एक ऐसा पेड़! जिसकी पत्तियों को रगड़ने से सिरदर्द दूर हो जाता है, फूलों से डायरिया व डायसेंटरी की दवा, गुलुकंद, जूस और चटनी तैयार होती है, छाल से मोमबत्ती बनती है। जिसकी लकड़ी भवन निर्माण में काम आती है। ऐसे बेशकीमती बुरांश के पेड़ों का वजूद खतरे में है। जम्मू कश्मीर में विकास के नाम पर खड़े होते कंक्रीट के जंगल और अंधाधुंध भवन निर्माण बेशकीमती बुरांश के पेड़ों की बलि ले रहे हैं, लेकिन इसके संरक्षण के प्रति न तो वन विभाग संजीदा है और न ही सरकार। वन विशेषज्ञ ओपी विद्यार्थी की मानें तो जम्मू कश्मीर में बुरांश की पांच किस्में हैं, जिनमें लाल, सफेद और नीले फूल लगते हैं। निचले क्षेत्रों में बुरांश के पेड़ों पर लाल और ऊंचाई वाले क्षेत्रों में छोटे-छोटे झाड़ीदारनुमा पेड़ों पर सफेद तथा नीले फूल लगते हैं। जागरूकता की कमी और संरक्षण के अभाव में पिछले पांच दशकों में राज्य के जंगलों से बुरांश के 30 फीसदी से भी अधिक पेड़ लुप्त हो गए हैं। चिंताजनक यह भी है कि मौसम के बदलते चक्र के कारण इसके पौधों की नर्सरी तैयार नहीं हो पा रही है। हालांकि अब सरकार ने पर्यटन को बढ़ावा देने की गरज से इस पेड़ की महत्ता को समझा है। इसी के तहत राजौरी जिले के डेरा की गली क्षेत्र में बुरांश के जंगलों को इको टूरिज्म से जोड़ा है। बुरांश के फूलों को निहारकर पर्यटक आनंदित हो उठते हैं। राजौरी जिले के निवासी पर्यावरणविद् मदन मोहन कहते हैं कि बुरांश के फूलों को मामूली न समझें। जब मार्च-अप्रैल में ये खिलते हैं तो पूरे जंगल में चमक ला देते हैं। अपने गुणों के कारण ही बुरांश के लाल फूल नेपाल के राष्ट्रीय फूल बन गए हैं, जबकि उत्तराखंड में इन्हें राजकीय फूल का दर्जा हासिल है। सफेद फूलों को हिमाचल सरकार ने राजकीय पुष्प घोषित कर रखा है। देश के पूर्वी राज्य सिक्किम ने तो बुरांश के पेड़ को संरक्षित करने के लिए सेंचुरी भी बनाई है। 2010 में सिक्किम के गंगटोक में आयोजित कार्यशाला में पर्यावरणविदें ने हिमालयी क्षेत्र में बुरांश के घटते पेड़ों पर गहन चिंता जताई थी। साथ ही प्रदेश सरकारों से अपील की थी कि वे इस पेड़ को बचाने के लिए काम करें। विशेषज्ञों का कहना है कि पश्चिमी हिमालयन राज्यों में बुरांस के पेड़ों की घटती संख्या चिंतनीय है। जम्मू-कश्मीर में तो स्थित बेहद गंभीर है।
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