Tuesday, February 15, 2011

जिंदगी का कचरा करती पॉलीथीन


कॉलेज के दिनों में हमें धर्मशाला, हिमाचल प्रदेश जाने का मौका मिला। हमारी बस खूबसूरत हरी भरी वादियों से होकर गुजर रही थी, तभी खिड़की पर बैठे मेरी नजर रास्ते में इधर-उधर पड़ी कुछ चीजों पर पड़ी, जो इस बात का सबूत दे रही थीं कि यह वाकई एक टूरिस्ट प्लेस है। निश्चित ही यहां बड़े-बड़े शहरों से सभ्य लोग आते हैं। ये अपने साथ चीजें कुछ और नहीं, बल्कि प्लास्टिक के रैपर्स, कप, बोतल, पॉलीथीन आदि लाते हैं। ऐसी चीजें जिन पर शायद ही किसी का ध्यान जाता हो या कहें कि शायद ही कोई ध्यान देना चाहता हो। वैसे भी बतौर इंसान हमें आदत पड़ चुकी है कि जो चीजें इस्तेमाल करने में आसान हों, हमें वही सुहाती हैं। फिर इसके किस तरह बुरे और खतरनाक परिणाम हो सकते हैं, इस पर विचार ही कौन करना चाहता है? यात्रा ट्रिप का समय खत्म हुआ और हम वापस आने को तैयार हुए। हमारे ग्रुप ने भी वही किया, जो बाकी सभ्य लोग पहले वहां करके जाते थे। साथियों ने भी प्रयोग होने वाले प्लास्टिक रैपर्स और पॉलीथीन को इधर-उधर फेंका और वापस आ गए। यहां बात किसी संस्थान या एक ग्रुप तक सीमित नहीं है, बल्कि यह हर उस आम व्यक्ति की है, जो ऐसा करना अपना अधिकार समझता है। हरी-भरी वादियों में बिखरे ये प्लास्टिक मानो हर सभ्य इंसान के वहां बिताए हुए पलों का सबूत दे रहे थे, लेकिन हमारी उन हरी-भरी वादियों को हमारी पीछे छोड़ी हुई प्लास्टिक किस हद तक नुकसान पहुंचा सकती है, इसका अंदाजा कोई नहीं लगाना चाहता। जब पहाड़ों और सुंदर वादियों का यह हाल है तो शहरों का तो अंदाजा लगा लेना कोई बहुत कठिन नहीं है कि पॉलीथीन और प्लास्टिक का प्रयोग और कचरा कितना नुकसान करता होगा। वर्ष 1995 से ही सरकार ने पॉलीथीन को पर्यावरण प्रदूषक की श्रेणी में रखा हुआ है। इसके बावजूद हम सब मानो प्लास्टिक बैग्स के इस्तेमाल को अपने जीवन का एक अभिन्न हिस्सा मान चुके हैं। प्लास्टिक का प्रयोग हर घर में और हर दुकान पर धड़ल्ले से किया जाता है, मानो कोई इससे संबंधित कोई कानून बना ही नहीं है। अकेले राजधानी दिल्ली में ही रोजाना सात-आठ टन पॉलीथीन का प्रयोग होता है। यह अलग बात है कि राज्य प्रदूषण नियंत्रक बोर्ड के अनुसार सूबे में प्लास्टिक के कैरी बैग्स बनाने वाली तकरीबन 138 इकाइयां पंजीकृत हैं। आज हमारे आसपास जो कुछ दिख रहा है, वह किसी खतरे की घंटी से कम नहीं है। एक समय सुप्रीम कोर्ट ने प्लास्टिक के पान मसाला गुटखा पाउच की बिक्री पर रोक लगाने का एलान किया था। यह रोक इन पदार्थो के स्वास्थ्य और पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्परिणामों को मद्देनजर रखते हुए लगाई गई थी। यह पर्यावरण की दृष्टि से बहुत ही अच्छा निर्णय है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला और अधिक स्वागतयोग्य इसलिए हो जाता है, क्योंकि फेंके गए ये रैपर्स बाकी लोगों के लिए भी कम खतरनाक साबित नहीं होते हैं। बाकी प्रभावित होने वाले लोग