हम 21वीं सदी में जी रहे हैं और हरकतें कर रहे हैं आदिम युग की। शिकार करने की आदिम फितरत आज भी हम पर हावी है, तभी तो अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे बेजुबान और निरीह जानवरों की निर्ममतापूर्वक हत्या करके हम यह जताने की कोशिश करते हैं कि हम कितने क्रूर और बहादुर हैं। लेकिन कभी इस पर अफसोस नहीं जताते कि हमने जाने-अनजाने में एक और सरंक्षित वन्यजीव की हत्या कर दी। इंसान और वन्यजीवों के बीच संघर्ष कम होने के बजाय लगातार बढ़ता जा रहा है। हाल में कुछ ऐसी घटनाएं हुई, जिसमें इंसानी वहशीपन का कुरूप चेहरा उभर कर सामने आया। हाल ही में टीवी चैनलों पर जिम कार्बेट में एक नरभक्षी बाघ का एनकाउंटर छाया रहा, जिसमें अधिकारी और शिकारी हाथों में आधुनिक हथियारों को लहराते अपनी बहादुरी का जश्न मनाते दिखाई दिए, लेकिन इससे भी ज्यादा शर्मनाक रहा एक बाघ को मारने के लिए एके-47 का इस्तेमाल करते हुए उस पर 80 से ज्यादा राउंड फायर करना। जबकि नियमों के मुताबिक नरभक्षी को मारने के लिए .375 मैग्नम कैलीवर गन का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इससे पहले 11 जनवरी को भी जब उस पर गोली चलाई गई थी तो .315 बोर की गन का इस्तेमाल किया गया था। देश की राजधानी दिल्ली के निकट फरीदाबाद के खेड़ी गुजरान गांव में भी एक तेंदुए को पीट-पीटकर मार डाला गया। प्रशासन की बेबसी और गांव वालों की नाराजगी उस तेंदुए को जान देकर गंवानी पड़ी, लेकिन इससे भी ज्यादा दुर्भाग्य की बात यह रही कि गुड़गांव से आई टीम को ट्रैंक्विलाइजर यानी बेहोश करने वाली बंदूक चलाना आता ही नहीं था। गांव वालों ने समय पर तेंदुए के होने की सूचना प्रशासन को दी थी, लेकिन वन्य अधिकारी बिना पिंजरे के ही मौके पर पहुंच गए। अगर प्रशासकीय लापरवाही न होती तो शायद वह तेंदुआ जिंदा बच सकता था। अब प्रशासन ने अपनी खीझ उतारने के लिए गांव वालों के खिलाफ मामला तो दर्ज कर लिया है, लेकिन उन अधिकारियों का क्या, जिन्होंने इस मामले में लापरवाही दिखाई। अब सवाल उठता है कि क्या कार्बेट में आदमखोर टाइगर को मारना जरूरी था? सूबे के मुख्य वन सरंक्षक ने वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट-1972 के सेक्शन 11 के तहत बाघ को नरभक्षी घोषित करते हुए जान से मारने का आदेश जारी कर दिया। यह अच्छी तरह से जानते हुए कि देश के 14 फीसदी बाघ उत्तराखंड के जंगल में हैं और एक-एक बाघ हमारे लिए बेशकीमती है। पिछले साल अक्टूबर में लखनऊ के चिडि़याघर में एक आदमखोर बाघ लाया गया था, जिसने पीलीभीत जिले के देवरिया फॉरेस्ट रेंज में 8 लोगों की जान ले ली थी। उत्तर प्रदेश के मुख्य वन सरंक्षक ने उसे ट्रैंक्विलाइजर के जरिए पकड़ने के आदेश जारी कर दिए। उसके बाद यूपी के वन अधिकारियों ने नेशनल टाइगर कंजरवेशन अथॉरिटी और वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया के सहयोग से उसे पकड़कर पुनर्वास कार्यक्रम के तहत लखनऊ चिडि़याघर में भेज दिया। यह ऐसा अकेला उदाहरण नहीं है। पिछले साल ही मानस नेशनल पार्क में एक आदमखोर बाघ लाया गया, जो असम के शिवसागर में तीन लोगों को निशाना बना चुका था। फॉरेस्ट विभाग ने इंटरनेशनल फंड फॉर एनिमल वेलफेयर और वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया के सहयोग से उसे बेहोश कर मानस नेशनल पार्क के कोर एरिया में पुनर्वास कार्यक्रम के तहत छोड़ दिया। उस पर रेडियो-टेलीमेट्री के जरिए नजर रखी जा रही है। उपरोक्त उदाहरणों से साफ है कि जिम कार्बेट में मारे गए बाघ का भी पुनर्वास किया जा सकता था या फिर उसे चिडि़याघर भेजा जा सकता था। पार्क प्रशासन के