दक्षिण कोरियाई पोहंग स्टील कंपनी यानी पोस्को को केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय द्वारा मिली हरी झंडी ने साबित कर दिया है कि हमारे औद्योगिक और आर्थिक विकास का दारोमदार उचित आर्थिक नीतियों पर नहीं, बल्कि प्राकृतिक संपदा के अकूत दोहन पर टिका है। पोस्को परियोजना के मातहत भारत में काम करने वाली उसकी पोस्को इंडिया कंपनी कुल 1.2 करोड़ टन इस्पात सालाना निर्माण करने वाली क्षमता का संयंत्र विकसित करेगी। इसके शुरुआती चरण में ही एक साल में 40 लाख टन लोहे का उत्पादन शुरू हो जाएगा। इस कारखाने को संपूर्ण राक्षसी वजूद में आने के लिए 162049 हेक्टेयर वन और आबाद भूमि की जरूरत होगी, जिसमें से महज 1253 हेक्टेयर वनभूमि है। आवासीय भूमि को औद्योगिक भूमि में तब्दील करने के लिए कुजांग तहसील की तीन ग्राम पंचायतों के आठ गांव विस्थापित होंगे और जिस जटाधरमोहन नदी के तट पर यह इस्पात संयंत्र लगेगा, वह कुछ ही सालों में बरबाद होकर गंदे नाले में बदल जाएगी। इस संयंत्र की स्थापना से प्रत्यक्ष पूंजी निवेश में तो बढ़ोतरी होगी ही, हो सकता है कुछ काल-विशेष में औद्योगिक और आर्थिक विकास दरें भी उछाल मारती नजर आएं। लेकिन महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार थामने की कवायद में यह संयंत्र कोई कारगर उपाय साबित होगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। पांच साल से लटकी पोस्को परियोजना को मिली मंजूरी ने तय कर दिया है कि भारत सरकार न केवल बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में है, बल्कि वह दक्षिण कोरिया के पर्याप्त कूटनीतिक दबाव में भी है। वरना, जिस परियोजना को जल, जंगल और जमीन के पर्यावरणीय विनाश का कारण बताते हुए दो-दो समितियां इनकार कर चुकी हों, उनकी रपटों को नजरअंदाज कर परियोजना को मंजूर करने का क्या औचित्य है? उड़ीसा सरकार और पोस्को के बीच 22 जून 2005 को समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर हुए थे। यह परियोजना अक्टूबर 2010 में पर्यावरण और वन मंत्रालय के जांच के दायरे में आ गई थी, जब पूर्व पर्यावरण सचिव मीना गुप्ता और एनसी सक्सेना की अध्यक्षता वाली समीक्षा समितियों ने इसे खारिज कर दिया था, क्योंकि इसके वजूद में आने पर स्थानीय पर्यावरण पर तो प्रतिकूल असर पड़ेगा ही, आठ ग्रामों के ग्रामीणों की कृषि और उनकी व उनके पालतू पशुओं की जंगल पर निर्भरता भी प्रभावित होगी। पोस्को की मंजूरी ने यह भी साफ कर दिया है कि भूमि अधिग्रहण के जबरदस्त विरोध के चलते पोस्को के साथ झारखंड में प्रस्तावित आर्सेलर मित्तल इस्पात परियोजना भी पांच साल से लटकी हुई थी, अब उसे भी जीवनदान मिलना तय है। पोस्को का विरोध पोस्को प्रतिरोध संग्राम समिति कर रही है। इन विरोधों के परिप्रेक्ष्य में भारत सरकार के वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने कहा था कि परियोजनाओं को बंद करने की बजाए, विस्थापितों को उनके जीवन-यापन के लिए वैकल्पिक स्रोत मुहैया कराने चाहिए, क्योंकि उनकी समस्याओं का हल परियोजनाओं को बंद करने में निहित नहीं हैं। यह फॉर्मूला देश के आर्थिक विकास के नजरिए से भी हितकारी साबित होगा। इस फॉर्मूले को आगे बढ़ाते हुए भारत सरकार ने प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता में ही एक समिति का गठन इस मकसद से किया था कि वह खनिज परियोजनाओं से होने वाले मुनाफे का एक हिस्सा परियोजनाओं के