Wednesday, February 23, 2011

एस्बेस्टस के खतरे


एस्बेस्टस पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे हैं लेखक
बिहार के मुजफ्फपुर जिले में प्रस्तावित एस्बेस्टस कारखाने के खिलाफ करीब साल भर से स्थानीय लोग आंदोलनरत हैं। किसानों का आरोप है कि कंपनी ने जमीन अधिग्रहण में धोखाधड़ी की है। कंपनी ने कृषि आधारित उद्योग के नाम पर किसानों की जमीन खरीदी थी, लेकिन आगे चलकर वह एस्बेस्टस कारखाना लगाने लगी और कंपनी ने इस उपजाऊ जमीन को पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन रिपोर्ट में धोखाधड़ी करके बंजर करार दिया। इसी कारण स्थानीय लोग विरोध कर रहे हैं। किसानों के साथ-साथ पर्यावरणविद भी मांग कर रहे हैं कि एस्बेस्टस कारखाने पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए, क्योंकि इनसे निकलने वाली गर्द न सिर्फ इन कंपनियों में काम करने वाले मजदूरों, बल्कि आसपास रहने वाले लोगों की सेहत को भी गंभीर तौर पर प्रभावित करती है। यही कारण है कि विकसित देशों ने एस्बेस्टस से बनने वाली सामग्री पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा रखा है। इसे तैयार करने में जिस पदार्थ का इस्तेमाल किया जाता है उसमें क्रीमोलाइट नामक खनिज के रेशे मिले होते हैं। ये रेशे मनुष्य के शरीर में पहुंचकर बीड़ी-सिगरेट आदि के धुएं से भी अधिक नुकसान पहुंचाते हैं। इनसे सांस और गुर्दे संबंधी बीमारियां, बल्कि कहें कैंसर जैसे घातक रोग पैदा होते हैं। इसमें प्रयुक्त सामग्री में क्रीमोलाइट की मात्रा का मानक तय है, लेकिन इस कारोबार में लगी औद्योगिक इकाइयां इनका कम ही पालन करती हैं। देशभर में 700 छोटी और 33 बड़ी इकाइयां इस कारोबार में लगी हैं, जिनमें हर साल एक लाख टन एस्बेस्टस की खपत होती है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में आठ हजार मजदूर इस उद्योग में हैं, जबकि गैर सरकारी सूत्रों के मुताबिक यह संख्या एक लाख से ज्यादा है। हालांकि भारत सरकार ने एस्बेस्टस के खनन पर पाबंदी लगा रखी है, लेकिन इसके व्यापार और निर्माण की अनुमति है। 2007 में कनाडा ने अपने यहां उत्पादित सफेद एस्बेस्टस का 95 फीसदी निर्यात किया जिसमें तकरीबन 43 फीसदी भारत को निर्यात किया गया। इसे देखते हुए एस्बेस्टस आयात पर प्रतिबंध लगाने की मांग की जा रही है। यह आश्चर्यचकित करने वाली बात है कि जो कनाडा गाहे-बगाहे भारत को पर्यावरण मानकों का पाठ पढ़ाता रहता है वही भारत को ऐसे पदार्थ निर्यात कर रहा है जिससे न सिर्फ पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है, बल्कि हजारों लोगों की जान जोखिम में पड़ रही है। सरकार ने 2003 में एस्बेस्टस उद्योग को लाइसेंस मुक्त कर दिया। 1995 में एस्बेस्टस पर 78 फीसदी आयात शुल्क लगता था जिसे घटाकर 2004 में 15 फीसदी कर दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि एस्बेस्टस सीमेंट का उत्पादन 1993 में 68 हजार टन से बढ़कर 2002 में तकरीबन 13 लाख टन हो गया। यह कारोबार सरकारों के लिए विदेशी मुद्रा कमाने का जरिया भी है। उदाहरण के लिए 2006 में करीब 12 अरब रुपये का एस्बेस्टस सीमेंट बिका था और इसने डेढ़ अरब रुपये मूल्य की विदेशी मुद्रा अर्जित की। आमदनी के साथ-साथ इस कारोबार में प्रभावशाली लोगों के शामिल होने के चलते भी सरकार रियायतों का पिटारा खोले रहती है। देश में एस्बेस्टस से बनी सीमेंट की चादर बनाने का उद्योग 10 फीसदी सालाना की दर से बढ़ रहा है। भारत सरकार की ग्रामीण आवास परियोजनाओं की वजह से इनकी मांग बढ़ गई है, क्योंकि इन योजनाओं में घर की कीमत को कम रखने पर जोर दिया जाता है। अन्य विकासशील देशों में एस्बेस्टस अभी भी अग्निरोधक छतों के निर्माण, पानी के पाइप, सस्ती और लोकप्रिय भवन निर्माण सामग्री के रूप में प्रयुक्त होता है। दुनिया के 55 से अधिक देशों में यह प्रतिबंधित है, लेकिन इन देशों से विकासशील देशों को निर्यात हो रहा है। कंपनियों का कहना है कि वे जो एस्बेस्टस निर्यात कर रही हैं वह अपेक्षाकृत सुरक्षित है, लेकिन वैज्ञानिकों के मुताबिक इसमें कैंसरकारी तत्व हैं। गौरतलब है कि सफेद एस्बेस्टस पर यूरोपीय संघ ने प्रतिबंध लगा रखा है, लेकिन भारत, चीन और रूस में अभी भी इसका प्रयोग होता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

No comments:

Post a Comment