इनका उपभोग नहीं करते, लेकिन कुछ लोगों की वजह से पर्यावरण को होने वाला नुकसान सभी के हिस्से भी आता है। हमारी प्रकृति सभी के लिए एक है और इस पर पड़ने वाले प्रभाव-दुष्प्रभाव भी सबके लिए होते हैं। बीते समय में न जाने कितनी गायों के पॉलीथीन खाकर मरने की खबरें आई। आजकल समाचार पत्रों में भी यह मुद्दा उठाया जा रहा है कि क्या कानून बनाकर पॉलीथीन से होने वाले प्रदूषण पर रोक लगाई जा सकती है? इसका कारण यह है कि बीते दशक में तमाम कानूनों के होने के बावजूद यह समस्या बहुत भयावह रूप में उभर कर आज सामने आई है। पॉलीथीन से फैलने वाले कचरे की मात्रा में दिनोंदिन बहुत ज्यादा इजाफा हुआ है। खैर, यहां कोई इन सबको सरकार की कमजोर इच्छाशक्ति का नतीजा भले ही कहें, लेकिन यह आखिरकार आम जन पर निर्भर करता है कि वह कानून का पालन भी करे। इतनी कोशिश के बाद भी यदि ये सभी कानून बेअसर होते नजर आ रहे हैं तो इसमें सरकार के ढीले-ढाले रवैये के अलावा हमारे द्वारा बनाए गए कानूनों को दरकिनार कर देने की आदत मुख्य रूप से जिम्मेदार है। पॉलीथीन सबसे ज्यादा किफायती और आसानी से प्रयोग में आने वाली वस्तु है। इस बात के चलते कोई भी इसके प्रयोग से खुद को वंचित नहीं रखना चाहता। सच्चाई तो यह है कि सरकार अपना काम करे या न करे, लेकिन अंतत: जिम्मेदारी आम नागरिकों की ही बनती है कि उस पर अमल किया और सहयोग किया जाए। दिल्ली में कानून की पढ़ाई कर रहे देबाशीष कहते हैं कि सरकार ने कानून बनाकर अपना काम कर दिया, लेकिन अब यह जनता की जिम्मेदारी बनती है कि वह इन सब में अपनी भूमिका पहचाने और इसे ईमानदारी से निभाए। हर बात के लिए सरकार को ही कोसने की प्रवृत्ति ठीक नहीं है। इसमें आम जन की भी जिम्मेदारियां शामिल होती हैं। हम हर बार खुद अपनी ही जिम्मेदारियों से मुंह नहीं मोड़ सकते। इस बात में बहुत हद तक सच्चाई मौजूद है, क्योंकि सरकार, नियम व कानून को दोष देकर अक्सर हम अपनी जिम्मेदारियों को बुरी तरह नकार देते हैं। आज यदि कोई हमारे सामने पॉलीथीन बैग और कागज के लिफाफे के विकल्पों में से एक को चुनने को कहे तो जाहिर तौर पर अधिकतर की पसंद पॉलिथीन बैग के लिए होगी। दरअसल, हमने कभी अपनी सहूलियत के आगे कुछ और देखना या सोचना सीखा ही नहीं है। हमारा समाज इनके प्रयोग का खामियाजा अच्छी तरह से समझता है और हर कोई जानता है कि प्लास्टिक और पॉलीथीन नामक यह विष किस तरह हमारे परिवेश के विनाश का कारण बन रहा है। जो पॉलीथीन हम प्रयोग कर रहे हैं, उसके नुकसान से मानो हम जानकर भी अंजान हैं। जिस पॉलीथीन का प्रयोग करके फेंक दिया है, वह हमारे मरने के बाद भी जिंदा रहता है और प्रकृति को नुकसान पहुंचाता है। इस तरह से हम हर दिन कुदरत को चुनौती दे रहे होते हैं। कुदरत ने हमें इतना कुछ दिया है, मगर बदले में हम इसे हर दिन प्लास्टिक और पॉलीथीन की सौगात दे रहे हैं, जिसका खामियाजा हमें और हमारी आने वाली पीढि़यों को भुगतना होगा।

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