बयानों से उसकी लापरवाही ही उजागर होती है। उसके मुताबिक कथित नरभक्षी बाघ को 11 जनवरी को पहली बार गोली मारी गई थी, लेकिन तब वह बच कर भाग निकला था। उसके पदचिह्नों के आधार पर आशंका जताई गई थी कि वह मादा है, जबकि 27 जनवरी को जो बाघ मारा गया, वह नर है। घायल होने के बावजूद 16 दिनों तक वह लोगों को अपना शिकार बनाता रहा और पार्क प्रशासन सोता रहा। प्रशासन अगर चाहता तो तत्परता से कार्रवाई कर ट्रैंक्विलाइजर और ट्रैपिंग के जरिए उसे पकड़ सकता था, लेकिन जिस तरह सुनियोजित योजना बनाकर उसका शिकार किया गया, उससे पार्क प्रशासन की नीयत पर सवाल उठना स्वाभाविक है। आज देश में 80 स्थानों पर बाघ रहते हैं। इनमें से 39 ही बाघों के लिए आरक्षित हैं। 35 फीसदी बाघ अनारक्षित वन क्षेत्रों में रहते हैं और उत्तराखंड में यह संख्या 14 फीसदी है। आज कुल 1400 बाघ ही बचे हैं। उत्तराखंड में इनकी संख्या 193 के आसपास है। इनमें 29 टाइगर अनारक्षित वन क्षेत्र में और 164 जिम कार्बेट नेशनल पार्क में हैं। दोनों ही इलाकों में बाघों पर लगातार खतरा मंडरा रहा है। कार्बेट नेशनल पार्क तो प्रतिमाह चार में से एक बाघ खो रहा है। देश के 16 बाघ अभयारण्यों की स्थिति शोचनीय है, जिसमें जिम कार्बेट नेशनल पार्क भी है। देश में 1972 से चल रहे प्रोजेक्ट टाइगर की बात करें तो आज बाघों की तादाद बढ़ने के बजाय उस समय से भी कम हो गई है। इससे इस पूरे प्रोजेक्ट पर ही सवाल खड़ा होता है। तब देश में 1827 बाघ थे, जो 1989 में बढ़कर 4344 हो गए थे, लेकिन उसके बाद से अब तक करीब 2200 बाघ मारे गए और कुछ की स्वाभाविक मौत हुई। इस मुद्दे पर जिम कार्बेट पार्क प्रशासन के साथ-साथ सरकार को भी सबक लेने की जरूरत है। हालांकि अभी तक बाघों या तेंदुओं के आदमखोर होने की कोई खास वजह नहीं मिली है, लेकिन विशेषज्ञों के मुताबिक आपसी लड़ाई में घायल होने के बाद जब ये बड़ी बिल्लियां शिकार करने में अक्षम हो जाती हैं तो पालतू पशु और मनुष्य इनके सॉफ्ट टॉरगेट होते हैं। इसके अलावा एक और मुख्य वजह है जंगल में बढ़ता इंसानी दखल। अतिक्रमण के चलते जंगल घटते जा रहे हैं और जंगली बड़ी बिल्लियां जंगलों से निकलकर बस्तियों का रुख कर रही हैं। यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या नरभक्षी बाघों को मारना ही आखिरी विकल्प है? और जिस तेजी से मनुष्य की बढ़ती दखलंदाजी से जंगलों का खात्मा हो रहा है, उसे देखते हुए अगर सारे बाघ नरभक्षी हो गए तो क्या सभी को मार दिया जाएगा? ऐसे में बाघ बचाने के लिए सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च करके चलाए जा रहे प्रोजेक्ट टाइगर का क्या होगा? सवाल यह भी है कि आखिर ऐसा क्या किया जाए, जिससे मनुष्य भी सुरक्षित रहे और बाघों का अस्तित्व भी बना रहे? इंडोनेशिया में पहली बार एक अनोखा प्रयोग किया गया है। सुमात्रन टाइगर की कम होती आबादी और उनके आदमखोर होने की प्रवृत्ति को रोकने के लिए उत्तर-पश्चिमी सुमात्रा में स्थित ताबलिंग नेचर वाइल्ड लाइफ कंजरवेशन में एक बाघ पुनर्वास केंद्र चलाया जा रहा है। 2008 से चल रहे इस केंद्र में सिर्फ उन्हीं बाघों को रखा जाता है, जो नरभक्षी हो जाते हैं। इस दौरान उनके व्यवहार पर कड़ी नजर रखी जाती है। वहां उनका प्रजनन भी कराया जाता है। जब उनके व्यवहार में बदलाव आता दिखता है तो उन्हें वापस जंगलों में भेज दिया जाता है। जीपीएस ट्रैकिंग डिवाइस के जरिए उन पर लगातार निगरानी रखी जाती है कि कहीं वे फिर किसी मानव बस्ती के नजदीक तो नहीं पहुंच गए। हमें भी इंडोनेशिया से सबक सीखना चाहिए।
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