Thursday, April 21, 2011

प्रकृति से खिलवाड़ का नतीजा


आज विकसित राष्ट्र जापान की वैज्ञानिक महत्वकांक्षा और प्रकृति पर नियंत्रण पाने की उसकी विजय यात्रा का दुष्परिणाम सबके सामने है। तबाही से बच निकलने की छटपटाहट, जीवन को बचाने का वैज्ञानिक उपाय और तकनीकी विकास के दम पर प्रकृति के रहस्यों को सुलझा लेने की उसकी सारी कवायद विफल होती नजर आ रही है। अब जब जापान में न्यूक्लियर संयंत्रों के विस्फोट से होने वाले रेडिएशन का प्रभाव विश्व को डराने लगा है और इससे निपटने के बजाय वह हथियार डालता नजर आ रहा है तो इससे अपने आप पुष्टि हो जाती है कि प्रकृति को अपनी तरह से हांकना दुस्साहस के सिवा कुछ नहीं है..
आज विकसित राष्ट्र जापान की वैज्ञानिक महत्वकांक्षा और प्रकृति पर नियंत्रण पाने की उसकी विजय यात्रा का दुष्परिणाम सबके सामने है। तबाही से बच निकलने की छटपटाहट, जीवन को बचाने का वैज्ञानिक उपाय और तकनीकी विकास के दम पर प्रकृति के रहस्यों को सुलझा लेने की उसकी सारी कवायद विफल होती नजर आ रही है। अब जब जापान में न्यूक्लियर संयंत्रों के विस्फोट से होने वाले रेडिएशन का प्रभाव विश्व को डराने लगा है और इससे निपटने के बजाय वह हथियार डालता नजर आ रहा है तो इससे अपने आप पुष्टि हो जाती है कि प्रकृति को अपनी तरह से हांकना दुस्साहस के सिवा कुछ नहीं है..हाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले के जैतापुर में प्रस्तावित परमाणु ऊर्जा प्लांट का किसानों और पर्यावरणविदों द्वारा विरोध के बावजूद सरकार का अपने निर्णय पर डटे रहना उसकी हठधर्मिता को ही दर्शाता है। जापान की महात्रासदी से सबक लेने के बजाय लगता है कि सरकार मानवता को दांव पर रखकर जापान की तरह ही विकास की पटकथा लिख डालना चाहती है। हालांकि प्रकृति पर विजय पाने की अति महत्वाकांक्षा को धूल-धूसरित कर देने वाला जापानी महात्रासदी का सबक सदियों तक विकासवादी अहंकार को चिढ़ाता रहेगा। असल में जब भी भोगवादी सोच से प्रकृति के स्वाभाविक रूप को ठेंगा दिखाया जाता है और उसे जकड़ने की कोशिश की जाती है तो देर-सवेर प्रकृति नाराज होकर अपने रौद्र रूप में आती ही है। अगर हम प्रकृति के ऐसे संकेतों को समझ सकें तो प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाए रखने में ही भलाई है। देखें तो प्रकृति के विद्रोह से उपजी तबाही जापानी त्रासदी के रूप में कोई पहली घटना नहीं है। प्रकृति अपने विद्रोह से बार-बार चेताने का काम करती आ रही है, लेकिन खेद है कि वैज्ञानिक अहंकारहमेशा ही आड़े आता रहा है। आज विकसित राष्ट्र जापान की वैज्ञानिक महत्वकांक्षा और प्रकृति पर नियंत्रण पाने की उसकी विजय यात्रा का दुष्परिणाम सबके सामने है। तबाही से बच निकलने की छटपटाहट, जीवन को बचाने का वैज्ञानिक उपाय और तकनीकी विकास के दम पर प्रकृति के रहस्यों को सुलझा लेने की उसकी सारी कवायद विफल होती नजर आ रही है। अब जब जापान में न्यूक्लियर संयंत्रों के विस्फोट से होने वाले रेडिएशन का प्रभाव विश्व को डराने लगा है और इससे निपटने के बजाय वह हथियार डालता नजर आ रहा है तो इससे अपने आप पुष्टि हो जाती है कि प्रकृति को अपनी तरह से हांकना दुस्साहस के सिवा कुछ नहीं है। आज इसके दुष्परिणाम सबके सामने है। कहीं प्रकृति आग उगल रही है तो कहीं जलजले देखे जा रहे हैं। कहीं सुनामी