Tuesday, February 22, 2011

पानी का हिसाब-किताब


नदियों के जल की खपत के मौजूदा तौर-तरीकों को अनुचित ठहरा रहे हैं लेखक
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने पाया कि गंगा का जल प्रदूषित है और स्नान करने योग्य भी नहीं रह गया है। कारण है कि गंगा से सिंचाई एवं बिजली उत्पादन के लिए भारी मात्रा में पानी निकाला जा रहा है। पानी की मात्रा कम हो जाने के कारण प्रदूषण का दबाव बढ़ गया है। समुद्र में एक किलो आर्सेनिक डाल दिया जाए तो वह प्रदूषित नहीं होता है। पानी की अथाह मात्रा में जहर निष्प्रभावी हो जाता है। गांव के तालाब में वही आर्सेनिक डाल दिया जाये तो मछलियां मृत हो जाती हैं। इस सिद्धांत के आधार पर कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को आदेश दिया है कि किसी भी उपयोग के लिए 50 प्रतिशत से अधिक पानी नहीं निकाला जाए। वर्तमान में पानी की राजनीति बाहुबल के आधार पर चल रही है। नरोरा बैराज से जितना पानी छोड़ने का आदेश है उससे कम छोड़ा जाता है। किसानों का दल मौके पर पहुंच कर नदी का पानी रोक देता है और नहर का बढ़वा देता है। इससे मछुआरे और तीर्थयात्री प्रभावित होते हैं, परंतु संगठित न होने के कारण ये मौके पर पहुंचकर पानी को खुलवा नहीं पाते हैं। नदी में बहने वाले पानी से तमाम लोग लाभान्वित होते हैं। नदी के पानी से भूमिगत जल का पुनर्भरण होता है, विशेषकर बाढ़ के समय। सरकारी महकमा बाढ़ को पूर्णतया हानिप्रद मानता है। टिहरी जैसे बांधों में पानी रोककर अथवा तटबंध बनाकर बाढ़ के पानी को फैलने नहीं दिया जा रहा है। इससे भूमिगत जल का पुनर्भरण नहीं हो रहा है। ट्यूबवेल सूखते जा रहे हैं। देश की खाद्य सुरक्षा दांव पर लगी हुई है। मछुआरों की जीविका खतरे में है। फरक्का बैराज से इलाहाबाद तक हिलसा मछली समाप्तप्राय हो गई है। पानी के साथ-साथ नदी गाद को भी ढोकर लाती है। यह गाद ही हमारे समुद्र तटों को कटाव से बचाती है। पानी के साथ-साथ गाद भी निकल रही है और समुद्र को कम ही पहुंच रही है। गंगासागर द्वीप का तेजी से क्षरण हो रहा है। हमारी संस्कृति में सभी नदियां पूजनीय हैं। मैं 6-7 वर्ष का था। कानपुर के सरसैया घाट पर पिताजी हमें नहाने ले जाया करते थे। अपार भीड़ रहती थी। हम नाव से नदी के बीच बालू पर जाकर स्नान करते थे। आनंद आता था। आज नदी में पानी की कमी के कारण कानपुर के निवासी इस आनंद से वंचित हो गए हैं। नदी के मुक्त बहाव से तमाम जनता को सुख मिलता है। अमेरिका के वाशिंगटन राज्य में अल्हवा नदी पर दो बांध थे। इनसे सिंचाई होती थी और बिजली बनाई जाती थी। दूसरी ओर मछली पकड़ने वालों एवं नौकाविहार करने वाले टूरिस्टों को हानि होती थी। पशोपेश में पड़ी सरकार ने इस मुद्दे को सुलझाने के लिए नागरिकों के बीच सर्वे कराया। लोगों से पूछा गया कि बांधों को हटाकर नदी को स्वच्छंद बहने दिया जाए तो वे कितनी रकम देने को तैयार हैं। सर्वे से निष्कर्ष निकला कि बांधों को हटाने के लिए जनता ज्यादा रकम देने को तैयार थी, जबकि सिंचाई और बिजली से सरकार को तुलना में बहुत कम आय होती थी। इस आधार पर सरकार ने इन बांधों को बारूद से उड़ाने का निर्णय ले लिया। मैंने देवप्रयाग, ऋषिकेश एवं हरिद्वार में गंगा में स्नान को आए तीर्थ यात्रियों का सर्वे कराया था। पाया कि तीर्थयात्रियों को 4,666 करोड़ रुपये और देश की समस्त जनता को 7,980 करोड़ रुपये का नुकसान प्रति वर्ष टिहरी डैम से जल की गुणवत्ता घटने से हो रहा है। सिंचाई के लिए पानी निकालने के लाभ को भी बढ़ा-चढ़ाकर गिनाया जाता है। सरकारी अधिकारी सहज ही कहते हैं कि देश की खाद्य सुरक्षा के लिए सिंचाई का पानी देना जरूरी है, यह सच नहीं है। मैंने नहर से सिंचित क्षेत्रों का अध्ययन किया है। पाया कि नहर के हेड पर किसान पानी का भयंकर दुरूपयोग करते हैं। उनसे पानी का मूल्य भूमि के रकबे के आधार पर लिया जाता है। उनका प्रयास रहता है कि अधिकाधिक मात्रा में सिंचाई करें। सिंचाई से लाभ न्यून हो तो भी पानी डाला जाता है, क्योंकि इसका अतिरिक्त मूल्य नहीं देना पड़ता है। सच यह है कि पानी का उपयोग गन्ना तथा मेंथा जैसी विलासिता की फसलों के लिए किया जा रहा है। इसी प्रकार कर्नाटक में अंगूर, महाराष्ट्र में कपास तथा राजस्थान में मिर्च के उत्पादन में भारी मात्रा में पानी का उपयोग हो रहा है। देश की खाद्य सुरक्षा तो बाजरा, रागी, जौ तथा चने से भी स्थापित हो सकती है। फिर भी सरकारी महकमा अधिकाधिक सिंचाई पर कुर्बान है। इसका कारण यह कि बैराज एवं नहर निर्माण एवं इनके रखरखाव में ठेका और कमीशन मिलता है। पानी की इस खपत के पीछे राजनीति भी है। नहर से उत्पादित मेंथा, अंगूर और चीनी की खपत अधिकतर देश का संभ्रांत वर्ग करता है, जबकि नुकसान तीर्थ यात्रियों को होता है। सिंचाई महकमे का मूल उद्देश्य है गरीब के संसाधनों को जबरन छीनकर अमीर को देना। इस कार्य को खाद्य सुरक्षा के कवच के पीछे छिपाया जा रहा है। नदी के पानी को नरोरा परमाणु संयंत्रों को ठंडा करने केलिए भी निकाला जा रहा है। संयंत्र से निकले गरम पानी को सीधे नदी में छोड़ दिया जाता है। इससे बेजुबान निरीह मछली, केंचुए और कछुए मरते हैं। अधिकारियों का एकमात्र उद्देश्य लाभ कमाकर मंत्रालय को प्रसन्न करना होता है। गरम पानी को ठंडा करके पुन: उपयोग किया जा सकता है, परंतु अधिकारीगण इस मामूली खर्च को वहन करने के स्थान पर निरीह जंतुओं को मौत के घाट उतार रहे हैं। इस पृष्ठभूमि में हम आकलन कर सकते हैं कि नदी से कितना पानी निकालना उचित होगा। नदी से 100 फीसदी पानी निकाला जाए तो किसान को लाभ होगा, परंतु समुद्रतटवासियों, मछुआरों तथा तीर्थ यात्रियों को हानि बहुत ज्यादा होगी। यदि 90 प्रतिशत पानी निकाला जाए और 10 प्रतिशत छोड़ा जाए तो किसानों को मामूली हानि होगी, जबकि तीर्थयात्रियों को अधिक लाभ होगा। इसी प्रकार गणना करके पता लगाया जा सकता है कि किस स्तर पर किसान को लाभ एवं तीर्थयात्रियों को हानि बराबर हो जाएगी। पानी निकालने के तरीके पर भी पुनर्विचार करना चाहिए। वर्तमान में नदी के संपूर्ण पाट पर बैराज बनाकर पानी के बहाव को रोक लिया जाता है। बैराज के पीछे तालाब बन जाता है, जिसमें पानी सड़ता है और गाद जमा हो जाती है। मछलियां अपने प्रजनन क्षेत्र तक नहीं पहुंच पाती हैं। बैराज के स्थान पर आंशिक ठोकर बनानी चाहिए। मान लीजिए 40 प्रतिशत पानी निकालना है। ऐसे में नदी के 100 मीटर के पाट में 40 मीटर पर एक दीवार बनाकर 40 प्रतिशत पानी को नहर में निकाला जा सकता है। शेष 60 प्रतिशत पानी को बिना रूकावट बहने दिया जाना चाहिए। ऐसी व्यवस्था से बाहुबलियों द्वारा ज्यादा पानी नहीं लिया जा सकेगा। (लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)

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