विस्थापितों को दे। कुल लाभांश में से 26 फीसदी लाभांश विस्थापितों को बकायदा अनुबंध के तहत देने की बात कही गई थी। यही नहीं, प्रत्येक विस्थापित परिवार के एक सदस्य को कंपनी में नौकरी देने का दावा भी किया गया था। इसके लिए एक विधेयक लोकसभा में लाया जाना था, लेकिन सरकार ने विधेयक के प्रारूप को तैयार कर उसे लोकसभा में पारित कराने की जल्दी जताने की बजाए विवादित परियोजनाओं को मंजूरी देने का सिलसिला शुरू कर दिया। जाहिर है, देर-सबेर आर्सेलर मित्तल को भी लोहे के उत्खनन की मंजूरी मिल जाएगी। हालांकि पोस्को को भारत सरकार ने शुद्ध लाभ का दो प्रतिशत हिस्सा सामाजिक दायित्व निर्वहन कोष में देने को कहा है, लेकिन कंपनी इसके लिए बाध्यकारी नहीं है। क्योंकि कंपनी इस कोष में धन तब देगी, जब वह मुनाफा कमाने लगेगी। कंपनियों के लाभ-हानि बही खातों के ऐसे समीकरण हैं, जो लाभांश बमुश्किल दर्शाते हैं। बल्कि घाटा दर्शाकर राष्ट्रीयकृत बैंकों और रॉयल्टी का भी करोड़ों-अरबों रुपये डकार जाते हैं। हालांकि कंपनी के प्रबंध निदेशक जी डब्ल्यू संग ने भरोसा जताया है कि वे स्थानीय समुदाय के कल्याण के लिए कंपनी की आमदनी का एक हिस्सा देंगे, लेकिन वादों पर अमल जब केंद्र और राज्य सरकारें नहीं करतीं तो शुद्ध व्यापार के लिए आई कंपनी के प्रबंध निदेशक की बात पर भरोसा कैसे किया जाए? चूंकि पोस्को की स्थापना को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की दिलचस्पी और उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की बेताबी थी, इसलिए जयराम रमेश को भी कहना पड़ा कि पोस्को का आर्थिक, तकनीकी और सामरिक महत्व है। क्योंकि परियोजना के मातहत 1.2 करोड़ टन इस्पात उत्पादन क्षमता का कारखाना तो लगेगा ही, परमाणु बिजलीघर और पोस्को लघु बंदरगाह भी बनेगा। बिजली घर को 28 शर्तो और बंदरगाह को 32 शर्तो के साथ निर्माण की मंजूरी दी गई है। इन शर्तो का पालन कराना राज्य सरकार की जवाबदारी है। पर्यावरण और वन संरक्षण संबंधी शर्तो के साथ प्रभावित ग्रामों का भूमि अधिग्रहण और विस्थापितों का समुचित पुनर्वास कराए जाने का दायित्व भी राज्य सरकार निभाएगी। शर्तो का उल्लंघन न हो, प्रभावितों के हितों की पूर्ति हो, प्रदूषण नियंत्रित रहे और विस्थापितों को अच्छा मुआवजा मिले, इन शर्तो का पालन कराने का दायित्व भी राज्य सरकार पर है। पोस्को से यह उम्मीद भी की गई है कि वह परियोजना द्वारा अधिगृहीत की जाने वाली भूमि के एक चौथाई हिस्से में हरित पट्टी बनाए, जल संग्रह के उपाय करे और प्रभावित क्षेत्र के ग्रामीणों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराए। तय है कि ये शर्ते केवल कागजी संतुष्टि भर हैं। ऐसी शर्तो के पालन के लिए भारत में कभी देसी-विदेशी कंपनियों को बाध्यकारी नहीं बनाया गया। इसलिए ये शर्ते महज छलावा हैं। पोस्को के तात्कालिक लाभ भले ही प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश और आर्थिक विकास दर में लाभकारी सिद्ध हों, इसके दीर्घकालिक परिणाम तो प्राकृतिक संपदा के दोहन, नदी-जल के प्रदूषण, जंगलों के विनाश और विस्थापितों को लाचार बना देने के हालात के रूप में ही सामने आएंगे। भूमि अधिग्रहण में हठवादिता अपनाई जाती है तो कुजांग तहसील के इस क्षेत्र को सिंगूर और नंदीग्राम बनने में भी देर नहीं लगेगी? (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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