की भयावहता की गहरी चीखें दूर-दूर तक लोगों को डरा रही हैं ंतो कहीं ज्वालामुखी के विस्फोट से लोगों का जीवन संकट में पड़ता जा रहा है। मनुष्य प्रकृति को तहस-नहस कर अपने विकास के रथ को कहां ठहराव देगा, यह न तो उसे खुद पता है और न ही उसकी सीमा नजर आ रही है। विकास की अंधी दौड़ में अनियंत्रित और प्रकृति विरोधी छलांग लगाई जा रही है। आजतक की मानव-यात्रा में अगर हम विभिन्न सभ्यताओं पर ध्यान दें तो पाएंगे कि पहले लोग प्रकृति के प्रति आस्थावान और उदार थे। प्रकृति के हर अवयव की उपासना करते थे। सिंधु घाटी की सभ्यता हो या मिd की नील घाटी की सभ्यता या दजला-फरात नदी घाटी की सभ्यता, सबमें प्रकृति के प्रति अनुराग और सत्कार-सहकार का भाव मिलता है। वैदिक कालीन देवमंडल के वर्गीकरण से साफ हो जाता है कि देवता प्रकृति के विभिन्न अवयवों के प्रतिनिधि हुआ करते थे। लोग देव रूप में प्रकृति की पूजा-आराधना कर उसकी सुरक्षा करते थे। भारत की अति प्राचीन सिंधु सभ्यता में इस बात के सैकड़ों प्रमाण हैं कि लोग जल, वृक्ष और नदी की आराधना करते थे। मुअनजोदड़ो से प्राप्त एक सील पर तीन मुख वाला एक पुरुष ध्यान की मुद्रा में बैठा है, जिसके सिर पर तीन सींग हैं, उसके बाईं ओर एक गैंडा व भैंसा है और दाईं ओर एक हाथी, एक व्याघ्र व हिरन है। वृक्ष पूजा के भी प्रमाण यहीं से प्राप्त एक सील पर बने पीपल की डालों के मध्य देवता से हो जाता है। नागपूजा के भी प्रमाण मिलते हैं। क्या यह समझने के लिए काफी नहीं है कि हजारों-हजार वर्ष पूर्व मानव प्रकृति के कितने निकट और अनुकूल था। यहां तक कि पृथ्वी को भी देवी मानकर उनकी आराधना की गई है। इन तथ्यों से साफ हो जाता है कि प्राचीन सभी सभ्यताओं में प्रकृति और मानव जाति के बीच अन्योन्याश्रित संबंध था और प्रकृति की सुरक्षा को लेकर मानव जाति में एक सात्विक दृष्टिकोण था। लोग प्रकृति की अनुकूलता को बनाए रखने के लिए स्वयं अपना आचरण प्रकृतिपरक बनाते थे। 
लेकिन क्या आज के आधुनिक व विकसित मनुष्य का आचरण और कार्य-व्यवहार प्रकृति के अनुकूल रह गया है? क्या ऐसा नहीं लगता कि हम प्रकृति से लगातार दूर होते जा रहे हैं? देखा जा रहा है कि सुख-सुविधाओं के विस्तार में जुटा विकास लगातार जंगलों को उजाड़ता जा रहा है और धरती के फेफड़े समझे जानेवाले जंगलों-वृक्षों को नष्ट करके उनके स्थान पर डरावनी बहुमंजिली इमारतें और कल-कारखाने बनाता जा रहा है। जीवों का संहार करने पर उतारू सर्वभक्षी विकासवादियों से पूछा जा सकता है कि क्या इन वनस्पतियों और जीव-जंतुओं को समाप्त कर आधुनिक सभ्यता को दीर्घकाल तक अक्षुण्ण बनाए रखा जा सकता है? समुद्र के सीने पर हजारों टन के बड़े-बड़े दौड़ते जहाज, विषैला होता जल, मरते जा रहे जलीय जीव- आखिर प्रकृति कितना और कबतक बर्दाश्त करेगी? नदियों की धारा को मोड़कर बनाए जा रहे बड़े-बड़े बांध क्या प्रकृति और पर्यावरण की महिमा को घटाना और उसकी असीम ताकत को चुनौती देना नहीं है? अगर आज प्रकृति लालची, अहंकारी और निरंकुश विकास के सामने सुनामी, तूफान, भूकंप, बाढ़-सूखा, हिमपात आदि के रूप में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रही है तो इसके निहितार्थ को समझने की जरूरत है, न कि प्रकृति के समक्ष बेवजह ताल ठोंकने की।

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