस्तारण के पुख्ता इंतजाम नहीं हैं। कहने को तो 20 माइक्रॉन से कम मोटाई वाली पुनर्चक्रित प्लास्टिक थैलियों के प्रयोग पर पाबंदी है लेकिन मानकों का खुला उल्लंघन कर पतली झिल्लीनुमा पन्नियां खुलेआम इस्तेमाल की जा रही हैं। अकेले राजधानी में ही रोजाना सात-आठ टन पन्नियों का प्रयोग होता है। राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार, सूबे में प्लास्टिक के कैरी बैग्स बनाने वालीं 138 इकाइयां पंजीकृत हैं। बोर्ड की मानें तो इनमें से कोई उद्योग 20 माइक्रॉन से कम मोटाई की थैलियां नहीं बना रहा है। अब सवाल यह कि आखिर 20 माइक्रॉन से कम मोटाई वाली पन्नियां बेरोकटोक कहां से आ रही हैं। दूसरे शब्दों में ऐसी पन्नियां सरकार के तमाम कानूनों और नियंत्रण संस्थाओं की खिल्ली उड़ा रही हैं।
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