देहरादून वन्यजीवों में सबसे तेज दौड़ने वाले चीते जल्द ही भारत में फर्राटा भरते दिखेंगे। 1952 के बाद भारत से विलुप्त हो चुके चीतों को फिर बसाने की मुहिम तेज हो गई है। केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की यह पहल अब प्रस्ताव, शोध से आगे बढ़कर धरातल पर कदम रख चुकी है। चीता प्रोजेक्ट को 25 लाख की पहली किश्त जारी हो गई है। प्रोजेक्ट के मुखिया व वन्य जीव संस्थान के वैज्ञानिक डा. वाईवी झाला ने इसकी पुष्टि की है। गठीले बदन और तेज रफ्तार के पर्याय चीते की स्मृति भारतीय जनमानस में आज भी जिंदा है। हालांकि यह खूबसूरत व चुस्त जानवर 1952 में ही भारत से विलुप्त हो चुका है। उत्तर भारत के ग्रासलैंड में बेखौफ दौड़ते चीते अब सिर्फ अतीत का हिस्सा हैं। यह गुलाम भारत के इतिहास में एक काला दाग है, कि हमने अपनी संस्कृति में रचे-बसे चीते को खो दिया। आजादी के बाद जो इक्का-दुक्का चीते बचे थे, उनका संरक्षण भी नहीं हो सका। 1952 में अंतिम चीते के अवशेष मिले। हालांकि कुछ विशेषज्ञ 1968 में छत्तीसगढ़ के जंगलों में चीता दिखने की बात भी करते हैं। औपनिवेशिक अतीत से मिले इस घाव को भरने के लिए देश में चीते को फिर से बसाने की मुहिम चल रही है। केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की पहल पर दून स्थित भारतीय वन्य जीव संस्थान ने देश में कुल दस क्षेत्रों का सर्वे किया। चीते को दोबारा बसाने के लिए तीन जगह मुफीद पाई गई। इनमें राजस्थान का शाहगढ़ क्षेत्र, मध्यप्रदेश के नौरादेही व कुनोपालपुर शामिल हैं। दोनों राज्यों की सरकार की रजामंदी के बाद चीता प्रोजेक्ट के लिए टास्क फोर्स गठित हुई। तीनों चिह्नित क्षेत्रों में बसी आबादी के पुनर्वास पर 300 करोड़ रुपये खर्च होने हैं। प्रोजेक्ट का नेतृत्व कर रहे वन्यजीव संस्थान के वैज्ञानिक डा. वाईवी झाला बताते हैं कि प्रोजेक्ट को 25 लाख रुपये की पहली किश्त जारी की गई है। इससे प्रोजेक्ट चीता का संपूर्ण एक्शन प्लान तैयार होगा। सबकुछ ठीक-ठाक चला, तो अगले डेढ़-दो साल में भारत की धरती पर विलुप्त हो चुके चीते का इतिहास फिर से फार्राटे भरता नजर आएगा।
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