Thursday, February 17, 2011

उत्तर प्रदेश में सरकारी सुस्ती का शिकार हुई पर्यावरण नीति


एक अच्छी पहल किस तरह सरकारी सुस्ती का शिकार होती है इसका उदाहरण है उत्तर प्रदेश की पर्यावरण नीति। आठ वर्षो में सरकार बदल गई, पर्यावरण के हालात खराब होते गए, लेकिन इस दौरान राज्य की पहली पर्यावरण नीति का मसौदा कानून का रूप न अख्तियार कर पाया। राज्य की विकास योजनाओं में बिना बाधा डाले पर्यावरण संरक्षण के लिए पहले वर्ष 2006 फिर 2010 में पर्यावरण नीति का व्यापक मसौदा बनाया गया। परंतु इच्छाशक्ति के अभाव में इस अहम् नीति को लागू कराने की कोशिश ही नहीं की गई। पर्यावरण नीति का ड्राफ्ट एक वर्ष से वेबसाइट पर है ताकि इस बारे में आम आदमी के सुझाव व आपत्तियां प्राप्त की जा सकें, लेकिन इस प्रयास में भी कोई सफलता हासिल नहीं हुई। नतीजा उत्तर प्रदेश राज्य पर्यावरण नीति का मसौदा राज्य सरकार की मंजूरी न मिलने से लटका हुआ है। राज्य पर्यावरण नीति लागू करने की जरूरत इसलिए मानी जा रही है ताकि भिन्न-भिन्न पर्यावरणीय समस्याओं से घिरे प्रदेश की तमाम योजनाओं को पर्यावरण संगत बनाया जा सके। साथ ही नीति के प्रावधानों के आधार पर विभिन्न विभागों द्वारा पर्यावरण संरक्षण की ठोस कार्ययोजनाएं तैयार की जा सके। अगर प्रदेश के पर्यावरणीय हालातों पर नजर डाली जाए तो लगभग 22 जिले पर्यावरण अपघटन व प्रदूषण से जुड़ी बदहाली से जूझ रहे हैं। वास्तविकता यह है कि अनियोजित औद्योगिकीकरण व शहरीकरण, वाहनों की बेलगाम संख्या, वन संपदा व भूजल संसाधनों का अंधाधुंध दोहन, कूड़ा-कचरा, वायु प्रदूषण जैसी पर्यावरणीय चुनौतियां प्रदेश को चौतरफा घेरे हुए हैं। इस पर्यावरणीय हकीकत से निपटने की मंशा फिलहाल नजर नहीं आ रही है। महत्वपूर्ण यह भी है कि केंद्र ने राष्ट्रीय पर्यावरण नीति वर्ष 2006 में ही लागू कर दी है, जबकि प्रदेश में पृथक राज्य पर्यावरण नीति को मूर्त कराने के लिए अलग बजट का प्रावधान करना पड़ेगा। क्यों जरूरी है पर्यावरण संरक्षण : विश्व बैंक केअनुसार प्रदूषण के कारण सूबे में हर साल 94 लाख मानव वर्षों की क्षति का होती है जिसकी अनुमानित लागत 6170 करोड़ है। दूषित पर्यावरण के कारण लोगों की सेहत दांव पर लगी है।

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