Thursday, February 3, 2011

कठिन है पोस्को की डगर


तिवारी काफी जद्दोजहद के बाद मिली पोस्को परियोजना की मंजूरी का यह कतई मतलब नहीं है कि यह प्रोजेक्ट अपने मुकाम तक पहुंच ही जाएगा। केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की मंजूरी के बाद भी इसकी राह में अनेक रोड़े हैं, जिसे दूर करने के लिए कंपनी को कड़ी कसरत करनी पड़ सकती है। समझा जा रहा है कि अब वेदांता समर्थक भी सरकार पर इस बात के लिए दबाव बनाएंगे कि जब पोस्को को हरी झंडी मिल सकती है तो वेदांता को क्यों नहीं? इसके अलावा इस मसले पर भारत को चीन का भी विरोध झेलना पड़ सकता है। दक्षिण कोरियाई कंपनी पोस्को की उड़ीसा के जगतसिंह पुर में स्टील प्लांट लगाने की कोशिशें सफल हो गई है। पर्यावरण मंजूरी के चक्कर में करीब पांच वर्षो से अटकी इस परियोजना के रास्ते की अड़चन करीब-करीब खत्म हो गई है। 31 जनवरी को वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने इस परियोजना को सशर्त मंजूरी दे दी। करीब 51 हजार करोड़ रुपये के विदेशी निवेश से लगने वाली इस परियोजना के लिए पर्यावरण मंत्रालय ने 60 तरह की शर्ते लगाई हैं। मंत्रालय ने कहा है कि पोस्को परियोजना देश के लिए आर्थिक, तकनीकी व रणनीतिक तौर पर बेहद महत्वपूर्ण है। मंत्रालय ने कंपनी के स्टील व कैप्टिव बिजली प्लांट के लिए 28 शर्ते लागू की हैं, जबकि कंपनी के उपयोग के लिए बनने वाले बंदरगाह के लिए 32 शर्तो की सूची सौंपी गई है। मंत्रालय ने उड़ीसा सरकार से भी कुछ आश्वासन मांगे हैं। मसलन, राज्य सरकार केंद्र को आश्वस्त करेगी कि परियोजना को लेकर वन अधिकार कानून का उल्लंघन नहीं होगा। साथ ही भूमि अधिग्रहण कानूनों का पूरी तरह से पालन होगा। यह आश्वासन मिलने के बाद केंद्र सरकार परियोजना के लिए आवश्यक वन विभाग की 1,253 एकड़ जमीन की मंजूरी देगी। उड़ीसा सरकार के मुताबिक पर्यावरण व वन मंत्रालय की शर्तो को पूरा करते हुए पोस्को परियोजना पर काम शुरू करवाया जाएगा। वहीं पोस्को ने कहा है कि जमीन अधिग्रहण का काम पूरा होते ही निर्माण कार्य शुरू हो जाएगा। कंपनी ने पर्यावरण मंत्रालय की शर्तो को मानने का भी भरोसा दिलाया है। 22 जून 2005 में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी स्टील कंपनी पोस्को और उड़ीसा सरकार के बीच परियोजना लगाने के लिए समझौता हुआ था। इसे भारत का अभी तक का सबसे बड़ा विदेशी निवेश प्रस्ताव माना जाता है, लेकिन शुरुआत से ही यह परियोजना विवादों में उलझी रही। पहले स्थानीय नागरिकों ने विरोध किया, फिर पर्यावरण संबंधी एक समिति की सिफारिशों के बाद अगस्त 2010 में इस पर काम भी बंद कर दिया गया। इस प्रोजेक्ट की राह में अब भी कई रोड़े हैं। मसलन, कुछ महीने पहले ही वन अधिकार कानून और पर्यावरण कानूनों के उल्लंघन के आरोप में वेदांता के लांजीगढ़ एल्यूमिनियम प्रोजेक्ट को रद्द कर दिया गया था। तब राहुल गांधी ने उस फैसले का श्रेय लिया था। अब कांग्रेस के इस उगते सितारे के सामने चुनौती यह दिखाने की है कि उस फैसले के पीछे स्थानीय निवासियों की आजीविका और पर्यावरण संरक्षण की वाजिब चिंताएं थीं, वह महज छवि निर्माण का एक हथकंडा नहीं था। सवाल यह है कि देश के कानूनों के उल्लंघन की कीमत अगर वेदांता को चुकानी पड़ी तो पोस्को को ऐसा करने की छूट कैसे दी जा सकती है? समझा जा रहा है कि पोस्को को नजीर मानते हुए वेदांता समर्थक सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश करेंगे कि उसे भी मंजूरी दिया जाए। इससे अलग पोस्को की राह की समस्या चीन भी है। जानकार बताते हैं कि दक्षिण कोरियाई इस कंपनी पर चीन की टेढ़ी नजर है। बताते हैं कि पिछले पांच वर्ष पूर्व जब पोस्को और उड़ीसा सरकार के बीच समझौता हुआ था, तब से ही चीन इस पूरे प्रकरण को गंभीरता से देख रहा है। दरअसल, आजकल उत्तर और दक्षिण कोरिया आमने-सामने हैं, जिसमें चीन उत्तर कोरिया की मदद को खड़ा है, जबकि अमेरिका, रूस और जापान दक्षिण कोरिया की मदद कर रहे हैं। भारत से भी दक्षिण कोरिया के अच्छे संबंध रहे हैं। इसलिए समझा जा रहा है कि पोस्को परियोजना को रद्द करने के लिए चीन भारत पर दबाव बना सकता है। उधर, पोस्को प्रतिरोध संग्राम समिति ने घोषणा की है कि वह परियोजना के खिलाफ अपने आंदोलन को और तेज करेगी, क्योंकि इस परियोजना की वजह से स्थानीय लोगों की पान की खेती उजड़ जाएगी।


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